बतकही

बातें कही-अनकही…

मैं मानता हूँ, राम
कि तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो…!
कई अविस्मरणीय मर्यादाएँ स्थापित की हैं तुमने,
और अमर हो गए अपनी उन मर्यादायों के लिए …..|
समाज और धर्म ऋणी है तुम्हारे, उन मर्यादाओं के लिए…!
मुझे कुछ नहीं कहना, उनके बारे में
मैं नहीं उलझना चाहता तुम्हारी मर्यादाओं से |

लेकिन अपनी मर्यादाओं के फेर में
तुमने एक ऐसी मर्यादा स्थापित कर दी,
जिसने छलनी कर दिया पिताओं का ह्रदय
मेरी पुत्री को अवश अवस्था में निर्वासित करके
जो थी जन्म से ही अभागिनी…!
अपने जनक-जननी द्वारा परित्यक्त
जिन्होंने निर्ममता से भूमि में दफ़ना दिया था अपनी ही नवजात कन्या को |
पता नहीं किस विवशता के वशीभूत होकर…|
शायद तुम्हारे जैसे ही किसी ‘मर्यादा के अनुचर’ से जन्मी थी वह कन्या,
जिसे स्वीकार नहीं हुआ, स्त्री के साथ रमण करके उसे अपनाना
शायद वह भी स्त्री को अपने कामानंद की वस्तु समझता होगा |
किन्तु उसे स्वीकार करना ‘पुरुषोचित कार्य’ नहीं समझता होगा…!
विवश उस स्त्री ने अपनी सद्यःजात पुत्री को जीवित दफ़ना दिया
उसकी और अपनी ‘मुक्ति’ के लिए…!

परन्तु हतभाग्य…!
कौओं ने खोद डाला था उस भूमि को
अपने नुकीले चंचुओं से,
उसका सुकोमल मांस खाने के लोभ में…!
चीख पड़ी थी नवजात, कौओं की चोंच के प्रहार से
सेवक ने दौड़कर बताया मुझे |
और भागा था मैं उस ओर, न जाने क्या सोचकर |
उसकी करुण पुकार ने छलनी कर दिया था मेरा ह्रदय
विवश, मैंने उसे भूमि से निकाल ह्रदय से लगा लिया था |
असहाय बच्ची, …मेरी ! चिपक गई थी मुझसे,
आश्रय पाकर…!
ह्रदय भर आया था, उसकी मनोदशा देखकर…!

वह पहली स्मृति कभी भूली ही नहीं मुझे
और जीवनभर उसे अथाह प्रेम करता रहा…!
वह मेरे जीवन की पूर्णता थी,
औरस न होकर भी आत्मजा थी वह मेरी,
मेरी आत्मा का अभिन्न अंश…!
जिससे मैं कभी मुक्त नहीं हो सका, न मुक्त होना चाहा
क्योंकि वह मेरे ह्रदय की सबसे सुन्दर और सबसे कोमल अभिव्यक्ति थी |
जिसे मैं प्यार करता था, अपनी सबसे पवित्र भावना की गहराई से…!

मैं कभी नहीं भूल सका उसकी पहली छुअन,
घावों की पीड़ा और भय से थरथराता उसका नन्हा गात,
पाकर मेरा ममत्व-स्पर्श
उसका चिपक जाना मुझसे, आश्वस्त होकर…
चूसते हुए अपना अँगूठा…!
याद आते ही, आज भी बिंध जाता है मेरा ह्रदय !
आँखें बरसने लगती हैं बरबस, अनियंत्रित होकर…!
मैं तब विस्मृति में ही चिपका लेता हूँ उसे कलेजे से,
बचाने को उसे हर उस व्यक्ति से,
मर्यादाओं, परम्पराओं, आदर्शों से
रावण और राम से भी…
जो उसे नोंच लेना चाहते हैं,
उन भूखे कौओं की तरह…!

तुमने मेरी उसी प्राणप्रिया-पुत्री को वन में छोड़ दिया, मर्यादा पुरुषोत्तम…!
असहाय
अकेली
अपने आदर्शों और मर्यादाओं की बेड़ियों से बाँधकर…!
वो नहीं दे सकी होगी अपना परिचय,
वाल्मीकि आश्रम में…!
निश्चय ही डर गई होगी, मेरी हतभाग्य जानकी;
इस भय से,
कि यदि जान जायँ ऋषिगण उसका ‘सत्य’
कि वह है समाज और पति द्वारा लांछित और परित्यक्त,
तब कहीं वहाँ से भी निष्कासित न कर दी जाय…!
तब वो कहाँ जाएगी, अपनी असहायावस्था में
अपने गर्भ का भार वहन करती हुई ?
कहाँ मिलेगा उसे कोई सुरक्षित आश्रय ?
कौन भयमुक्त होगा, आदर्शों और मर्यादाओं से ?
किसको डर नहीं होगा समाज का,
कौन लड़ सकेगा उसके लिए वशिष्ठों-विश्वामित्रों के ‘धर्म-तत्वों’ से
और मर्यादा-पुरुषोत्तम की ‘मर्यादाओं’ से ?
भय से मेरी जानकी ने नहीं बताया होगा अपना परिचय |
और इसी कारण मैं भी
नहीं ढूँढ पाया उसे गहन वन में…|
किसी को नहीं पता था, कहाँ गई मेरी असहाय दुहिता
फिर किसी रावण की शिकार हुई ?
या मानवी-कौवों ने नोंच खाया उसे ?
अथवा हिंस्र वन्य-पशुओं का आहार हुई…?
उसे ढूँढने के मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हुए…|

मैं अपनी भाग्य-दग्धा पुत्री का भाग्यहीन पिता !
….मुझे उसका पता वाल्मीकि आश्रम-वासियों से तब चला,
जब तुमने उसकी संतान छीन ली
और उसे फिर से असहाय कर दिया |
मेरी पुत्री का हश्र देखकर
किसी भी राजा ने अपनी कन्या नहीं दी थी तुम्हें
दोबारा विवाह करके संतान-प्राप्ति के लिए |
किसी को स्वीकार नहीं था,
अपनी कन्या के जीवन और भविष्य के मूल्य पर
प्रख्यात रघुकुल से सम्बन्ध जोड़ना |

तब तुम और तुम्हारे शुभ-चिंतक चिंतित हुए,
राम के वंश के उद्धार की चिंता हुई सबको….|
कि तभी तुम्हें पता चला
वन में जन्मे अपने दो पुत्रों का |
तुम्हें मार्ग दिखा उनमें अपने वंश के उद्धार का |
काफ़ी सोच-विचार किया तुमने,
तुम्हारे सभी आचार्यों और पुरोहितों ने भी खूब सोचा,
तब परंपरा, आदर्श और धर्म का छत्र सिर पर धारण कर
तुम वाल्मीकि-आश्रम आए और साधिकार छीन ले गए
मेरी पुत्री से, उसकी संतानों को
जो थे, उसके अंतिम सहारे,
…जीवित रहने के |
बलपूर्वक संतान छीन लिए जाने पर वह टूट गई |
उस पीड़ा को नहीं सह सकी, मेरी हतभाग्य सुनयना-सुता
अपना जीवन समाप्त कर लिया उसने
जीवित रहने का कोई मार्ग या सहारा शेष न देखकर
लगा दी छलांग, पहाड़ की चोटी से…!
किसी गड्ढे में उसका क्षत-विक्षत शव पड़ा था नीचे घाटी में;
जिसे ऋषि-कुमारों ने मिटटी में दबा दिया, …तत्काल !
जैसे उसकी जननी ने एक दिन दबाया था उसे, जीवित ही…!
समा गई मेरी पुत्री, उसी धरती की कोख में
जहाँ से वह मुझे मिली थी, घायल और आहत !

दुनिया में आने से लेकर दुनिया छोड़ने तक,
वह ज़ख्मों से ही भरी रही |
वे ज़ख्म ही उसके चिर-सहचर थे,
जो उसके जीवन से निकलकर मेरे ह्रदय में समा गए
सदा के लिए…!
धर्म, परम्पराओं, ऋषि-मुनियों ने उसे ‘भूमिजा’ कहकर सबको बचा लिया—
—उसके जनक-पुरुष को भी…!
—राम और इक्ष्वाकु-वंश को भी…!
—वशिष्ठों-विश्वामित्रों को भी…!
—परम्पराओं और आदर्शों को भी…!
सबको बताया गया—
“भूमिपुत्री देवी सीता भूमि से जन्मी थीं, इसलिए भूमि में ही समा गई, अततः…!”

…मेरी पुत्री मुझे लौटा दो, राम !
मैं उसे फिर से प्यार करना चाहता हूँ…!
तुम जैसे ‘आदर्श के वाहक’ पुरुषों से बचा लेना चाहता हूँ…!
प्रतिशोध में जलते रावणों से छुपा लेना चाहता हूँ…!
मर्यादाओं, आदर्शों और परम्पराओं से बचाकर
उसे फिर से अपने ह्रदय से लगा लेना चाहता हूँ !
अपनी पुत्री को आश्वस्त करना चाहता हूँ,
कि समाज और पति द्वारा परित्यक्त पुत्रियाँ घर-विहीन नहीं हो सकतीं !
पिता उनका विवाह करता है, विदा करता है
उनका परित्याग नहीं करता !
पिता का घर उनका अपना घर है
एक चिर-स्थायी घर !
जिसे कोई नहीं छीन सकता पुत्रियों से
विवाह के नाम पर !

मैंने तुम्हें अपनी पुत्री दी थी, राम
तुम्हारे और उसके सुखद जीवन के लिए |
उसका परित्याग नहीं किया था
तुम्हारी तरह…!
मैं क्या करूँगा, तुम्हारी स्थापित मर्यादाओं का
यदि वह मेरी कन्या को जीवन का अधिकार ही न दे सके…?

मुझे मेरी आत्मजा लौटा दो, राम
कि मैं भी एक मर्यादा स्थापित करना चाहता हूँ
पिता की मर्यादा…!
कि पिता के घर से, ह्रदय से
उसकी दुहिता को नहीं निकाल सकती—
कोई भी मर्यादा, आदर्श या परंपरा…!
समाज, आदर्शों, परम्पराओं, मर्यादाओं की सताई पुत्रियाँ नहीं डरेंगी
किसी भी राम या रावण का विरोध करने से…!
इस भय के कारण
कि कहीं विरोध करने से उनका आश्रय न छिन जाय
वे असहाय न हो जायँ
समाज में परित्यक्त और लांछित न हो जायँ |
मैं आश्वस्त करना चाहता हूँ, अपनी प्रिय-पुत्री को
कि उसके पिता का प्रेम और विश्वास नहीं मिटा सकती कोई मर्यादा |
मैं अपनी जानकी को विश्वास दिलाना चाहता हूँ,
कि कोई भी अपमान या तिरस्कार उसके पिता को तोड़ नहीं सकता
जितना मेरी निर्दोष असहाय पुत्री की असह्य वेदना ने तोड़ा था, मुझे कभी…!

तुम अपनी समस्त मर्यादाएँ संभालो, राम !
अपने सभी आदर्शों की रक्षा करो, तुम !
केवल मुझे मेरी सीता वापस लौटा दो…!
कि मैं उसे पुनः ह्रदय से लगाना चाहता हूँ…!
कि मैं उसे फिर से प्यार करना चाहता हूँ…!
कि उसे फिर से आश्वस्त करना चाहता हूँ…!
कि मैं उसे उसके घर ले जाना चाहता हूँ…!

डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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5 thoughts on “जनक की याचना …

  1. कनक जी आपकी हर रचना मेरे अंतर्मन को गहराई से झकझोर देती है वो जो वितृष्णा मैं अनुभव करती रही हूं उसे आप मुखरित कर देती हैं। इसके लिए आपको कोटिशःधयवाद

  2. I feel so great to see Dr Kanak Lata writing freelance. She is an asset. जितनी सुन्दर कविता, उतना ही सुन्दर उनकी व्यक्तित्व. और बेहतरीन कहानी. डर के आगे. ऐसे होनहार हिन्दी ज्ञानी को सरकारी तंत्र में होना चाहिए. आपको प्रणाम

  3. बहुत ही अच्छी कविता। एक पिता के हृदय की चित्कार व्यक्त करती हुई है।

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