बतकही

बातें कही-अनकही…

दुनिया के किसी भी हिस्से के पारंपरिक पितृसत्तात्मक समाज में हर माता-पिता की यह बड़ी गहरी लालसा होती है, ख़ासकर पिता की, कि उनका बेटा आज्ञाकारी और कमाऊ हो, जो श्रवणकुमार की तरह उनकी सेवा करे; और उनकी बेटी संस्कारशील, सुशील, मृदुभाषी, आज्ञाकारी, चरित्रवती हो, जो समाज एवं ख़ानदान में अपने अच्छे व्यवहारों, पवित्र चरित्र एवं सुशील आचरण से उनका सम्मान बढ़ाए | वे चाहते हैं कि उनकी बेटियाँ इतनी ‘संस्कारशील’ और ‘आज्ञाकारी’ हों कि उसे देखकर लोग कह उठें— ‘वाह ! देखो, वह फलाँ की बेटी है, कितनी गुणवती, कितनी आज्ञाकारी, कैसी संस्कारशील, सीता-सावित्री जैसी चरित्रवती…!’

समय के साथ विकास की प्रक्रिया में इन पारंपरिक समाजों के आधुनिक समाज में परिणत होने के बावजूद यह चाहत कम होती नहीं दिखती, केवल अपना रूप बदल लेती है |

मुझे याद है, एक बार मैं अपने माता-पिता से मिलने ट्रेन से दिल्ली से अपने शहर बोकारो (झारखण्ड में स्थित ‘इस्पात नगरी’ के नाम से मशहूर) जा रही थी; साथ में मेरे पिता के एक परिचित थे, जो हमारी ही कॉलोनी में रहते थे, जो अपनी बेटियों से मिलने दिल्ली आए थे और अब वापस लौट रहे थे | मुझे उन्हीं के साथ बोकारो जाना था | यह बात साल 2001 या 2002 की है | ट्रेन से दिल्ली से बोकारो पहुँचने में लगभग 22 घंटे का समय लगता है | इस दौरान मैंने ट्रेन में किसी से कोई बात नहीं की, जिसका कारण केवल इतना ही था कि ख़ासकर ट्रेन से यात्रा के दौरान मैं अनजान लोगों से बहुत कम बात करती हूँ |

लेकिन जब हम बोकारो पहुँच गए और दो-चार दिन बीत गए, तब मेरे कानों तक अनेक लोगों की प्रशंसात्मक बातें पहुँची; मेरे माता-पिता के माध्यम से भी, और जो लोग मिलने के लिए घर आते थे, उनकी बातों से भी— “आपकी बेटी तो बहुत सुशील और गुणी है, …फलाँ बता रहे थे कि ट्रेन में पूरे समय उसकी आवाज़ तक किसी ने नहीं सुनी ! वाह ! क्या संस्कार दिए हैं आप लोगों ने ! दिल्ली जाकर भी आपकी बेटी ने अपने संस्कार नहीं छोड़े ! वाकई आपलोग बहुत भाग्यशाली हैं…!”

जब तक मैं वहाँ रही, ऐसी ही ‘प्रशंसात्मक’ बातें सुनती रही और हैरान होती रही कि ‘ख़ामोश और अबोली बेटियाँ’ कैसे समाज की प्रशंसा की पात्र हो सकती हैं; और क्यों? और प्रत्येक माता-पिता के लिए वांछनीय भी…? क्यों माता-पिता चाहते हैं कि उनकी बेटियों की आवाज़ तक किसी को सुनाई न दे?

एक और घटना का ज़िक्र आवश्यक है | तब मैं स्कूल की विद्यार्थी थी | चूँकि तब तक मैं न तो दुनिया को किसी भी अंश में समझ पाई थी, न अपने समाज को, न संस्कृतियों के स्वरूप और व्यक्तित्व को, न इनके क़ायदे-कानूनों को | ये सभी बड़े-बड़े सवालों के रूप में मेरे सामने अक्सर आते और मुझे अचंभित करते हुए मेरे मस्तिष्क में अनेक उलझनें, हलचलें, कई अनसुलझे प्रश्न छोड़ जाते | और मैं उनके कारण सालों-साल तक संदेहों, शंकाओं-आशंकाओं, लगातार चलनेवाली उधेड़बुनों, उलझनों से घिरी ही रहती और उनके उत्तर ढूँढने की कोशिशें करती | उसी में शामिल था लड़कियों की हँसी का सवाल |

दरअसल मेरे अपने परिवार में उस तरीक़े से प्रतिबन्ध न होने के कारण किसी हँसनेवाली बात पर दिल खोलकर हँसती थी | और यह बात, समाज को तो छोड़िए, मेरे कई शिक्षकों को भी पसंद नहीं आती थी | उन्हीं में से एक शिखाधारी शिक्षक इस बात के लिए अक्सर मुझपर गुस्सा करते— “तुम्हें समझ में नहीं आता है कि लड़कियों को कैसे हँसना चाहिए? बेहद बदतमीज़ लड़की हो तुम ! फलाँ को देखो, कितनी संस्कारशील लड़की है; देखो कि कैसे वह अपने मुँह पर हाथ रखकर हँसती है; उसकी हँसी उसके आसपास के लोगों को भी सुनाई नहीं देती ! सीखो उससे कि लड़कियों को कैसे हँसना चाहिए…! लड़कियों को इस तरह मुँह फाड़कर नहीं हँसना चाहिए, जैसे तुम हँसती हो…!”  

तब तक दुनिया और अपने समाज एवं संस्कृति की वह समझ मेरे पास नहीं थी, कि क्यों समाज चाहता है कि बेटियों की आवाज़ तक किसी के कानों तक न पहुँचे, उनके बोलने और हँसने की ध्वनि भी किसी को सुनाई न दे? लेकिन मेरे शिक्षकों की उन डाँट-फटकारों, नाराज़गियों ने एवं मेरे पिता के परिचितों की उन ‘प्रशंसाओं’ ने कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ा और सवाल के रूप में तब तक मेरे साथ चलते रहे, जब तक मुझे उनके उत्तर नहीं मिल गए |

समय के साथ-साथ जैसे-जैसे मेरा अध्ययन (विविध समाजों, संस्कृतियों, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं, इतिहासों, पुस्तकों आदि अनेक चीजों का) बढ़ता गया, यह बात मेरी समझ में आती गई कि हर पुरुष-वर्चस्ववादी पितृसत्तात्मक समाज अपने बेटों को अलग रूप में बड़ा करता है और बेटियों को अलग रूप में | पितृसत्ता अपनी बेटियों, यानी स्त्रियों, को हर हाल में और हर रूप में पराधीन, पराश्रित, दयनीय, असहाय, अबोली ही बनाए रखना चाहती है, क्योंकि पितृसत्ता के सभी पाये (स्तम्भ) इसी पर टिके होते हैं |

इसलिए चाहे भारतीय संस्कृति हो या पश्चिमी संस्कृति, वस्तुतः प्रत्येक पितृसत्तात्मक समाज का वास्तविक चरित्र एक जैसा ही है— एक जैसे तौर-तरीक़े, एक जैसी ही विचारधाराएँ, एक जैसी ही कोशिशें; यानी प्रत्येक चीज | भारतीय सन्दर्भ में लड़कियों द्वारा फ़टी जींस पहनने की बात को भी हमें उसी के भीतर देखने और समझने की ज़रूरत है कि जिस ‘जींस’ को हमारे समाज का पुरुष तबका बिना किसी आपत्ति के पहनता है, उसे ही स्त्रियाँ क्यों नहीं पहन सकतीं | और तब यह बात समझी जा सकेगी कि माता-पिता को क्यों ऐतराज़ होता है बेटियों के जींस पहनने पर, जबकि बेटों के मामले में नहीं; वह भी आधुनिक युग में !

दरअसल जिस तरह का हमारा पितृसत्तात्मक समाज है, वहाँ परिवार के भीतर अपनी बेटी के जींस पहनने की बात को माँ अलग तरह से देखती-सोचती है, जबकि पिता अलग तरह से | और कमाल की बात तो यह है कि दोनों ही इसे अपनी सत्ता के ख़ारिज होने, अपने अस्तित्व के नकारे जाने के अर्थ में देखते-समझते हैं, क्योंकि पारंपरिक समाज यही चाहता है |

माँ के लिए बेटी की प्रत्येक गतिविधि या ‘हरकत’ उसके द्वारा दिए गए संस्कारों पर सवाल बन जाती है, जींस पहनने की बात भी | इसे समझना हो तो सबसे सटीक स्थान बेटियों की ससुराल है, जहाँ लड़कियों से कोई मामूली ग़लती होने पर भी कहा जाता है— “तुम्हारी माँ ने क्या तुम्हें कुछ भी नहीं सिखाया है?” इसीलिए बेटियों ने कैसे ‘संस्कार’ अर्जित किए हैं, यह सवाल बेटी से अधिक माँ के लिए होता है | इसलिए पारम्परिक समाज में जब कोई बेटी अपने उन ‘संस्कारों’ के लिए समाज के ‘बड़े-बुजुर्गों’ की टेढ़ी नज़र का शिकार बनती है, तो वहाँ दरअसल माँ कहीं अधिक निशाने पर होती है | प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समाज उस माँ से पूछता है कि ‘जो परंपरा से स्त्रियों को ‘अनुकरण’, ‘आज्ञापालन’, ‘परिवार के पुरुषों एवं समाज की इच्छानुसार चलने’ की नसीहतें दी गई हैं, उनकी ‘शिक्षा’ बेटी को देने, अर्थात् उनको अपनी बेटी को हस्तांतरित करने में वह क्यों असफ़ल रही है? इस रूप में तो वह ‘माँ’ एवं ‘स्त्री’ के रूप में ही पूर्णतः असफ़ल रही है |’

और परम्पराओं के बीच ही पली, जींस पहनने वाली बेटी की माँ की समस्या वस्तुतः यही है | दरअसल यह ‘असफ़लता’ प्रकारांतर से उस माँ के अस्तित्व की सार्थकता पर बहुत बड़े प्रश्नचिह्न के रूप में चस्पा कर दी जाती है |

जहाँ तक पिता की नाराज़गी के पीछे के तथ्यों का प्रश्न है, तो यह इतना भयानक है कि जब उसकी एक-एक परतें खुलती हैं, तो उसकी डरावनी सूरत बहुत ही वीभत्स रूप में प्रकट होती है, जिसपर विचार करना भी कम कष्टदायक नहीं |

जब कोई बेटी समाज की इच्छाओं एवं अनुमति के विरुद्ध जाकर जींस पहनती है, तो यह केवल इतना ही मामला नहीं होता है कि व्यापक समाज कुपित हो रहा है | दरअसल वह ‘कुपित समाज’ पिता की सत्ता पर सवाल खड़े करता है और वह उस पिता से पूछता और प्रकारांतर से आरोप लगाता है— “तुम्हारा नियंत्रण अपने परिवार पर क्यों नहीं है…?! तुम अपनी पत्नी और बेटियों पर काबू क्यों नहीं रख पाए…?! तुम्हारी पत्नी ने तुम्हारी बेटी को सही ‘संस्कार’ न देकर जींस पहनने की छूट देती हुई तुम्हारी सत्ता को चुनौती क्यों और कैसे दी है…?! तुम्हारी बेटी ने तुम्हारे, यानी पुरुष के, नियंत्रण, आदेश और मर्जी को धता बताते हुए कैसे जींस पहनी…?! अपने परिवार पर अब तुम्हारी सत्ता और वर्चस्व नहीं है, इसलिए तुम उचित मात्रा में ‘पुरुष’ यानी ‘मर्द’ नहीं रहे…! इसलिए अब तुम समाज में सम्मान और स्थान पाने के अधिकारी भी नहीं रहे…!”

और यही है पिता की समस्या ! एक ‘पुरुष’ के रूप में यह केवल उसकी असफ़लता-मात्र नहीं है, न केवल ‘पति’ और ‘पिता’ के रूप में उसकी नाकामी-मात्र; बल्कि यह प्रकारांतर से उसके ‘सम्पूर्ण अस्तित्व की सार्थकता’ पर भी टंकित बहुत बड़ा सवालिया निशान है |

दरअसल प्रत्येक पितृसत्तात्मक समाज चाहता है कि उसका हर पुरुष अपने परिवार को अपने ‘काबू’ में रखे, ख़ासकर पत्नी और बेटियों को; उन्हें ‘आज्ञाकारी’, ‘विनीत’, ‘अधीनस्थ’ ‘कमज़ोर’, ‘असहाय’, ‘अबला’ रूप में ही बनाकर रखे, उनको उनकी इस विशेष-स्थिति और हैसियत की याद दिलाता रहे | और जो पिता अनजाने में भी इसमें असफ़ल होता है, तो समाज उसे अपमानित एवं तिरस्कृत करते हुए अपनी इच्छानुसार चलने के लिए बाध्य करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता |

आए दिन अख़बारों में अपने ही माता-पिता द्वारा अपनी सगी बेटियों की हत्या, ‘ऑनर कीलिंग’, की ख़बरें क्या यही कहानी नहीं कहती हैं? एक बात और गौर करने की है, भारत के जिन इलाक़ों में पितृसत्ता जितनी अधिक मज़बूत है, वहाँ माता-पिता के द्वारा बेटियों की हत्याओं की घटनाएँ उतनी ही अधिक सुनाई देती हैं | और यह प्रवृत्ति भी स्वयं में बहुत कुछ कहती है | फ़िल्म ‘एनएच-10’ तो सबको याद ही होगी, ‘ऑनर कीलिंग’ पर भारत की विविध भाषाओँ में बनी ऐसी दर्ज़नों फ़िल्में मिल जाएँगी |

किन्तु केवल माता-पिता की ‘सामाजिक मज़बूरियाँ’ ही उनको अपनी ‘विद्रोही’ बेटियों की निर्मम हत्या के लिए बाध्य नहीं करती हैं, बल्कि अशिक्षा और अज्ञानता का भी इसमें कम हाथ नहीं है | इसके अलावा माता-पिता का अपनी संतानों का ‘भाग्य-विधाता’ बने रहने की चाहत भी उतनी ही ज़िम्मेदार है |

कमाल की बात तो यहाँ है कि ऐसी ‘चाहत’ रखने के लिए एक ‘पुरूष’ को परिवार के ‘मुखिया’ के रूप ‘तैयार’ करने एवं ‘स्त्री’ को अपने ‘अदृश्य-अस्तित्व’ के साथ जीने को तैयार करने की शुरुआत यदि परिवार में होती है, तो उसे विद्यालयों में शिक्षा के माध्यम से भी परिपक्व एवं ठोस रूप देभरपूर कोशिशें होती हैं, जहाँ विद्यालय और पाठ्यपुस्तकें बच्चों के मन- मस्तिष्क में औपचारिक, सायास एवं संज्ञानात्मक रूप से भरते हैं कि परिवार का मुखिया पिता होता है, माँ नहीं | इस रूप में पितृसत्ता के भीतर किसकी क्या स्थिति है, इसकी शिक्षा विद्यालयों में भी भरपूर दी जाती है |

बहुत वाहवाही बटोरनेवाली, और ‘पितृसत्ता’ की जबर्दस्त वक़ालत एवं स्थापना करनेवाली भी, फ़िल्म ‘बागबाँ’ तो याद ही होगी, जिसमें उसका ‘नायक’ अमिताभ बच्चन अपने पोतों-पोतियों से बताता है कि वह अपने परिवार का ‘हेड ऑफ़ द फैमिली’ है, अर्थात् ‘मुखिया’; और उसकी पत्नी परिवार रूपी पेड़ की जड़ें है, अर्थात् जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं, अपना कोई वजूद नहीं, लेकिन काम सबसे अधिक |

दरअसल पितृसत्तात्मक समाज एवं संस्कृतियों में ‘पुरूष’ सदैव ‘परिवार’ का मुखिया ही रहना चाहता है, इससे कम कत्तई नहीं | ‘संयुक्त परिवारों’ के ‘एकल-परिवारों’ में टूटने के प्रमुख कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है, क्योंकि पिता के रहते बेटा परिवार का मुखिया नहीं हो सकता, जबकि उसकी चाहत है ‘मुखिया’ की सत्ता और हैसियत पाने की |

अस्तु… जींस पहनती बेटियों के कारण माता-पिता के रुष्ट एवं चिंतित होने की वजहें इसी पितृसत्ता में छिपी हैं, जिसे किसी भी क़ीमत पर वह बनाए रखना चाहती है, चाहे उसके लिए माता-पिता के हाथों अपनी ही संतानों का रक्त ही क्यों न बहाना पड़े…! और इसके ‘साइड इफ़ेक्ट’ के रूप में भले ही तमाम रिश्ते रक्त-रंजित ही क्यों न हो जाएँ, किन्तु ‘पितृसत्ता’ के सबसे ज़रूरी है अपनी सत्ता एवं वर्चस्व को बनाए रखना; इससे कम कुछ भी नहीं…!

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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