सुनो शम्बूक…!
क्या हुआ, कि तुम मारे गए राम के हाथों
वेदों के मन्त्रों का उच्चारण करने के अपराध में ….???
क्या हुआ, यदि नहीं स्वीकार था
राजा राम को,
वशिष्ठों और विश्वामित्रों को
राजाओं, सामन्तों और श्रेष्ठियों को,
शक्तिशाली समाज को,
तुम्हारा वेदों का अध्ययन करना …..!
उसके ‘पवित्र मन्त्रों’ का एक शूद्र द्वारा उच्चारना …..!
उनके वेदों के उन रहस्य को समझने में सिर खपाना ……!
जिसमें छिपे थे वे तमाम रहस्य
कि कैसे उनके रचयिता आक्रान्ताओं ने दमन किया था अपने क्रान्ताओं का
छल से, बल से, षड्यंत्र से |
कि किस प्रकार किया था यहाँ के निवासियों का क्रूरतापूर्ण संहार
भयानक और मारक अस्त्र-शस्त्रों से |
कि क्यों उजाड़ी थीं यहाँ की विकसित सभ्यताओं को
बसे-बसाए गाँवों और नगरों को
संस्कृतियों को
जीवन को…….
आग से, घोड़ों की खुरों से, रथों के पहियों से |
अपनी जातीय-श्रेष्ठता के अहंकार में ….!!!
राम द्वारा, पुरोहितों द्वारा मारे गए तुम
लेकिन तुम मरे कहाँ …?
तुम तो अमर हो गये…
अपने ही लोगों की गाथाओं में, स्मृतियों में !
पुरोहितों ने घृणावश तुम्हारे संहार की कथा सुनाई सदियों से,
रामकथा सुनाते हुए –गर्व से, अहंकार से |
ताकि डर जायँ तुम्हारे वंशज
और भूले से भी दुस्साहस न करें,
उनकी इच्छा और आज्ञा के विरुद्ध कोई कार्य करने की |
लेकिन तुम्हारी कथा को तुम्हारे वंशजों ने सुनी
श्रद्धा से,
विश्वास से,
आदर से
…. और हाँ, ……ध्यान से भी …..!
और तय किया कि खींचकर ले आएँगे वे उस समय को
अवश्य
एक दिन
जब कोई राम किसी शम्बूक का वध करने का दुस्साहस न कर सकेगा !
जब कोई वशिष्ठ या विश्वामित्र उनके कुटिल रहस्यों का उदघाटन करने से तुम्हें रोक न सकेगा
धर्म-विरुद्ध कहकर !
पकड़ लाएँगे उस सूरज को
जो भरेगा उनके जीवन में भी उजाला
जो हैं सदियों के पीड़ित और वंचित ….!
तुम फिर से जागो शम्बूक …..!
एकलव्य तुम्हारा रक्षक होगा …!
उसका अँगूठा कट गया तो क्या हुआ
उसने अपने भीतर से कई और एकलव्य सृजित कर दिए हैं समाज के भीतर
अब कई एकलव्य उठ खड़े हुए हैं
द्रोणाचार्यों के विरुद्ध …!
अपने-अपने पैने अस्त्र-शस्त्रों के साथ ……
जिनके अँगूठे काट लेना
अब नहीं है उतना ही सहज,
जितना सहज हुआ था तुम्हारे अँगूठे का काटना …!
अब सभी द्रोणाचार्य डरे हुए हैं एकलव्यों से
क्योंकि उन्हें याद हैं अपने पाप …..!
तुम फिर से प्रयास करो शम्बूक …..!
इस बार कर्ण तुम्हारे साथ होगा …!
तुम्हारा स्वर्णिम दिव्य कवच और ढाल बनकर
अपने कालपृष्ठ के साथ |
वो रक्षा करेगा तुम्हारी, जब तुम वेदों के रहस्यों को समझने में ध्यानमग्न होगे |
वह नहीं कटने देगा तुम्हारा सिर इस बार
किसी भी राम के द्वारा
रोक लेगा राम के प्रहार को अपने मज़बूत इरादों के ढाल पर
पहना देगा अपना वह दिव्य अभेद्य कवच तुम्हें
कि तुम सुरक्षित रहकर ढूँढ निकालो उन गूढ़ रहस्यों को
जो छिपे हैं उनके वेदों में
जिनकी आड़ में किया गया था हर दिन उसका भी तिरस्कार और अपमान !
तुम फिर से वेदों के रहस्यों को खँगालो शम्बूक …!
और बताओ सबको
कि कैसे उसके रचयिताओं ने रची थी वे साजिशें,
जिनको अस्त्र बनाकर आज भी हत्या करते हैं उनके रचयिता
हर रोज़ हजारों शम्बूकों की
बाबा साहेब तुम्हारे मार्गदर्शक होंगे …!
जो करेंगे अपनी अद्भुत मेधा से मदद तुम्हारी
उन कुटिल रहस्यों को समझने में
जो छिपे हैं हत्यारों की तरह उनके वेदों में
और मौक़ा मिलते ही हमलावर होकर करते हैं संहार,
सम्पूर्ण मानवता का…..!
अपने पैने नाखूनों को ख़ंजर बनाकर |
उनके रचित संविधान को रोज़ ही पैरों तले रौंदा जाता है, तो क्या हुआ …….?
उस संविधान के वादे तो नहीं मिटा सकता कोई भी धर्म-रक्षक ?
वे वादे जो संविधान ने किए थे, अपने देश के प्रत्येक नागरिक से …!
कि वह सभी को देता है सम्मानजनक ढंग से अपना जीवन जीने का अधिकार …!
कि निभानी होंगी सभी को सभी के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियाँ …!
कि करना होगा सभी को सभी के जीवन और अधिकारों का भी सम्मान …!
चाहे वह अवर्ण हो या सवर्ण, स्त्री अथवा पुरुष, या हिन्दू हो या मुसलमान …..!!!
बाबा साहेब ने भर दिए हैं उन वादों को
सभी के मन में,
मस्तिष्क में,
ह्रदय में …..!
तुम फिर से उठो शम्बूक,
कि संघर्ष अभी बाक़ी है ……!
तुम फिर से जागो शम्बूक,
कि तुम्हारे वंशज अब भटक चुके हैं
धर्म-प्राण बन चुके हैं, एक-दूसरे के ही रक्त के प्यासे होकर …..!
तुम फिर से आओ शम्बूक,
कि तुम्हारी अभी बहुत ज़रूरत है….|
साथ में एकलव्य को भी लेते आना,
जो बताएगा अपने ‘धर्म-प्राण’ वंशजों को,
कि कैसे उसके भी उसी ‘धर्म-प्राण-आचरण’ ने उससे उसका वह अँगूठा कटवाया था,
जो चुनौती देता था हर दिन राजपुत्रों को, धर्म को, संस्कृति को, परंपराओं को |
और जिसे नहीं समझ पाया था एकलव्य,
तत्काल ही
जब गुरु-दक्षिणा में माँगा गया था उसका वह राजपुत्रों को ललकारता अँगूठा;
उसने जाना तब,
जब वह अपने ही हाथों अपने चुनौती देते अँगूठे को काट चुका था …!
आते समय रास्ते में कहीं अंगराज कर्ण दिखें
तो उनको भी आने को मना लेना
कहना उनसे –“जिस जाति में पालित होने के कारण
वे सदैव अपमानित होते रहे, अपने ही सभ्य-सुसंस्कृत लोगों से,
अभी उसका क़र्ज़ बाक़ी है उनपर !”
वे अवश्य मान जाएँगे |
क्योंकि उन्होंने जो पीड़ा और अपमान झेले थे
अंग का राजा होकर भी, राजपुत्रों का मित्र होकर भी;
मात्र ‘सारथी-पुत्र’ होने के अभिशाप से !
उसे वे अब तक न भूले होंगे |
उन्हें अवश्य याद होंगे द्रोणाचार्य के तिरस्कारपूर्ण शब्द
उन्हें नहीं भूला होगा परशुराम का अपने ही शिष्य को दिया गया अभिशाप !
…और हाँ, …शम्बूक …!
…बाबा साहेब भी आँखों में आँसू भरे स्तब्ध और दुःखी खड़े होंगे वहीँ कहीं पर
धरती पर निरखते अपने स्व-जातीयों को
एक-दूसरे का ही खून बहाते हुए,
काटते हुए एक-दूसरे का गला
धर्म की रक्षा के नाम पर !
उनसे हाथ जोड़कर कहना
वे पिता हैं हमारे …..!
ईश्वर से पहले भी …..
….और ईश्वर के बाद भी ……
एकमात्र पथ-प्रदर्शक हमारे….!
अपने बच्चों को सही-ग़लत की पहचान कराने,
उन्हें सही राह दिखाने,
उन्हें फिर से एक बार आना ही होगा …!
लेते आना उन सभी को अपने साथ, चाहे वे किसी भी वर्ग या समाज के हों,
जो जीवन भर चाहते रहे,
मानवता की रक्षा करना !
लड़ते रहे इंसानियत के लिए !
जिन्हें प्रिय था
अपनी बेटियों और बहनों को, माँओं को –स्त्री को, उन्मुक्त हँसते-खिलखिलाते देखना
बिना किसी प्रतिबन्ध के, बिना भय के उन्मुक्त जीना |
जो देखना चाहते थे हर किसी को सुखी और प्रसन्न,
आतंक-रहित होकर जीना …|
जिन्होंने कोशिश की समाज को सबके लिए समान और सुरक्षित बनाने की
माँ की गोद की तरह…
जहाँ जी सकें सभी अपना अपना दुर्लभ मानव जीवन ……
सुनो शम्बूक …!
तुम अवश्य आना …!
…और तनिक जल्दी आना …!
सबकुछ नष्ट होने से पहले आना…!
–डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
अद्भुत रचना। रचनाकार कोटिशः नमन।
बहुत ही उम्दा रचना जो समाज को झिंझोड़ कर जगा देना चाहती है. धर्म और समाज के नाम पर समाज में प्रचलित कुव्यवस्थाओं और “धर्म के ठेकेदारों” की कुत्सित मानसिकताओं पर एक तीव्र कुठाराघात है यह कविता. वर्तमान को अतीत से जोड़कर वर्तमान में भविष्य के लिए विद्रोह के स्वर दिखते हैं आपकी इस कविता में. आशा करता हूँ कि आगे भी आप अपनी इस तरह की रचनाओं से समाज के उस ‘त्याज्य वर्ग’ को लाभान्वित करती रहेंगी…
धन्यवाद!
Very good poem