सर्वजन के भोग हेतु उपलब्ध
सभ्य समाज के कुछ सुसंस्कृत राजपुत्रों को
मस्ती-भरी ‘ग़लती’ करने की इच्छा हुई
जवान होते लड़कों की ‘नासमझ ग़लती’
जिन्हें बार-बार दोहराने की खुली छूट होती है
सुसंस्कृत सभ्य पुत्रों को
तब वे आते हैं यहीं
जहाँ कूड़े के बीच रहती हैं उनकी वो बेटियाँ
जो हैं पहले से रखे गए
समाज के एकदम बाहर
हाशिए पर …
जैसे रखा जाता है पालतू जानवरों को
घर के बाहर …
फिर मिलते हैं उन बेटियों के क्षत-विक्षत शव
नाली में,
कूड़े पर,
बोरों में बंद,
हाथ-पैर बँधे हुए,
मुँह पर कपड़ा भी कभी-कभी बँधा हुआ…
सरकार चुप…
पुलिस चुप…
प्रशासन चुप…
जनता चुप…
समाज भी चुप…
मीडिया चुप…
अध्यापक और छात्र चुप…
नेता और मंत्री चुप…
कहीं कोई शोर नहीं…
और फिर वे तो ‘हाशिए’ की बेटियाँ हैं…
उनका क्या …..???
–डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
विकृत मानसिकता का कोई इलाज़ तो होगा .कब आएगी अनिवार्य चेतना ?
बहुत बहुत धन्यवाद, मुदित जी …
दिल को छू लेनेवाली कविता है