बतकही

बातें कही-अनकही…

कैंडल मार्च प्रतिबंधित है
बिखरी हैं उनकी लाशें,
जैसे सड़क पर बिखरा कूड़ा
… क्षत-विक्षत हैं उनके खुले जिस्म,
जैसे फाड़े गए हों पुराने कपड़े …
लेकिन खुली हैं उनकी मृत आँखें,
जैसे अभी कोई उम्मीद हो बाक़ी उनमें …|

कोई पूछता है,
धीरे से फुसफुसाकर,
भीड़ के बीच में से…
कौन हैं ये बदनसीब लड़कियाँ…?

मत पूछो साहब
कि कौन हैं ये अभागिनें…?
दरअसल इनका कोई परिचय नहीं है,
अनाम हैं ये लड़कियाँ,
समाज का कूड़ा हैं,
अपने परिवार की तरह…!
दरअसल वे कूड़े के बीच ही पैदा होते हैं
और पूरा जीवन कूड़े की तरह बिताते हुए
गंध से बजबजाते, बदबू देते हुए
एक दिन मर जाते हैं,
उसी कूड़े के बीच…!
डंप किए गए हैं समाज द्वारा,
कूड़े की ही तरह,
समाज के हाशिये पर वे …|
समाज का ‘कूड़ा’ ही तो हैं ये …!
मृत और बिखरी पड़ी क्षत-विक्षत बेटियाँ उन्हीं की हैं …|

जब-जब ऐसे वाकए सुसभ्य सुकन्याओं के साथ होते हैं
यदि अपराधी वह हुआ,
जिसे कोई अधिकार नहीं है
किसी भी सभ्य वर्ण या वर्ग के लोगों को कहीं भी, कभी भी, कोई भी हानि पहुँचाने का
तब …
निकलता है जुलुस
हाथों में न्याय की माँग की तख्तियाँ लिए हुए,
नारे लगाकर न्याय की मांग करते हुए;
निकलते हैं कैंडल मार्च
हज़ारों-लाखों लोगों की भीड़ के साथ,
अपराधी को निश्चित फाँसी की माँग करते हुए;
होते हैं धरना-प्रदर्शन
इण्डिया गेट पर,
जिसमें शामिल होते हैं सभी…
सवर्ण–अवर्ण,
स्त्री–पुरुष,
माताएँ-बहनें,
हिन्दू-मुसलमान,
अमीर–ग़रीब,
जनता–नेता,
विधायक—मंत्री,
धार्मिक संस्थाएं—सामाजिक संगठन
विश्वविद्यालयों के अध्यापक और छात्र…!

लेकिन यदि ‘जवान होते’ या ‘जवान हो चुके’ किसी ‘सभ्य पुत्र’ द्वारा
यही ‘जवानी की भूल’ हो जाती है,
और सबको खबर हो जाती है
‘सभ्य समाज’ के ‘सुसंस्कृत पुरुष’ की
इस ‘भूल’ की,
लाख छिपाने की कोशिशों के बावजूद…|

तब नहीं निकालता कोई कैंडल मार्च,
नहीं निकलते जुलुस,
नहीं होता कहीं भी कोई धरना-प्रदर्शन,
नहीं उठती संसद में कोई मांग,
अपराधी की निश्चित फाँसी की…!

सब चुप…
समाज चुप…
सवर्ण-अवर्ण चुप…
हिन्दू-मुसलमान चुप…
माताएँ-बहनें चुप…
अध्यापक और छात्र चुप…
अमीर-ग़रीब चुप…
जनता और नेता चुप…
विधायक-मंत्री चुप…

क्योंकि तब यही पता चलता है…
लड़की ‘मनचली’ थी,
‘आवारा’ थी,
‘बदचलन’ थी,
‘सुसंस्कृत-सभ्य समाज’ के ‘बेचारे पुरुष’ की भावना को भड़काया था उसने
जानबूझकर..
. साजिशन……!!!

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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8 thoughts on “कैंडल मार्च – 3

  1. बहुत सही…….. हाथरस की घटना में यहीं चल रहा है

    1. धन्यवाद हेमाकांत जी,
      वस्तुतः सदियों से यही चल रहा है….जब निर्भया-कांड के दौरान सवर्ण समाज का रवैया देखा और उसी समय कई दलित महिलाओं के साथ उतनी ही जघन्यता ने इस अपराध को बार-बार होने पर भी उन दलित परिवारों के प्रति समाज का कुछ दूसरा ही व्यवहार और रुख देखा तो बात ठीक से समझ में आई …उसी समझ का प्रतिबिम्ब है ‘कैंडल मार्च’ श्रृंखला की सारी कविताएँ…ये कविता भी मैंने लगभग तीन महीने पहले लिखी थी …
      सादर
      कनक लता

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