भोजन के सम्बन्ध में ‘खाद्य’ और ‘अखाद्य’ जैसे शब्दों को तो हम अक्सर ही सुनते हैं ; जैसे प्याज, लहसुन जैसी सब्जियाँ, अथवा कुत्ते, कौवे, साँप, बिच्छू, घोंघे, चूहे आदि पशु-पक्षियों का मांस वगैरह भारतीय ‘सनातनी-संस्कृति’ में ‘अखाद्य’ की श्रेणी में रखे गए हैं | इसी प्रकार गाय के दूध को ‘बुद्धिवर्द्धक’ कहा गया है और उसी के बरक्स भैंस के दूध को ‘बुद्धिनाशक’, इतना ही नहीं गाय के दूध को ही ‘पवित्र’ कहकर हिन्दू पूजा में उसी को प्राथमिकता दी गई है ! सवाल है कि क्या वाकई में जो कहा गया है उसके पीछे कोई तार्किक सोच है अथवा कोई और बात, जिसके बारे में जानबूझकर कुछ नहीं कहा जाता है, अथवा कहा जाए कि ग़लत बातों का प्रचार-प्रसार किया जाता है ?
इन तमाम बातों का अध्ययन बताता है कि वस्तुतः यह संस्कृतियों के संघर्ष का खेल है, न कि किसी तर्क पर आधारित; जहाँ एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के कमज़ोर या पराजित होने की स्थिति में उसके लोगों को हीनताबोध से भरने एवं उनके आत्म-सम्मान तथा आत्म-विश्वास को कुचलने के लिए ऐसा करती है |
एक उदाहरण से समझते हैं… ‘पारंपरिक सनातनी-संस्कृति’ में कई पवित्र धार्मिक कार्यों में सिले हुए वस्त्र पहनना वर्जित है, सिले हुए वस्त्र पहनने पर पूजा अशुद्ध हो जाती है या भंग हो जाती है | प्रश्न है कि क्यों ? क्यों व्यक्ति अपने रोज़मर्रा के जीवन में सिले हुए वस्त्र तो पहनता है, लेकिन ऐन पूजा के वक़्त सिले हुए वस्त्र ‘वर्जित’ हो जाते हैं ? दरअसल इसके पीछे की कहानी केवल इतनी ही है कि वस्त्र सिलनेवाली ‘सुई’ का विकास भारत के द्रविड़ों ने सिन्धु-सभ्यता के विकासक्रम में किया और यहाँ के मूल-निवासी सिले हुए वस्त्र पहनते थे; जबकि आर्यों की संस्कृति में ‘सुई’ अनजानी वस्तु थी, यहाँ तक कि जब ‘आर्य’ भारत आए, तो पराजित ‘द्रविड़ों’ या ‘अनार्यों’ की वस्तु होने के कारण घृणावश उन्होंने अगली कई शताब्दियों तक ‘सुई’ से परहेज ही किया | इसी का अनुकरण आज भी ‘सनातनी-संस्कृति’ की श्रेष्ठता को मानने वाले लोग सांकेतिक रूप से करते हैं, ताकि वे स्वयं भी याद रख सकें कि ‘सुई’ अनार्यों द्वारा विकसित की गई थी और यहाँ के मूल निवासियों को भी एहसास दिलाते रहें कि उनकी ख़ोज ‘सुई’ एक वर्जित चीज है, जिसका प्रयोग ‘पवित्र कार्यों’ में नहीं किया जा सकता |
यही कहानी लहसुन-प्याज, भैंस के दूध, या हिन्दू-शादियों में विवाह का मंडप फ़ूस से बनाए जाने आदि की भी है…
इस प्रकार की गतिविधियों का जो उद्देश्य है, वह है पराजित संस्कृति के वाशिंदों के मन में बहुत गहराई तक उनके सांस्कृतिक-विकास से जुड़े तथ्यों एवं वस्तुओं के प्रति हीनताबोध भरना और पीढ़ियों तक उनको एहसास दिलाते रहना कि उनकी प्रत्येक चीज घटिया, त्याज्य, घृणित, अपवित्र, अशुद्ध है…! यह काम उपनिवेशकाल में अंग्रेज़ों ने भी अपने अधीनस्थ देशों के साथ बख़ूबी किया, जिसमें वे उनके खान-पान, पहनावे और परम्पराओं को हेय दृष्टि से देखा करते थे |
जहाँ तक ‘भूख’ और भोजन की बात है, तो ‘भूख’ और उसकी तृप्ति के लिए ‘भोजन’ एक ऐसा हथियार है, जिसके प्रयोग से किसी भी व्यक्ति, परिवार, समाज, जाति, पीढ़ी को अपने अधीन किया जा सकता है, बिना किसी बल-प्रयोग के; और उसके बाद उनसे कोई भी मनमाना काम करवाया जा सकता है |
इसी अर्थ में यह ‘भोजन’ एक हथियार की तरह प्रयोग किया जाता रहा है, लेकिन केवल वर्चस्ववादी तबकों द्वारा ही नहीं, बल्कि अत्यधिक दमन की स्थिति में ‘भूखों’ की भीड़ द्वारा भी ! वर्चस्ववादियों द्वारा अपनी सत्ता एवं राज्य के समस्त संसाधनों पर अपने एकान्तिक अधिकार की स्थापना के लिए; जबकि ‘भूखों द्वारा अपने अधिकारों की माँग के समर्थन में…
अब इस ‘भोजन’ को ‘हथियार’ बनाकर दुनिया की तमाम संस्कृतियों में वर्चस्ववादी तबकों द्वारा सीधे-सीधे दो लक्ष्यों को सामने रखकर काम किया जाता है— पहला, समस्त संसाधनों पर केवल और केवल अपना अधिकार; तथा दूसरा, ‘अधीनस्थों/वंचितों के भोजन को ‘अखाद्य’, अग्राह्य’ ठहरा कर उनमें ख़ूब गहराई तक हीनभावना का समावेश करना |
दरअसल वर्चस्ववादी-वर्ग की चिर-कामना यही रही है कि समाज के सभी संसाधनों पर उसका और केवल उसका अधिकार हो, सुख के सारे साधन केवल उसके लिए हों; लेकिन इनमें से किसी भी चीज के लिए उनको कत्तई श्रम न करना पड़े ! साथ ही उसकी कामना यह भी सदा से रही है कि वह समाज के अधिकतम लोगों का ‘स्वामी’ हो, उनका ‘भाग्य-विधाता’ हो ! इसके लिए बहुत ज़रूरी है कि ‘शाषित’ होनेवाली एवं सुख तथा जीवन-यापन के सभी साधनों-संसाधनों को पैदा करनेवाली जनता को बेबस और लाचार हालत में लाया जा सके | और इसका सबसे सरल साधन है ‘भोजन’, जोकि परिश्रम करनेवाली जनता की सबसे बड़ी ज़रूरत होती है; जिसके लिए वह अपने बच्चों सहित हड्डी-तोड़ परिश्रम करने को सदैव तैयार रहता है ! वर्चस्ववादी-वर्ग इस बात को जानता है, इसलिए वह उसी ‘रोटी’ अर्थात् ‘भोजन’ को छीनने की तमाम कोशिशें करता है और अंततः उसके द्वारा पैदा की गई वस्तुओं का अधिकांश हिस्सा बल से या छल से छीन लेता है, ‘राज्य’ और ‘धर्म’ की सहायता से |
जहाँ तक ‘भोजन’ को एक ‘हथियार’ बनाकर उसके माध्यम से उनमें हीनभावना भरने का प्रश्न है, तो समाज के कमज़ोर-वर्गों के साथ जो व्यवहार किया जाता रहा है, वह वाकई विचारणीय है | इस स्तर पर वर्चस्ववादी-वर्गों द्वारा केवल कमज़ोर-वर्गों का भोजन ही नहीं छीना गया, बल्कि उनको वे चीज़ें खाने को मजबूर किया गया है, जिसको वर्चस्ववादी-वर्ग के ‘सभ्य’ एवं ‘सुसंस्कृत’ लोग ‘अखाद्य’ कहते हैं— जैसे बीमारी से मरे जानवर, मांस-विक्रेताओं के द्वारा भोजन के लिए काटे गए जानवरों के शरीर के फ़ेंके गए अंश (जैसे आँतें, सिर, पैर या अन्य अवशिष्ट अंग), कई ‘अखाद्य’ घोषित पशु-पक्षी (जैसे कुत्ता, कौआ, चूहा आदि), वर्चस्ववादियों की जूठन, गाय-भैसों के गोबर में से निकला गेंहूँ, आम की गुठली के आटे की रोटियाँ आदि |
भूख से व्याकुल वंचित-परिवार भोजन का कोई साधन न देखकर आख़िरकार उसे ही खाने को बाध्य हो जाता है, जो भी उसके सामने आता है | शाहजहाँ से समय में ही नहीं, बल्कि आधुनिक युग में औपनिवेशिक भारत में 1935-36 में बिहार में पड़े भीषण अकाल में सभी वर्गों —सवर्ण हों या वंचित, हिन्दू हों या मुस्लिम, अर्थात् सभी समाज— के लोगों ने केवल भूख और बीमारी से मरे जानवरों को ही नहीं खाया, बल्कि अपने ही परिवार के मृत सदस्यों एवं अपने मृत बच्चों की लाशें भी खाईं थीं, ज़मीन में दफ़नाई गई लाशें भी निकालकर खाईं…
आधुनिक युग में अंग्रेज़ी औपनिवेशिक-शासन के अधीन रहे चीन ने जन 1945 में स्वाधीनता प्राप्त की, तब तक उसकी खेती अनेक कारणों से लगभग पूरी तरह से नष्ट हो चुकी थी; जिसके कारण चीन की सरकार के सामने सबसे बड़ा संकट चीनी-जनता के लिए ‘भोजन’ का ही खड़ा हुआ था और इस कारण वहाँ की जनता भूख के कारण तेज़ी से मरने लगी | तब माओ-त्से-तुंग ने अपनी जनता को कहा कि उनके आसपास जो भी चीज मिले, कोई भी जीव-जंतु, पेड़-पौधों से प्राप्त कोई भी वस्तु, वह उसी को खाए— साँप बिच्छू, कीड़े-मकोड़े, चील-कौवे, मछली ही नहीं ऑक्टोपस, घोंघे, कछुए…कुछ भी; यदि पकाने का साधन न हो, तो कच्चा खाए; लेकिन हर हाल में अपने-आप को और अपने बच्चों को जीवित रखे, क्योंकि जीवन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, जिसे हर हाल में बचाना है | यही कारण है कि कई दशकों के इस व्यवहार के अभ्यास के कारण यही ‘खाद्य-व्यवहार’ चीनी जनता की रोज़मर्रा की आदतों में शामिल हो गया और इसी कारण आज भी वहाँ की जनता किसी भी जीव-जंतु को खाने में परहेज़ नहीं करती— पकाकर भी और कच्चा भी…! जिनको नाक-भौं सिकोड़ना हो, सिकोड़ें, उनकी बला से…
अस्तु… जब इन भूखों के पास इस ‘अखाद्य’ को खाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होता, और वे उपलब्ध सामग्री को ही ‘भोजन’ के रूप में खाने लगते हैं, तब वर्चस्ववादी-समाज अपना दूसरा खेल शुरू करता है— उस ‘अखाद्य’ के माध्यम से इन भूखों के आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास को कुचलने का खेल ! इसके लिए हमारा सभ्य-समाज इस ‘अखाद्य’ खानेवाले वर्गों को हेय दृष्टि से ही नहीं देखता, बल्कि वह उसके लिए इन समुदायों को ‘नीच’, ‘घृणित’, ‘पशु से हीन’, ‘अस्पृश्य’ आदि घोषित करता है, उन्हें नित्य-प्रतिदिन अपमानित करता है, उनका तिरस्कार करता है |
भारत में दलितों और आदिवासियों द्वारा कुत्ता, चूहा, साँप, कौवे, कीड़े-मकोड़े, मरे जानवरों का सड़ता हुआ मांस, मांस-विक्रेता द्वारा काटे गए जानवरों के फेंकें गए अवशिष्ट अंग आदि खाना, दरअसल इसी कहानी का साक्षात् किन्तु वीभत्स रूप है, जिसके लिए दलित-आदिवासी आज भी सवर्णों द्वारा प्रतिदिन अपमानित और तिरस्कृत किए जाते हैं…
लेकिन स्वाधीनता के बाद संविधान का शासन स्थापित होने के बाद यह स्थिति कुछ अंशों में सुधरी, जब पहले की सरकारों ने भारत की समस्त जनता के लिए खाद्यान्न की अधिकतम उपलब्धता की सुनिश्चितता को अपनी नीतियों का लक्ष्य बनाया | हालाँकि इसका लाभ वंचित-समाज के बहुत ही कम लोगों तक पहुँचा, लेकिन मुट्ठी भर वंचितों के जीवन में भी यह छोटा-सा सकारात्मक परिवर्तन समाज की दबंग-जातियों को पसंद नहीं आया और वह उनकी आँखों की किरकिरी बन गया | इसलिए बेहद योजनाबद्ध ढंग से समस्त दलितों-आदिवासियों को पुनः उसी दयनीय स्थिति में लाने के लिए क़वायदें शुरू हो चुकी हैं, जिसके लिए वर्तमान सरकार जी-तोड़ कोशिशों में जुट गई है, जिसकी शुरुआत पिछली कुछ ख़ास सरकारों ने कर दी थी….
सरकारों द्वारा ‘कल्याणकारी योजनाओं’ के नाम पर किस तरह समाज के कमज़ोर वर्गों का स्वाभिमान कुचला जाता है इस पर बातचीत अगले लेख में…
–डॉ. कनक लता
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बहुत ही अच्छा लेख है।
यथार्थ को दर्शाता ये लेख। 🙏🙏🙏
बहुत ही उम्दा जानकारी है ये. ऐसा प्रतीत होता है कि लेखिका ने इस विषय पर बहुत ही गहराई से अध्ययन किया है. ऐसी आँखें खोलने वाली जानकारी के लिए धन्यवाद.