मैंने तो कहा था— शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो !
ये तीन मंत्र निचोड़ थे, मेरे जीवन भर के परिश्रम और संघर्षों के
जिन्हें मैंने तुमको दिया था
अनमोल धरोहर के रूप में !
ताकि तुम भी अधिकार पा सको — अपने मानव होने के |
सम्मान और पहचान मिल सकें — तुम्हारी संस्कृति एवं सभ्यता को भी |
और तुम भी जी पाओ — एक सम्मानजनक मानव-जीवन…!
मैंने कहा था— ‘शिक्षित बनो’…
तो तुम्हें उन इतिहासों को पढ़ना था, जिनमें बंद छुपी थी तुम्हारी पहचान
क्योंकि…
जो अपना इतिहास नहीं जानता, वह अपनी पहचान नहीं जानता
और अपने इतिहास और पहचान से अनभिज्ञ व्यक्ति का कोई भविष्य नहीं होता…!
तुम्हें समझने की ज़रूरत थी उन समाजशात्रियों की बातों को
जो बताते हैं तुम्हारी दयनीय स्थिति के सत्य को
जिसमें धकेल दिया गया है तुम्हें, सामाजिक व्यवस्थाओं के नाम पर
उस रसातल में…
जहाँ से तुम किसी को नज़र नहीं आ सकते, ख़ुद को भी नहीं…!
और तुम्हें जानना चाहिए था उन राजनीतिज्ञों का सत्य
जो केवल अपने लिए तुम्हें रखते हैं हमेशा
अनपढ़, अशिक्षित, अनुकरणकर्ता, धर्मांध…!
राजनीति, समाज और उनकी तमाम व्यवस्थाएँ
कभी भी तुम्हारी शिक्षा का समर्थन नहीं करेंगीं…
क्योंकि इससे उनका सत्य उजागर होता है
और वे संकट में पड़ सकती हैं |
इसलिए वे तुम्हें हमेशा रखती हैं पुस्तकों से दूर
ताकि तुम हमेशा रहो—
विचारहीन, ज्ञानहीन, बुद्धिहीन, तर्कहीन, कूपमंडूक…!
मैं जानता था इन तमाम प्रपंचो और षड्यंत्रों को
इसलिए मैंने तुम्हें कहा— ‘शिक्षित बनो’ हर हाल में
ताकि तुम देख पाओ उस ‘सत्य’ को
जो तुमसे हमेशा छुपाया गया— सायास—
धर्म, संस्कृति और परंपरा के नाम पर !
लेकिन तुमने पढ़ीं धर्म की पाठशाला में धार्मिक कथाएँ
जिनमें बंद थीं तुम्हारे कुछ पूर्वजों के धार्मिक-कर्तव्यों की दास्तानें
जो निभाई गई थीं इन्हीं षड्यंत्रकारियों के हित में
लेकिन जो थीं अपने ही समाज के विरुद्ध…!
और बना दिए गए तुम उन्हीं की भाँति ‘धर्मप्राण’ और ‘राष्ट्रप्रेमी’ |
…और तुम…?
‘भक्त’ बनकर समाज का रक्त बहाने लगे तुम !
क़त्ल करने लगे मेरे दिए मूल्यों का
क़ातिल बन गए अपने ही देश के
हत्यारे हो गए तुम समाज के…!
रक्त पीने लगे तुम मानवता का
क्योंकि अब तुम केवल भक्त थे— …‘ईश्वर भक्त’ …‘राष्ट्रभक्त’ !!!
मैंने कहा था—‘संगठित रहो’…
तो तुम्हें संगठित होना था—
अपने ख़िलाफ़ होनेवाले षड्यंत्रों के विरूद्ध
षड्यंत्रकारियों के विरुद्ध
उनके छल-प्रपंचों के विरुद्ध…!
लेकिन तुम तो अपने ही विरुद्ध संगठित होने लगे…!
और बहाने लगे अपनों का ही रक्त—
‘धर्म’ की रक्षा के नाम पर,
‘संस्कृति’ की सुरक्षा के नाम पर
‘राष्ट्रप्रेम’ के नाम पर…!
मैंने कहा था — ‘संघर्ष करो’…
तो तुम्हें संघर्ष करना था—
अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए,
अपने अधिकारों के लिए,
अपनी मानवीय गरिमा के लिए,
एक गरिमापूर्ण जीवन के लिए…!
जो ‘विधान’ मैंने दिए, ‘संविधान’ के रूप में
उसे अपना हथियार बनाना था अपने संघर्ष में !
लेकिन तुमने तो अपने हाथों में थामीं—
नंगी तलवारें, चाकू, लाठियाँ, भाले और बरछे…
जिनका मैंने निषेध किया था— ख़ूब सोच-समझकर
जो निश्चय ही दिए गए थे उन्हीं षड्यंत्रकारियों के द्वारा,
जिनसे तुम्हें सदैव सचेत रहना और बचना था…!
मैंने कब कहा था—
कि अपने ही लोगों के विरुद्ध संगठित होओ
और क़त्ल करो देश का ‘राष्ट्र’ के नाम पर…?
मैंने कब आदेश दिया ‘धर्म’ के पालन का कर्तव्य के विरुद्ध जाकर…?
मैंने कब चाहा कि संघर्ष के नाम पर नरसंहार करो समाज का…?
मैंने कब कहा था कि ‘धर्म’ और ‘राष्ट्र’ की रक्षा में
अपने प्राण दो या दूसरों के प्राण लो…?
लेकिन तुमने वही किया, जिससे बचने की ज़रूरत थी
तुम उन्हीं के अधीन हुए, जिनसे स्वतन्त्र होना था तुमको…!
…..!?!?
लेकिन अब एक बार फिर से जागो, मेरे आत्मीय प्रियजनो…!
और उठो अपने समाज, देश और मानवता के लिए |
परन्तु इस बार फँसना मत उनके चंगुल में
‘राष्ट्र’, ‘धर्म’, ‘संस्कृति’, ‘परंपरा’ या किसी भी चीज के नाम पर…!
तुम्हें शिक्षित होना है पुनः
ताकि तुम संगठित हो सको सही अर्थों में उन षड्यंत्रकारियों के विरुद्ध !
और संघर्ष अभी शेष है उनके षड्यंत्रों के ख़िलाफ़ |
…लेकिन…!!! …लेकिन…
उससे पहले तुम्हें लड़ना होगा अपनी ही अज्ञानता और पराधीन मनोवृत्तियों से !
अपनी कूपमंडूकता के अंधकार से !
धर्मान्धता की अफ़ीम से !
‘राष्ट्रप्रेम’ के नशे से !
उठो मेरे स्वजनो, और संघर्ष करो अपनी दुर्निवार अज्ञानता और नादानी से
और समझो उस मकड़जाल को जिसमें तुम उलझा दिए गए हो…!
जाओ और खोलो, अपने बच्चों के लिए विद्यालयों के बंद कपाट को !
थमाओ उनके नन्हें हाथों में तलवारों और चाकुओं की जगह क़िताबें !
जब वे धार्मिक-प्रवचनों में अपने पूर्वजों की ‘महान कर्तव्य-पालन’ की कथाएँ सुन रहे हों
तो तुम उन्हें उन कथाओं का वास्तविक सत्य दिखाओ,
जो नहीं बताया जाता किसी भी पुरोहित द्वारा ‘कथावाचन’ के दौरान…!
उन्हें संगठित होने दो वास्तविक अर्थों में
ताकि वे संघर्ष कर सकें अपने और अपनी भावी पीढ़ियों के लिए !
जो तुम नहीं कर पाए, वह उनको करने की राह दिखाओ…!
उनके हाथों में पुस्तकें थमाओ —
इतिहास की, अतीत और वर्तमान की,
राजनीति और कूटनीति की,
समाज और संस्कृति की भी…!
नए सिरे से ‘शिक्षित बनो’,
फ़िर से ‘संगठित होओ’ और
एक बार पुनः ‘संघर्ष आरंभ करो’…
इस बार जीतने के लिए, न कि विजित होने के लिए…!
…मैं तुम सबका आह्वान करता हूँ…!
…एक बार फ़िर से…!!
डॉ. कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
भारत देश समाज को अधिक आधुनिक सभ्य और मानवीय बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण रचना?
बहुत ही उम्दा कविता लिखी है, आपने समाज को सत्य का आईना दिखाते हुए…. ये परम और सर्व-विदित सत्य है कि हम बाबा साहब के विचारों को पढ़ते तो हैं लेकिन लेकिन केवल पढ़ने के उद्देश्य से, न कि उसे अपनाने और अपने जीवन में उतारने के लिए. अगर हमें वास्तव में जीवित इंसान बनना है तो हमें बाबा साहब के विचारों को अपने जीवन में वास्तविक रूप में अपनाना होगा वरना जीवित तो संसार में जानवर भी हैं…
बाबा साहब की जयंती की हार्दिक शुभकामनाएँ!
शानदार कविता …..मानवता सबसे ऊपर है। मानवता को समझने के लिए शिक्षित होना जरूरी है और जरूरी है मानवता के खिलाफ चल रहे षड्यंत्रों के विरुद्ध संघटित होना। स्वस्थ समाज को जिंदा रखना उस के लिये कार्य करना चाहे वो किसी भी रूप में हो वो किसी संजीवनी से कम नहीं और आप वो काम कर रही हैं। आपको हार्दिक नमन एवं सलाम