बतकही

बातें कही-अनकही…

जब 1848 ई. में फुले-दंपत्ति (ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले) ने लड़कियों (3 जनवरी 1848, भिंडेवाड़ा) और दलितों (15 मई 1848, महारवाड़ा) के लिए पहले आधुनिक-विद्यालय की शुरुआत करते हुए महिला-आन्दोलन और दलित-आन्दोलन की नींव डाली और उनके केवल कुछ ही दशक बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इन आंदोलनों को नई धार देकर बहुमुखी और बहुस्तरीय बना दिया; तो उसके बाद समाज में एक ऐसी आँधी चलनी शुरू हो गई, जिसमें सारा ब्राह्मणवाद, पुरुषवाद, पितृसत्ता आदि सूखे पत्ते की तरह उड़ने लगे | इस आँधी से ब्राह्मण-वर्ग इतना भयभीत हुआ, कि ‘स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा देनेवाले तथाकथित ‘लोकमान्य’ बालगंगाधर तिलक जैसे बड़े समाजसेवी-नेता को घोषणा (1918 ई. में महाराष्ट्र में अथनी नामक स्थान में ब्राह्मणों की सभा में) करनी पड़ी—

“मेरी समझ में नहीं आता है कि ये तेली, तम्बोली और खाती कुनभट संसद में क्यों जाना चाहते हैं? तेली क्या संसद में जाकर तेल बेचेगा? तम्बोली क्या संसद में जाकर कपड़ा सिलेगा? या खाती कुनभट (कुर्मी या पाटीदार) क्या संसद में जाकर हल चलाएगा? इसलिए कहो, स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उनका नहीं |”

यही हाल अन्य ब्राह्मण-वर्गीय नेताओं, पुरोहितों, अधिकारियों, नागरिकों का भी था; और उनके पीछे-पीछे चलनेवाले अन्य सवर्णों का भी | इसके बाद ब्राह्मणों ने इस आँधी को रोकने के लिए इतनी तरह की षड्यंत्रपूर्ण चालें चलीं, जिनकी कोई गिनती नहीं | उनके षड्यंत्रों के कारण वंचित-समाज, उनमें भी सर्वाधिक दलित-समाज, अनेक उतार-चढ़ाव देखता-झेलता हुआ 21वीं सदी के तीसरे दशक में आ पहुँचा है | इस समय यह वर्ग लगभग पूरी तरह से नेतृत्व-विहीन होकर इधर-उधर भटकता हुआ अपने लिए नए मार्गदर्शक और नए नेताओं की तलाश कर रहा है | आंबेडकर से प्रभावित आन्दोलनरत-वंचितों, खासकर दलितों, को इसी हालत में ले आने के लिए ब्राह्मणों ने पिछले 80-90 सालों तक बड़ी मेहनत की है | 2014 से तो आरएसएस-भाजपा के सत्ता पर पूर्ण कब्जे के बाद यह कोशिश असाधारण रूप से बिजली की गति से हुई है | और आख़िरकार उनकी कोशिशों से उनकी इच्छानुसार दलित-समाज बेहद दयनीय हालत में पहुँच ही गया— नेतृत्व-विहीन, किंकर्तव्यविमूढ़, दिग्भ्रमित, नेतृत्व के लिए इधर-उधर भटकता हुआ…

लेकिन अभी रुकिए…!

पिक्चर अभी बाकी है, मेरे दोस्त…!

अभी पर्दा गिरा नहीं है…!

जरा ध्यान से देखिए…!

कुछ दिखा…? कोई हलचल…; कोई आवाज, धीमी-धीमी-सी…; कोई कहा-अनकहा शोर…?! जो अनेक स्थानों से रह-रहकर आ रहे हैं !

तो चलिए, उनमें से एक आवाज़ की डोर को पकड़कर उसके स्रोत तक पहुँचकर देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है…

नए हालातों में नए तेवर के साथ वंचित-समाज

पिछली 30 जुलाई 2023 को दिल्ली में वंचित-समाजों के लिए काम करनेवाली उनकी ही एक जानी-मानी संस्था ‘भारतीय समाज निर्माण संघ (BSNS)’ द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में शामिल होने का अवसर मिला; बतौर मुख्य वक्ता |इस संस्था के प्रमुख उद्देश्यों में से प्रमुखतम उद्देश्य है, जैसाकि इनके घोषणापत्र में दर्ज है— ‘भारत को एक आदर्श राष्ट्र बनाना’; अर्थात् “भारतीय संविधान व लोकतन्त्र के अनुरूप, देश में एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना” | और इनका आदर्श वाक्य है—“एक आदर्श राष्ट्र—एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था पर आधारित होता है |” और इनका यह मानना है कि “समाज निर्माण ही राष्ट्र निर्माण है” | जिसके लिए ये संस्था हिन्दुत्ववादी विचारधाराओं, जो कि प्रायः देशप्रेम की बात करते हैं, के पैरोकारों से सवाल करती है कि “देशप्रेम की बात करनेवाले समाज प्रेम की बात क्यों नहीं करते |” उक्त संस्था का यह कार्यक्रम दो बहुत ही ख़ास उद्देश्यों से आयोजित हुआ था | एक तो यह, कि इस संस्था के सदस्यों द्वारा मुख्य रूप से ‘वाल्मीकि’ कहे जाने वाले समाज की बस्तियों में (अन्य वंचित-वर्गों के भी) इस साल की शुरुआत से लेकर जून तक की अवधि में 100 से अधिक छोटे-बड़े कार्यक्रम आयोजित किए गए | इन कार्यक्रमों का एक निश्चित उद्देश्य था, वंचित-जनता को उनके दो सबसे बड़े महानायकों —ज्योतिबाराव फुले और डॉ. भीमराव आंबेडकर— के विचारों, वंचित-समाज के लिए किए गए उनके कार्यों और उन कार्यों के परिणामों से अवगत कराना; ताकि वंचित-समाज अपने असली नेताओं और नायकों की पहचान करना सीख सके और इन दो महानायकों (ज्योतिबा फुले और डॉ.आंबेडकर) के विचारों और प्रयासों की छत्रछाया में अपने भविष्य की रूपरेखा और दिशा-दशा तय कर सके | इस कार्यक्रम का दूसरा उद्देश्य था, कोल्हापुर रियासत के शासक साहूजी/शाहूजी महाराज द्वारा अपनी रियासत की नौकरियों में गैर-ब्राह्मणों के लिए लागू किए गए 50% आरक्षण (26 जुलाई 1902 ई. को लागू) की 101 वीं वर्षगाँठ मनाना और इसके जरिए वंचित-समाज को यह बताना-समझाना कि किस तरह केवल तनिक-से ‘आरक्षण’ की सुविधा-भर मिल जाने से अनेक वंचित-व्यक्तियों ने इतिहास में सदियों से निर्मित किए गए इस मिथक को तोड़ दिया कि ‘वंचितों में कोई योग्यता और क्षमता नहीं होती’; जरूरत है तो केवल उनको सवर्णों के ही बराबर अवसर और सुविधा दिए जाने की | शाहूजी महाराज द्वारा दिए गए इसी ‘आरक्षण’ की मदद से दलित-महानायक डॉ आंबेडकर ने ऐसी शिक्षा हासिल की, कि आज तक उनकी योग्यताओं और क्षमताओं की बराबरी करना तो दूर, उनके आसपास भी एक भी ब्राह्मण नहीं पहुँच सका है, जो सदियों से यह दावा करता आया है कि सारी योग्यता बस उसी को ही तो मिली है |

‘आरक्षण को रोज-रोज गालियाँ देनवाले सवर्ण यह तो देखते हैं कि वंचितों को आरक्षण दिया जा रहा है, लेकिन वे कभी भी उनके उन हालातों को नहीं देखते, जिसमें वे जीते हैं; वे अपने समाज की उन मानसिकताओं को भी नहीं देखते कि किस तरह ‘मेरिट’ के नाम पर सवर्ण-समाज नौकरियों, शैक्षणिक-संस्थाओं आदि में केवल सवर्णों को भरता रहा है और वंचित-समाज को जानबूझकर ‘अयोग्य’ कहकर दरकिनार कर देता है |

अब सवर्ण-समाज का बहुलांश तो यह बात समझने से रहा, लेकिन वंचित-समाज को तो अब यह ठीक से समझना ही होगा कि आरक्षण न तो कोई भीख है, न अधिकार; बल्कि यह सवर्ण-समाज की उस कुटिल, दुष्ट, लालची, नीच मनोवृत्ति का परिणाम है, जिस मनोवृत्ति के कारण वह ‘सबकुछ’ केवल-और-केवल अपने समाज के लिए ही रिजर्व रखना चाहता है; सभी अधिकार, सभी सुविधाएँ, सारा धन, सभी महत्वपूर्ण पद, समस्त शिक्षा, सारे संसाधन… अर्थात् सबकुछ | वह उसका ‘सुई की नोक के बराबर’ भी शूद्रों-दलितों-आदिवासियों को नहीं देना चाहता; एकदम दुर्योधन की तरह | इसीलिए ‘आरक्षण’ के जरिए कुछ पदों और स्थानों को ब्राह्मणों की इन कुटिलताओं से बचाकर वंचित-समाजों के लिए सुरक्षित करने की कोशिश की गई | इसीलिए शाहूजी महाराज ने भी अपनी रियासत में ‘आरक्षण’ की व्यवस्था की; क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि ब्राह्मण एक वंचित-वर्गीय शासक की रियासत की वंचित-वर्गीय प्रजा को पूरी तरह से परे धकेलकर रियासत के सभी महत्वपूर्ण पदों पर स्वयं कुंडली मारे बैठा था |

उस कार्यक्रम के दौरान यह बात भी उभरकर सामने आ रही थी कि वंचित-समाज का अब अपने वर्त्तमान नेताओं पर उतना भी भरोसा नहीं बचा, जो बस एक दशक पहले तक कुछ अंशों में बचा हुआ था |

‘अप्प दीपो भव’ : वंचितों का अपना नायक स्वयं बनना

डॉ. आंबेडकर ने वंचित-समाज के लिए जो मुक्ति-आन्दोलन शुरू किए, उस आन्दोलन ने उनकी मृत्यु के बाद अनेक रुख अख्तियार किए और दलित-समाज को उन रुखों के कारण अनेक उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ा | उनके जीवित रहते ही सवर्णों द्वारा दलितों में फूट डालने की शुरुआत हो चुकी थी और दलितों को उनके आन्दोलन से भटकाने और उनको बाँटकर कमजोर करने के लिए उनके ही बीच से उनके अनेक नकली नेता खड़े किए जा रहे थे, जो वास्तव में सवर्णों के चमचे थे; जैसे कांग्रेसी-ब्राह्मणों द्वारा आंबेडकर के खिलाफ दलित-नेता के रूप में जगजीवन राम को खड़ा किया जाना | ऐसे ही ‘चमचा दलित-नेताओं’ की प्रवृत्तियों को देखकर कांशीराम ने आंबेडकर के बाद के कालखंड को ‘चमचा युग’ कहा था | आरएसएस-भाजपा के नेतृत्व में ब्राह्मणों के कुटिल-षड्यंत्रों के कारण दलित-शूद्र नेताओं की ‘सवर्णों का चरणदास’ बनकर उनकी ही चमचागिरी करने की यह प्रवृत्ति 2014 के बाद से अपने चरम पर पहुँच गई | इसलिए हम इस समय बहुत ही साफ-साफ वंचित-जनता को नेतृत्व-विहीन होकर भटकते देख सकते हैं |

दलित-समाज का इस तरह नेतृत्व-विहीन हो जाने की शुरुआत हालाँकि कांशीराम की मृत्यु के साथ ही हो गई थी, लेकिन फिर भी मायावती आदि कुछेक नेताओं के पीछे-पीछे कुछ समय तक वंचित-समाज चलता रहा | यही हाल धीरे-धीरे अन्य वंचित-समाजों का भी हुआ | लेकिन 2014 के बाद से बीजेपी-आरएसएस ने सत्ता पर काबिज होते ही बहुत ही सुनियोजित ढंग से और बहुत ही तेजी से शूद्र और दलित नेताओं को उनके समाज से पूरी तरह काटकर उनको ठिकाने लगा दिया | नतीजतन इस समय सारी वंचित-जनता बहुत ही किंकर्तव्यविमूढ़ की-सी स्थिति में आ गई है; चाहे शूद्र-समाज हो, या दलित-समाज |

लेकिन पिछले कुछ सालों के भटकाव के बाद इस मामले में अब वंचित-समाजों में एक नई और अद्भुत प्रवृत्ति उभरती हुई दिखाई दे रही है और नतीजतन उनके भीतर से एक अलग तरह की ध्वनि भी आ रही है | वंचित-जनता का एक अच्छा-खासा हिस्सा धीरे-धीरे अपने नेताओं से दूर छिटककर अपना रास्ता स्वयं बनाने की ओर मुड़ता हुआ साफ-साफ दिखाई दे रहा है, जिसकी ठीक-ठाक झलक उपरोक्त कार्यक्रम में नज़र आई | इस लिहाज से उस कार्यक्रम में श्रोताओं में जितनी संख्या पुरुषों की थी, उतनी ही संख्या महिलाओं की भी थी; और इतनी ही महत्वपूर्ण बात यह कि बहुत ही ठीक-ठाक संख्या में किशोर-किशोरियाँ और नवयुवा लड़के-लड़कियाँ भी इसमें शामिल हुए थे | ये ही किशोर-किशोरियाँ और नवयुवा वंचित-समाजों की असली धरोहर, उमीद की किरण और समाज के भविष्य-निर्माता हैं |

‘वंचित-शिक्षितों’ का अपनी खोल से बाहर आना

वंचित-समाजों में एक और बेहद महत्वपूर्ण और बहुत ही ख़ास प्रवृत्ति अब धीरे-धीरे अधिक स्पष्ट होकर उभरनी शुरू हो गई है | वह है, उनके पढ़े-लिखे व्यक्तियों का धीरे-धीरे अपने सुरक्षित कछुए की खोल से बाहर निकालकर अपने समाज में सक्रिय भूमिकाओं की ओर बढ़ना | इन समाजों के शिक्षित-व्यक्ति (युवा, प्रौढ़, बुजुर्ग; अर्थात् सभी आयु-वर्ग के स्त्री-पुरुष) धीरे-धीरे महत्वपूर्ण भूमिकाओं में आते हुए और अपने समाज में अपना विश्वसनीयता बनाते हुए दिखाई दे रहे हैं; ताकि वे अपने किंकर्तव्यविमूढ़ भटकते हुए समाज को दिशा दे सकें | याद रहे, वंचितों का यह वही ‘शिक्षित-वंचित-वर्ग’ है, जिसकी स्वार्थपूर्ण मनोवृत्तियों के कारण उनके (शिक्षित-दलित) बारे में कभी डॉ.आंबेडकर ने बड़े ही दुखी मन से यह कहा था कि ‘मेरे पढ़े-लिखे समाज ने ही मुझे धोखा दिया’ |

सच है, जिन दलितों को कभी भरपेट भोजन नसीब नहीं होता था, जिनसे सवर्ण हमेशा लात-जूतों से ही बातें किया करते थे, उन्हीं दलितों ने डॉ.आंबेडकर के अनंत त्याग और बलिदान तथा उनके नेतृत्व में अनपढ़-दलित-जनता के अथक-संघर्षों के फल के रूप में सैकड़ों अधिकारों और सुविधाओं के बल पर शिक्षा, नौकरी, संसाधन, सुविधाएँ आदि हासिल तो की; लेकिन उसके बाद वे अपने व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ण-जीवन तक ही सिमटकर रह गए और अपने-आप को अपने दुखी-पीड़ित-समाज से लगभग पूरी तरह काट लिया | न केवल वे अपने पूर्वजों के अपमानजनक-दुखद अतीत को भूल गए, बल्कि उन्होंने यह भी मान लिया कि सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक हालातों के मामले में अब जो जैसा है वैसा ही रहेगा और हालात कभी भी उनके विपरीत नहीं होंगे और उनकी पीढ़ियाँ इसी तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित रहते हुए संविधान द्वारा दी गई सुविधाओं का भोग करती सुखी-संपन्न बनी रहेंगी | वे उस अतीत को भूल गए, जिसमें ब्राह्मणों ने कभी भी किसी को भी अपने बराबर खड़ा नहीं रहने दिया; अपने सजातीय-क्षत्रियों को भी नहीं | वे भूल गए कि ब्राह्मण एक क्षण के लिए भी दलितों-शूद्रों को नींद में भी अपने बराबर सहन नहीं करनेवाला है और वह लगातार अपनी पूर्वस्थिति हासिल करने की कोशिश में लगा हुआ है |

लेकिन 2014 के बाद से बिजली की गति से लगातार बदलते जा रहे हालातों में अब उस शिक्षित-वंचित हिस्से को आनेवाले संकट की आहट साफ-साफ सुनाई देने लगी है | वह अब धीरे-धीरे समझने लगा है कि ब्राह्मण अपने दुश्मनों को सबसे पहले अलग-अलग करके उनको अकेला बनाता है और फिर बड़ी आसानी से मजे ले-लेकर उनका एक-एक करके शिकार करता है और अंत में उनको खा-पचा जाता है | अच्छा है, कम-से-कम शिक्षित-सुशिक्षित वंचित-समाज सबकुछ नष्ट हो जाने से पहले ही सचेत हुआ ! शायद उनमें से कुछ बचाया जा सके, जो उनके महानायकों ने अपना और अपने परिवार का बलिदान देकर उनके लिए हासिल किया था !?

यह पहले से तनिक अधिक सचेत शिक्षित-वंचित-हिस्सा अब अपने समाज को नए तरीके से संगठित करने की कोशिश करते हुए उनको राजनीतिक-सामाजिक-धार्मिक रूप से सचेत करने की कोशिश करता भी दिख रहा है; जिसकी झलक बहुत स्पष्ट रूप से उक्त कार्यक्रम में दिखी | हालाँकि यह भागीदारी अभी भी इतनी कम है कि वह आक्रामक ढंग से नहीं उभर पा रही है; शिक्षितों की संख्या के रूप में भी और उनके द्वारा अपने समाज में शिरकत करने की मात्रा के रूप में भी | जबकि इन दोनों मामलों में इसे कई गुना बढ़ाने की बहुत अधिक जरूरत है |

‘धर्म की अफ़ीम’ से सचेत होने की शुरुआत

एक और स्पष्ट प्रवृत्ति इस कार्यक्रम के जरिए वंचित-समाजों में उभरती नज़र आई; वह प्रवृत्ति है, धार्मिक रूप से सचेत होने की | वंचित-समाज का थोड़ा-सा शिक्षित-अशिक्षित हिस्सा धीरे-धीरे ब्राह्मणों की उन चालाकियों को भी समझने की कोशिश करने लगा है कि ब्राह्मण जिन अनेक तरीकों से उसको भरमाता है, उनमें धर्म सबसे अधिक महत्वपूर्ण है | उदाहरण के लिए, वंचित-समाज इस तरह के प्रश्नों पर भी गौर करने लगा है कि ‘वाल्मीकि-समाज’ के कहे जाने वाले महर्षि वाल्मीकि यदि उस वंचित-समाज के व्यक्ति होते, तो जो विशिष्ट-धनुर्विद्या उन्होंने राम के पुत्रों लव-कुश को सिखाई, जिसके बल पर उन दो राजकुमारों ने अपने लड़कपन (बाल्यावस्था) में ही अयोध्या के बड़े-बड़े वीरों-महावीरों को पराजित करके बाँध दिया था, तो वही धनुर्विद्या उन्होंने अपने वंचित-समाज के बच्चों को भी क्यों नहीं सिखाई | वे क्यों एक ही आश्रम में रहते हुए वंचित-बच्चों की आँखों के सामने उनकी उपेक्षा करते हुए रोज राजकुमारों लव-कुश को तरह-तरह की धनुर्विद्या और अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाते रहे और उसने ‘अपने’ समाज (वंचित-समाज) के बच्चे रोज टुकुर-टुकुर उनका मुँह देखते रह गए? क्या उन वंचित-बच्चों का काम केवल गुरु महाराज और उनके परिवार सहित अन्य सवर्ण-वनवासियों की सेवा करना भर रह गया था?

इतना ही नहीं, इस कार्यक्रम में बहुत ही कम उम्र की लड़कियों और महिलाओं ने हिन्दू-धर्म, उनके देवी-देवताओं और त्योहारों से संबंधित अपने धार्मिक-मोहभंग का अच्छा-खासा परिचय दिया और ऐसी-ऐसी बातें कही, कि यदि ब्राह्मणों के कानों तक पहुँच जाएँ, तो उनके कान यह सोचकर खड़े हो जाएँ, कि क्या वंचित-समाज ब्राह्मणीय-षड्यंत्रों को इतनी गहराई से समझने लगा है कि उसके बच्चे (सद्यःयुवा) भी उनके सच को देख पा रहे हैं? क्या अब फिर से एक नए जबर्दस्त पैंतरे की ज़रूरत आन पड़ी है; जैसे पिछली सदी के अंतिम दशक में ‘गणेश के दूध पीने वाला’ पैंतरा चला गया था? ब्राह्मणों ने एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर ‘करवाचौथ’, ‘दीवाली’, ‘गणेशोत्सव’, ‘दशहरा’, ‘रामनवमी’, ‘काँवड़-यात्रा’ जैसे सैकड़ों स्थानीय-त्योहारों को ग्लैमराइज़ करके उनके जालों-जंजालों में वंचित-समाजों के अधिकांश हिस्से को बड़ी मुश्किल से फँसाया था | तो क्या ब्राह्मणों की इतनी मेहनत पर पानी फिरने वाला है? यह तो भविष्य बताएगा; लेकिन इस समय तो कई वंचित-युवा उस सत्य को स्वयं समझने और अपने समाज को समझाने लगे हैं, कि किस तरह हिन्दुओं के सभी देवी-देवताओं और ऋषि-मुनियों ने केवल ब्राह्मणों का हित किया | शिक्षा हासिल करनेवाले किशोर-किशोरियाँ अब देवी-देवताओं के कार्यों और वंचित-समाजों के जीवन में उनकी भूमिकाओं पर सवाल उठाने लगे हैं |

भविष्य में उम्मीद की नई किरण : वंचित-युवावर्ग

सवाल खड़े करनेवाले ये ही बच्चे वास्तव में वंचित-समाजों की उम्मीद की किरण है, जिनको यदि इसी समय रहते ठीक से साध लिया गया, अर्थात् उनको ठीक प्रकार से मार्गदर्शन और शैक्षणिक, बौद्धिक-वैचारिक एवं आर्थिक सहायता मिल गई, तो ये ही बच्चे भविष्य में वह-वह गुल खिलाएँगे कि ब्राह्मण-वर्ग आँखें मलते हुए देखता रह जाएगा | वंचित-समाज को इस समय सबसे अधिक आवश्यकता है अपनी उम्मीद की इन किरणों को दमन की आँधी, धार्मिक-भटकाव, सवर्णी-राजनीतिक-षड्यंत्रों, चमचागिरी करनेवाले वंचित-नेताओं और छद्म-जननायकों के पीछे जाने से बचाना और ठीक से सहेजकर इनको भविष्य के संघर्ष के लिए तैयार करना |

लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि इनको मखमल में रखकर पाला जाए, सुकोमल बिस्तरों में आराम फरमाने दिया जाए, एयर कंडिशनर कमरों से बाहर न निकलने दिया जाए, कठोर-तपती जमीन पर पैर न रखने दिया…| बल्कि इसके विपरीत बहुत अधिक जरूरत इस बात की है कि इस पीढ़ी को दुःख और तकलीफ, परेशानी और संघर्ष की हर एक स्थिति से गुजरने दिया जाए, वर्त्तमान शिक्षित-सुशिक्षित-वंचित-हिस्सा केवल उनके अभिभावक और मार्गदर्शक की भूमिका में हमेशा उनके साथ खड़ा रहे; उनकी हर गतिविधि, उनके दिलो-दिमाग में निर्मित हो रही हर विचारधारा पर पैनी नज़र रखते हुए | ताकि ये नवयुवा यह जान और समझ सकें कि जो अधिकार, सुविधाएँ आदि उन्हें मिल रही हैं, वे सवर्णों ने थाली में परोसकर उनको नहीं दी हैं, बल्कि फुले-दंपत्ति, आंबेडकर-दंपत्ति जैसे उनके पूर्वज-नेताओं ने अपना जीवन और अपना परिवार तबाह करके और उनके लिए क्रूर-ब्राह्मणों से लड़कर और छीनकर, उनके षड्यंत्रों से बचाने के लिए अपना जीवन दाँव पर लगाकर यह सब उनके लिए हासिल किया था |

‘तू डाल-डाल मैं पात-पात’ : वंचितों के विविध ‘सैनिक दल’

उस कार्यक्रम के ख़त्म होने के बाद वहाँ से बाहर आने पर एक और बहुत ही ख़ास चीज मैंने नोटिस की; आरएसएस की तर्ज पर बने वंचितों के एक और नए संगठन ‘स्वयं सैनिक दल’ की, जिसके कुछ सदस्य मुझसे मिले और अपने संगठन के कार्यों के बारे में बताया | शायद वंचित-समाज के ऐसे संगठन कुछ और भी हों | डॉ.आंबेडकर ने अपने समय में वंचित-समाज के लिए ऐसा पहला सैनिक-दल बनाया था— ‘समता सैनिक दल’ | जिस तरह आरएसएस अपने कार्यक्रम के जरिए सवर्ण-अवर्ण समाज के युवाओं को ‘सैनिक-रूप’ में तैयार कर रहा है, शायद भविष्य में किसी सशस्त्र-संघर्ष के लिए; ठीक उसी तर्ज पर वंचित-समाजों के कुछ युवा अपने-आप को ‘सैनिक-रूप’ में तैयार कर रहे हैं; उद्देश्य उनका भी वही है—भविष्य में संभावित किसी सशस्त्र-संघर्ष के लिए तैयार रहना | दोनों में अंतर यह है कि आरएसएस उस संभावित सशस्त्र-संघर्ष का प्रयोग ‘ब्राह्मण-वर्चस्व’ की पुनर्स्थापना के उद्देश्य से दलितों-पिछड़ों के संहार के लिए करेगा; जबकि वंचितों का सशस्त्र-संघर्ष अपने समाज की जीवन-रक्षा के लिए होगा |

लेकिन एक अंतर और भी है, बहुत ही ख़ास अंतर— आरएसएस के ‘सैनिकों’ और कर्ता-धर्ताओं में आपसी-फूट और मतभेद उजागर नहीं होते है, वे अपने लक्ष्य के प्रति बेहद समर्पित हैं, इसलिए ब्राह्मणों को आरएसएस के जैसा दूसरा सैनिक-दल बनाने की जरूरत नहीं पड़ी; लेकिन वंचितों के सैनिक-दलों (वंचितों के अन्य सामाजिक-संगठन और संस्थाएँ भी) में आपसी-फूट के इतने स्तर और इतने रूप हैं कि वे अपने निर्माण के कुछ ही समय बाद अपने होने का अर्थ खोने लगते हैं, जिसका सबसे ठोस प्रमाण है, ऐसे संगठनों के सदस्यों का आपसी फूट के मुद्दों को हल करके आगे बढ़ने की बजाय एक नया दल/संगठन बना लेना, जहाँ वे अपनी मर्जी से चल सकें, इसलिए वंचितों के अनेक सैनिक-दल और सैकड़ों सामाजिक-संगठन हैं, लेकिन उसी अनुपात में समाज में भूमिका नगण्य |

हालाँकि वंचित-समाज के लिए इस तरह के ‘सैनिक-दलों’ और सामाजिक-संगठनों की निश्चित रूप से बहुत आवश्यकता महसूस होती है, लेकिन इनकी सबसे बड़ी कमजोरियों में से बेहद उल्लेखनीय उपरोक्त कमजोरी आपसी-फूट उनकी सबसे बड़ी शत्रु है | जिस कारण जिन वंचितों को अपने शत्रुओं से एकजुट होकर लड़ना चाहिए था, वे आपस में ही लड़ते रहते हैं और अपनी क्षमताओं को नष्ट करते रहते हैं | ब्राह्मणों को भला और क्या चाहिए; क्योंकि उनका काम तो स्वयं वंचित-समाज ही कर रहे हैं…?! भला वंचितों में फूट डालने के लिए ब्राह्मणों को स्वयं मेहनत करने की क्या जरूरत है, जब वंचित स्वयं ही अनेक भागों में फूटे-बँटे हुए हैं? इसलिए वंचित-समाज उतने ही विश्वास और दृढ़-निश्चय से उनके साथ नहीं खड़ा हो पाता है, जितना सवर्णों का समाज आरएसएस-भाजपा के साथ खड़ा रहता है |

अब यह तो भविष्य बताएगा कि क्या वंचित-समाज ब्राह्मणों और उनके ब्राह्मणवाद से लड़ने तथा अपने समाज के अधिकारों और सम्मानपूर्ण अस्तित्व की रक्षा के लिए अपने आपसी मतभेदों और आपसी फूट से लड़कर अपने-आप को एकजुट कर सकेगा? क्या तिनके-तिनके बिखरे वंचितों को नेस्तोनाबूत करने को कृतसंकल्प एकजुट सवर्ण-समाज बहुत आसानी से उन्हें उखाड़ फेंकेगा? अथवा वंचित-समाज डॉ.आंबेडकर के नारे ‘संगठित रहो’ को भी अपने जीवन एवं व्यवहार में अपनाएँगे? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि वंचित-जनता ने जिस तरह आज अपने ‘चमचा-राजनेताओं’ से मुँह मोड़ना शुरू कर दिया है, उसी तरह एक दिन अपने सामाजिक-संगठनों से भी मुँह मोड़ लेगी?

देखते हैं कि भविष्य में क्या है…

–डॉ. कनक लता

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