बतकही

बातें कही-अनकही…

कहते हैं कि ‘बचपन’ ही वह समय होता है, जब किसी बच्चे के भविष्य के लिए उसके व्यक्तित्व की रुपरेखा तैयार की जाती है; अर्थात् उसकी नींव डाली जाती है | बच्चे के मन में जिस प्रकार के बीज रोपित किए जाएँगे, उसका व्यक्तित्व उसी के अनुरूप आकार लेगा | जिस बच्चे को बचपन से आत्म-निर्भर, स्वाभिमानी बनाया जाएगा, वह आगे चलकर उसी के अनुरूप आत्म-विश्वासी, स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनेगा; और जिस बच्चे को बचपन से दब्बू, संकोची और ग्लानि-युक्त बनाया जाएगा, वह आगे चलकर वैसा ही व्यवहार करेगा | इसे देखना हो, तो पश्चिमी देशों में बच्चों के व्यवहार को देखना चाहिए और भारत में लड़कियों के व्यवहार को; दोनों में ज़मीन-आसमान का फर्क़ नज़र आएगा |

पश्चिम में माता-पिता अपने बच्चों को बचपन से स्वावलंबी बनाते हैं, अपने छोटे-छोटे काम उनको स्वयं करने देते हैं, अपनी छोटी-छोटी समस्याओं और चुनौतियों से उनको ख़ुद ही जूझने देते हैं… इसलिए वे बच्चे जितने साहसी, प्रयोगधर्मी एवं जिज्ञासु होते हैं, वह क़ाबिले-ग़ौर है | भारत में लड़कियों को बचपन से ही सिखाया जाता है कि ‘धीरे बोलो’, ‘कम बोलो’, ‘ज़ोर से मत हँसो’, ‘टाँगें फ़ैलाकर मत बैठो’… और परिणाम ! बड़ी होने पर लड़कियों का व्यक्तित्व इतना जकड़ा हुआ होता है कि वोट डालने का अधिकार रखनेवाली उम्र (जहाँ संविधान उनसे स्वतन्त्र चिंतन और विवेकपूर्ण निर्णय की अपेक्षा करता है) में पहुँचकर भी अपने जीवन, करियर और भविष्य तक के बारे में एक छोटा-सा निर्णय नहीं ले पाती हैं, जीवन में जोखिम उठाने को तो कत्तई तैयार नहीं !

लेकिन इन बातों का अब ‘भूख’ से क्या सम्बन्ध है? और सरकारों की गतिविधियों से इसका क्या ताल्लुक? सवाल तो लाज़िमी है ! दरअसल यहाँ बात का केंद्र ‘बचपन’ के साथ सरकारी मानसिकताओं एवं गतिविधियों के विविध ‘प्रयोगों’ पर स्थित है और उसके परिणामों पर भी !

पिछले दो लेखों ‘भूख और भोजन’ तथा ‘भोजन केवल भोजन नहीं एक हथियार भी है’ में इस मुद्दे पर बात की गई थी कि ‘भूख’ और ‘भोजन’ की ताक़त क्या है, तथा किस प्रकार एक वर्ग दूसरे वर्गों को अपने अधीन लाने के लिए ‘भूख’ और ‘भोजन’ को हथियार की तरह प्रयोग करता है | इन दो लेखों में यह समझने की कोशिश हुई थी कि किस प्रकार लोगों को भूखा रखकर उनको मजबूर किया जाता है कि वे भोजन के लिए कोई भी काम करने को ‘तैयार’ हो जाएँ | यह लेख ठीक इसी बिंदु से आगे बढ़ेगा, लेकिन इस बार बात सरकारों की ‘करनी’ और ‘कथनी’ पर होगी…

भारत में सदियों से समाज की कम से कम 80 फ़ीसदी आबादी ऐसी है, जिसको सदियों से अधीन रखा गया | यहाँ अभी जेंडर के आधार पर ‘अधीनस्थीकरण’ को नहीं देखेंगे, बल्कि सामाजिक-समुदायों, जातियों, नस्लों के आधार पर बात हो रही है | तो यही 80-85 फ़ीसदी आबादी थी, जिसपर शासन करने की इच्छा भारत के 15-20 फ़ीसदी आबादी की रही, और वह उनको अपने अधीन सफलतापूर्वक रखता रहा, जब तक कि अंग्रेज़ नहीं आ गए | अंग्रेज़ों के शासनकाल में स्थिति बदल गई और वह 80-85 फ़ीसदी आबादी कुछ अधिकार पाने लगी, उनमें चेतना आने लगी, वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत ही नहीं संघर्षशील भी होने लगी |

परिणाम यह हुआ कि स्वाधीनता के बाद संविधान का शासन स्थापित होने पर भारत के समस्त नागरिकों को समान अधिकार मिले, उस 80-85 फ़ीसदी आबादी को भी, उसमें भी विशेषकर वंचित समाज के दलित-आदिवासियों को | नौकरियों के कारण उनकी स्थिति सुधरने लगी और उनमें से कुछ गिने-चुने लोगों की भोजन की समस्या हल हुई, तब उनमें अपने स्वभिमान की भूख जगी और वे किसी के भी अधीन रहने और किसी की भी ज्यादती सहने से इंकार करने लगे |

यही बात समाज के 15-20 फ़ीसदी दबंग-जातियों को अच्छी नहीं लगी | इसके अलावा पहले जहाँ सम्पूर्ण संसाधनों पर केवल इन्हीं दबंग जातियों का अधिकार हुआ करता था, अब उसपर उनका अधिकार सीमित हो गया | इसे उन्होंने अपने ‘जन्मजात अधिकारों’ का ‘हनन’ माना | बस यहीं से सारा मामला शुरू होता है…

तब दबंग-वर्गों ने इस स्थिति को बदलकर अंग्रेज़ों से पहलेवाली स्थिति की पुनर्स्थापना के लिए न जाने कितने उपाय कर डाले | उन्हीं में से एक उपाय है, वंचित-समाज के थोड़े-से जागृत स्वाभिमान की जड़ों में मट्ठा डालना—अर्थात् उनके बच्चों के भीतर बचपन से ही हीनताबोध भरना, ताकि उनके स्वाभिमान की हत्या बचपन में ही की जा सके—बीज को पेड़ बनने से पहले ही ख़त्म किया जा सके | इसके अलावा उनको सदैव के लिए ‘परावलम्बी’ बनाना भी ज़रूरी था— उस ‘परावलंबिता’ का एहसास कराना, फ़िर साथ-ही-साथ अपनी ‘दयालुता’ का विश्वास दिलाना, और उसके साथ ही अपनी शक्ति का भरसक एहसास दिलाकर भयभीत करना भी ज़रूरी था…

स्वाधीन भारत में भी अंततः दबंग-समाज द्वारा ही सत्ता पर सदैव अधिकार रखा गया, शासन-प्रशासन पर भी, अर्थव्यवस्था एवं तमाम सरकारी संस्थाओं-व्यवस्थाओं, नीतियों, योजनाओं पर भी…

अब हम ज़रा उन स्थितियों को देखते हैं, जिसपर यह लेख मूलतः केन्द्रित है | सरकारी स्तर पर चलनेवाले आँगनवाड़ी एवं सरकारी-विद्यालयों में बच्चों के उचित पोषण के लिए भोजन की व्यवस्था है, जो ‘मुफ़्त’ है; और जिस कारण समाज इनको, ख़ासकर सरकारी-विद्यालयों को ‘दाल-भात वाला स्कूल’ कहते नहीं थकता; जिसमें उस समाज की घृणा ही प्रकट नहीं होती, बल्कि उसकी उपेक्षा, आलोचना, तिरस्कार, जुगुप्सा भी ख़ूब अच्छी तरह प्रकट होती है |

उत्तराखंड के पौड़ी जिले में एक ‘समाजसेवी’ संस्था में काम करते समय मैंने उस घृणा और तिरस्कार को बहुत नज़दीक से देखे हैं—स्कूलों में भी समाज में भी भी, और हाँ, शिक्षा के माध्यम से ‘सम्पूर्ण’ समाज के सतत विकास के लिए समर्पित ‘समाजसेवी’ संस्थाओं एवं उनके ‘समाजसेवकों’ में भी | कई स्कूलों में मैंने देखे कि भोजनमाताएँ (स्कूलों में भोजन पकाने वाली महिलाएँ) बच्चों को खाना परोसते समय भोजन को लेकर गाली-गलौज करने और उनका तिरस्कार करने से बाज़ नहीं आतीं, किसी ‘टिपिकल सौतेली माता’ की तरह; कई अध्यापकों को भी मैंने ऐसा करते देखा है |

लेकिन ग़ौर करनेवाली बात तो यह है कि सरकार की किसी भी ‘शिक्षा-नीति’ में यह बात नहीं कही गई है कि ‘मध्याह्न-भोजन’ की व्यवस्था जिस प्रकार सरकारी-विद्यालयों में अनिवार्य है, ठीक उसी प्रकार भारत के तमाम निजी-विद्यालयों में भी अनिवार्यतः लागू की जाए; वहाँ यह भी नियम नहीं बनाया गया है कि सरकार द्वारा संचालित ‘आँगनबाड़ी’ के बरक्स निजी-स्तर पर चलनेवाले ‘प्ले-स्कूलों’ में भी संस्थान द्वारा ही अनिवार्यतः बच्चों को भोजन दिया जाए, बेशक उसके लिए इन दोनों ही स्थानों पर माता-पिता से फ़ीस के साथ ही शुल्क लिया जा सकता है |

‘आँगनबाड़ी’ एवं ‘सरकारी-स्कूलों’ में बच्चों को दिया जाने वाला यह भोजन उन लक्षित वंचित-समाज के बच्चों की कितनी बड़ी आवश्यकता है, यह बताने की ज़रूरत नहीं; इसपर ‘मध्याह्न-भोजन’ शीर्षक से मैंने तीन लेख इसी जगह पर लिखे हैं, जोकि वस्तुतः कोई कहानी नहीं, बल्कि वास्तविकता हैं, हमारे समाज की क्रूर वास्तविकता | लेकिन उन समुदायों की इसी बेबसी, जोकि दरअसल दबंग-समाज की गतिविधियों के कारण पैदा हुई है, न कि वंचितों की किसी कामचोरी से, का लाभ उठाकर सरकार में बैठा दबंग-समाज उनके बच्चों के स्वाभिमान की जड़ें बचपन में ही काटने का एक बढ़िया बहाना पा जाता है |

इन दोनों स्थानों पर बच्चों एवं उनके अभिभावकों को प्रतिदिन प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से यह एहसास दिलाया जाता है कि वे कितने ‘बेबस’ और ‘लाचार’ हैं, कि उनके लिए भोजन (एवं दूसरी आवश्यक वस्तुएँ भी) की व्यवस्था भी ‘दूसरों’ को करनी पड़ती है | उनको यह भी किसी-न-किसी तरीक़े से समझाया ही जाता है कि उनके लिए भोजन उपलब्ध कराने वाले और उनपर एहसान करनेवाले वे ‘दूसरे’ लोग कौन हैं |

लेकिन इसका कत्तई यह तात्पर्य नहीं है कि आँगनबाड़ी और सरकारी विद्यालयों में बच्चों के पोषण के लिए यह ‘भोजन की व्यवस्था’ बंद हो जानी चाहिए; कत्तई नहीं; ‘भोजन’ और ‘पोषण’ प्रत्येक बच्चे का ही नहीं, बल्कि प्रत्येक प्राणी का नैसर्गिक अधिकार है, अत्यावश्यक नैसर्गिक अधिकार |

दरअसल आवश्यकता है तो समाज, और उससे भी पहले सरकार, की नीयत का साफ़ होना और लोकतान्त्रिक-मूल्यों को वास्तविक रूप से आत्मसात करना, न कि केवल दिखावे-भर के लिए काम करना |

यदि सरकारी-नीतियों और योजनाओं में अनिवार्यतः यह व्यवस्था हो, कि ‘आँगनबाड़ी’ के बरक्स समस्त निजी ‘प्ले-स्कूलों’ में भी बच्चों के भोजन आदि की व्यवस्था संबंधित संस्थान करेंगे; और इसी तरह सरकारी-स्कूलों की तरह निजी-विद्यालय ही अपने बच्चों के लिए भोजन परोसेंगें, तो निश्चित रूप से इससे बहुत अंशों में दोनों स्थानों (सरकारी एवं निजी) के बच्चों के बीच अपने ‘भोजन’ के संबंध में जो समझ एवं धारणा का अंतर अभी दिखाई देता है, वह काफ़ी कम हो सकेगा | बेशक इसके लिए निजी संस्थानों में अपने बच्चों के लिए मोटी फ़ीस भरनेवाले अभिभावकों से इसके लिए भी शुल्क लिया जा सकता है |

लेकिन यदि ऐसा सचमुच में किया जाता है तो इसके बहुत दूरगामी प्रभाव होंगे | फ़िर किसी भी विद्यालय को ‘दाल-भात वाला’ स्कूल नहीं कहा जाएगा, किसी भी समाज के बच्चों के मन में हीन भावना नहीं पैदा होगी, किसी बच्चे को यह न सुनना पड़ेगा कि वह ‘मुफ़्त’ का खाता है |

हाँ, यदि निजी-विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ाने को अपना ‘स्टेटस-सिम्बल’ समझनेवाले अभिभावकों को यह व्यवस्था पसंद न आए और वे सरकार पर ऐसा न करने का दबाव बनाएँ, तो सरकार कोई और विकल्प सोच सकती है | उदाहरण के लिए बच्चों के भोजन एवं पोषण के लिए माता-पिता को ही सीधे धनराशि दी जाय, जिससे वे बच्चों के लिए भोजन आदि की व्यवस्था स्वयं ही कर सकें; अथवा कोई ऐसा उपाय हो, जिससे बच्चों के मन में यह भाव आ ही न सके कि वे दूसरों की दया पर जी रहे हैं |

हाँ, यदि सरकार की नीयत सचमुच में निष्पक्ष रूप से सभी बच्चों के बचपन और व्यक्तित्व-विकास की हो, बात तो तब है ! लेकिन सरकार की नीयत संदेह पैदा करती है | वर्तमान सरकार की अनेक गतिविधियाँ इस संदेह को लगातार गहरा करती चली जा रही हैं…

किन्तु कहते हैं ना, कि ‘काल’ या ‘इतिहास’ अपने-आप को बार-बार दोहराता है; इसलिए यह आवश्यक नहीं कि बच्चों के सायास ‘व्यक्तित्व-हनन’ की यह क़वायद सदैव इसी तरह सफ़लतापूर्वक चलती रहेगी, क्योंकि एक ‘द्रष्टा’ वह ‘समय’ भी है, जिसके अपने मन में क्या है, कोई नहीं जानता; इसलिए समय कब पलटकर कोई दूसरा रूप ले लेगा, या कोई दूसरी सामाजिक-व्यवस्था को रच डालेगा, यह भी कोई नहीं बता सकता, भविष्यवक्ता भी नहीं…

इसपर बातचीत अगले लेख में…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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2 thoughts on “वर्चस्व-स्थापना के प्रयास में ‘भूख’ को बचपन से साधती सरकारें

  1. थोड़ा व्यस्त और थोड़ा अस्वस्थ होने के कारण इस लेख को आज समय दे सकी।आप नाराज मत होना।
    लेख पुनः झकझोरता है हमेशा की तरह।शायद वास्तविकता को उजागर करता है।
    परमपिता परमात्मा आपकी लेखनी को ऐसे ही पैनी बनाए रखें।

  2. कुछ व्यस्तता और कुछ अस्वस्थ होने के कारण इस लेख को आज देख सकी।इस के लिए माफी चाहूंगी।हमेशा की तरह आपकी पैनी लेखनी को साधुवाद। शब्दों के साथ सरलता से खेलती हुयी आपकी भाषा शैली गजब।

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