बतकही

बातें कही-अनकही…

‘जींस’ या ‘फ़टी जींस’ से ‘पितृसत्ता’ का क्या संबंध है, इसके एक पक्ष को तो पिछले दो लेखों फ़टी जींस, लड़कियाँ और संकट में संस्कृति और जींस पहनती बेटियाँ माता-पिता को अच्छी नहीं लगतीं’में देख लिया गया, लेकिन साथ में यह भी समझना ज़रूरी है कि क्या ‘पितृसत्ता’ सदैव ही फ़टी हुई जींस या ऐसे ही दूसरे ‘संस्कृति-विरोधी’ तत्वों का विरोध करती है? अथवा उसके सामने कुछ ‘परिस्थितियाँ’ ऐसी भी आती हैं जब वह प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उन्हीं का समर्थन करती हैं? जींस जैसी ‘संस्कृति-विरोधी’ तत्वों या चीजों से और उसके मामले में पितृसत्ता से ‘व्यवसाय’ और ‘धर्म’ का क्या संबंध है, यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है, और आवश्यक भी |

पितृसत्ता चाहे जो चाहती हो, लेकिन व्यवसाय की दुनिया वे सारे कार्य करती है, जिसमें उसका लाभ हो, जिससे उसे मनोवांछित आमदनी या मुनाफ़ा हो | यह चाहत उससे वे सारे कार्य करवाती है, जो पितृसत्ता की नज़र में कभी सही भी हो सकती है, तो कभी ग़लत भी |

दूसरी तरफ़ पितृसत्ता है, जिसका चरित्र दोमुखी या दोगला है | वह एक ही चीज को कभी किसी ख़ास सन्दर्भ में अपना समर्थन देती हुई उसके विकास में योगदान देती है, तो किसी दूसरे सन्दर्भ में उसी चीज का प्रबल विरोध करती हुई उसका विनाश करने पर भी तुल जाती है |

व्यवसाय की दुनिया में अपने कार्यों के प्रति एकनिष्ठता और पितृसत्ता की दुनिया में दोगला चरित्र, दोनों का उद्देश्य दरअसल एकदम स्पष्ट होता है— अपने लक्षित लाभ को साधना | वे ‘लक्षित लाभ’ क्या हैं?

दरअसल व्यवसाय की दुनिया में कोई भी काम केवल और केवल अपने अधिकतम आर्थिक लाभांश को सामने रखकर किया जाता है; जबकि पितृसत्ता केवल और केवल समाज के चुनिन्दा धूर्त निठल्ले वर्गों एवं उनमें भी मुट्ठीभर लोगों के वर्चस्व को बनाए रखने का लक्ष्य लेकर किसी के भी प्रति अपना समर्थन या विरोध ज़ाहिर करती है |

और धर्म…? जींस या उसी जैसे तमाम मुद्दों से उसे क्या लेना-देना है? उसमें उसकी क्या भूमिका है, यहाँ उसका क्या काम है…? दरअसल धर्म ही वह चाभी या कुंजी है, जिससे दोनों —व्यवसाय एवं पितृसत्ता— के स्वार्थों के सभी ताले खुलते हैं | धर्म को एक विशाल ‘गुप्त मंत्रणा-कक्ष’ की तरह समझिए, जिसके भीतर व्यवसाय और पितृसत्ता दोनों गुप्त रूप से जनसाधारण से छुपकर मिलते हैं और अपने-अपने लक्ष्यों को साधने की संयुक्त योजनाएँ बनाते हैं | यहाँ आवश्यकतानुसार व्यवसाय और पितृसत्ता एक-दूसरे के लिए सहयोगी, समर्थक और हितैषी की भूमिका में जुड़ते हैं; और उनको जोड़ने का काम करता है ‘धर्म’— किसी भी देश में, किसी भी पितृसत्तात्मक समाज में, पुरातन समाज हो या आधुनिक, प्राचीन युग हो या वर्तमान !

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘पितृसत्ता’ की एकान्तिक-सत्ता (जिसमें उसके शीर्ष पर विराजमान वर्गों एवं व्यक्तियों का शासन एवं उन्हें ‘श्रेष्ठतम’ की पदवी भी शामिल है) को स्वीकार करते हुए उसे आर्थिक संबल एवं संरक्षण देता है, व्यवसाय-जगत | जबकि उस व्यवसाय-जगत को सामाजिक एवं धार्मिक संरक्षण, समर्थन एवं सहयोग मिलता है ‘पितृसत्ता’ से और उसके साये में ‘धर्म’ से भी | इस रूप में दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं | और धर्म इन दोनों की रक्षा करता हुआ स्वयं इनके द्वारा भी अपनी सुरक्षा प्राप्त करता है | इतिहास के किसी भी कालखंड को इस सन्दर्भ में देखा जा सकता है |

इन तीनों के व्यवहारों के सम्बन्ध में ‘जींस’ तो केवल एक उदाहरण भर है | इसलिए हम उदाहरण के रूप में जींस को लेकर ही समझने की कोशिश करते हैं…

‘जींस’ के सन्दर्भ में इन तीनों —पितृसत्ता, व्यवसाय-जगत और धर्म— की भूमिकाओंके मामले में बेहद ही दिलचस्प एवं पेंचीदा मामला बनता है | व्यवसाय की दुनिया को फ़टी-उधड़ी जींस में अपने कारोबार के लिए अपार संभावनाएँ नज़र आती हैं, जिसके लिए उसने पिछली एक सदियों में, और वैश्विक-परिदृश्य के सन्दर्भ में कम से कम पिछली दो सदियों में, जनता के बीच पॉपुलर और व्यापक बनाने के लिए उसने न जाने कितने पापड़ बेले; और अब वह उसके फ़ल खाना चाहती है | इसलिए वह हर हाल में उसे बनाए रखने की कोशिश में लगी हुई है | दूसरी ओर पितृसत्ता के लिए फ़टे-पुराने कपड़े असमंजस का विषय हैं | जबकि धर्म भी इस मामले में पितृसत्ता के साथ खड़ा दिखता है, यानी असमंजस की स्थिति में |

यह असमंजस क्या और क्यों है…??!!

दरअसल जींस का जन्म ही हुआ था, यूरोप-अमेरिका में समाज के सबसे निचले तबक़े श्रमिकों, गड़रियों, मजदूरों के वस्त्र के रूप में | क्योंकि लगातार परिश्रम का काम करते रहने के कारण उनके कपड़े जल्दी फट और घिस जाते थे, इस कारण उनके लिए मोटे खुरदरे कपड़ों से जो वस्त्र बनाए गए, वह ‘जींसों’ के रूप में सामने आया | इसपर विस्तृत लेख ‘समयांतर’ पत्रिका (सम्पादक पंकज बिष्ट) में मई 2021 के अंक में छपा है, ‘दरिद्रनारायण की फ़टी जींस शीर्षक से |

लेकिन धीरे-धीरे वक़्त के करवट लेने से यह आम जनता के बीच भी चली आई, अपने फ़टेहाल रूप में में भी | व्यवसाय की दुनिया ने तो अपने आर्थिक लाभ को देखते हुए इसे लपक लिया और कसकर पकड़ लिया; और तो और, पूरी दुनिया के वर्चस्ववादी दक्षिणपंथी सामाजिक-समूहों ने भी तब इसे अपने एक कारगर हथियार के रूप में पकड़ा | लेकिन प्रश्न तो यह है कि क्यों?

दरअसल आधुनिक-युग में साधारण जनता के बीच अपने अधिकारों को लेकर जो चेतना आई उससे ये वर्ग भी काफ़ी प्रभावित हुए और अपने अधिकारों के रूप में अपने लिए अच्छे भोजन, वस्त्रों आदि मूलभूत चीजों की पुरज़ोर माँग करने लगे; और मौक़ा मिलने पर अच्छे कपड़े पहनने भी लगे | यह बात धर्म और सत्ता के शीर्ष पर बैठे वर्चस्ववादी पितृसत्ता के पक्षधर वर्गों को कत्तई पसंद नहीं आई | किसी भी युग में, किसी भी देश या समाज में धर्म और पितृसत्ता यह कत्तई नहीं चाहते कि समाज का कमज़ोर वंचित तबक़ा, जिसपर वे शासन करते हैं, किसी भी स्थिति में नए, बेहतरीन और साफ़-सुथरे कपड़े पहने | इसे समझने के लिए एक सत्य-घटना का ज़िक्र बहुत ज़रूरी होगा |

मेरे पैतृक गाँव एवं आसपास के इलाक़ों (जो वर्तमान में ‘कसिया’, ‘कुसीनारा’ और ‘कुशीनगर’ आदि कई नामों से जाना जाता है) में किसी समय में ‘शाहियों’ का बोलबाला रहा था, अंग्रेज़ों के बहुत बाद तक | ये वर्तमान में ‘साही’ कहलाते हैं | कहा जाता है कि यह वंश गौतम बुद्ध के समय में भी तत्कालीन ‘कुशीनगर’ पर शासन करता था और इन्हीं ‘साहियों’ के शासनकाल में तथागत बुद्ध कई बार कुशीनगर आए थे और अपना अंतिम भोजन भी वहीं ‘चुंद’ नामक लौह-व्यवसायी के घर किया और अपना शरीर-त्याग भी कुशीनगर में ही किया | बुद्ध की ‘महापरिनिर्वाण’ मुद्रा की मूर्ति उन्हीं के महल में आज भी मौजूद है |

कुछ दशक पहले उन्हीं ‘साहियों’ के घर के सामने से हमारे गाँव का एक वंचित-वर्ग का व्यक्ति नया और साफ़-सुथरा कुरता-धोती पहनकर गुजर रहा था | साही-परिवार के एक बुजुर्ग ने अपने खानदान के युवाओं को बुलाकर दिखाया और कहा— “क्या तुमलोगों के इतने बुरे दिन आ गए हैं कि हमारे पैरों के नीचे रहने वाले ये जानवर अब नए साफ़-सुथरे कपड़े पहनने लगे हैं? जाओ, और जाकर उसे उसकी औक़ात बताओ…!”

उसके बाद उन युवा ‘राजकुमारों’ ने अपने नौकरों के साथ मिलकर उस ग़रीब-ग्रामीण को इतना मारा कि वह मरणासन्न अवस्था में पहुँच गया और उसके बेहोश हो जाने पर उसे मरा हुआ समझ कर खेतों में फ़ेंक कर अपने ‘महल’ लौट गए | कई घंटों तक वह वैसे ही बेहोश पड़ा रहा | घंटों बाद वहाँ से गुजरने वाले उसी के गाँव के एक अन्य आदमी ने उसे देखा और उसके घरवालों को ख़बर की | घरवालों को तब आसपास के लोगों से पूरी घटना के बारे में पता चला तो वे उसे ‘साहियों’ से छुपाकर ट्रेन से वहाँ से बहुत दूर स्थित सैनिक अस्पताल में ले गए, जहाँ वह बड़ी मुश्किल से बचाया जा सका, लेकिन शायद सदैव के लिए विकलांग होकर…  

अस्तु, जब भारत में अंग्रेज़ों के शासनकाल में यहाँ के परिश्रमी कमज़ोर वर्गों की हालत कुछ सुधरी, तब वे अच्छे कपड़े भी पहनने लगे | लेकिन यह परिवर्तन यहाँ के वर्चस्ववादी तबकों को यह कैसे पसंद आता? तब उन्होंने व्यवसाय-जगत से गठजोड़ किया और फ़टे-पुराने कपड़ों को ‘ग्लोरिफाई’ और ‘ग्लैमराइज़’ करते हुए उसकी वक़ालत शुरू कर दी | इसी के समानांतर, धर्म तो पहले से ही कोशिशें कर रहा था और ग़रीब वंचितों को बार-बार समझाता रहता था कि साधन-संपन्न-वर्गों के पास जो ‘गजधन गोधन बाजिधन’ के रूप में अथाह ‘रत्नों की खान’ है, वह तो वास्तव में ‘धूरि (धूल) के समान’ है असली धन तो ‘संतोषधन’ है; इसलिए सभी ग़रीबों-असहायों को हमेशा “रूखा सूखा’ और ‘ठंढा पानी’ से ही संतोष करना चाहिए, क्योंकि वही असली धन है | और इसीलिए जब कभी उन साधन-वर्गों की ‘चूपड़ी’ को देखें, तो उसे देखकर कभी भी अपना ‘जी नहीं ललचाना’ चाहिए— “रूखा सूखा खाइ के ठंढा पानी पी | देख पराई चूपड़ी, मत ललचाए जी ||”

लेकिन दुर्भाग्य से भारत का कमज़ोर-वर्ग अब ऐसे उपदेशों की चालाकियों को समझने की कोशिश करने लगा था, जिससे वर्चस्ववादी चौकन्ने हो गए और नए रास्ते तलाशने लगे | यह नया रास्ता मिला यूरोप के ग़रीबों, मजलूमों के इस कपड़े ‘जींस’ में, जिसे अक्सर ही साबुन-इस्त्री नसीब नहीं होता था | व्यवसाय-जगत ने जब पैसे कमाने के लिए इसे अपना माध्यम बनाया तब पितृसत्ता ने उसके साथ गठजोड़ किया और ग़रीबों को उनकी फ़टेहाली वाली औक़ात में रखने के लिए इसे अपना समर्थन प्रदान किया | दोनों के स्वार्थों की गाड़ी चल पड़ी; चल ही नहीं पड़ी, बल्कि दौड़ने लगी !

किन्तु पितृसत्ता की समस्या वहाँ से शुरू हो गई, जब व्यवसाय-जगत के मुँह में जींस के माध्यम से अधिक रुपए कमाने का खून लग गया और उसने अनेक उपायों से इस ‘जींस’ को वर्चस्ववादी वर्गों के बीच भी प्रसारित करना शुरू कर दिया और पितृसत्ता के पुरोधाओं के बच्चे भी इन फ़टे-पुराने, घिसे-पिटे, मुड़े-तुड़े लुक वाले कपड़ों को महँगे शोरूमों से ख़रीदकर शान से पहनकर घूमने लगे | वर्चस्ववादी-वर्गों द्वारा प्रायोजित इस ‘ग़रीबी’ ने उनके ही बच्चों के माध्यम से उनके ही घरों में अपनी घुसपैठ बना ली | कोढ़ में ख़ाज की तरह इसमें सहयोग मिला महिलाओं को ढेर-सारे वस्त्रों में लपेटकर रखने के विरुद्ध आन्दोलनरत नारीवादी आंदोलनों से, अन्य विविध प्रकार के आधुनिक समतावादी विमर्शों से; जैसे यूरोप में ‘काले’ लोगों के आन्दोलन, समलैंगिकों, वेश्याओं, युवाओं, विद्यार्थियों आदि के आन्दोलन |

व्यवसाय-जगत अब इस छप्पर फाड़कर बरसते धन में कमी करने को किसी भी तरह स्वीकार करने के मूड में नहीं है, इसलिए वह मौन है |

अब पितृसत्ता करे, तो क्या करे? यदि वह व्यवसाय-जगत का इसके लिए विरोध करती है, तो उसे नुकसान-ही-नुकसान है | आख़िर धर्म एवं सत्ता के पुजारियों की झोलियाँ आवश्यकता के समय व्यवसाय-जगत द्वारा ही तो भरी जाती हैं; उस व्यवसाय-जगत के समर्थन के अभाव में पितृसत्ता एकदम पंगु हो जाएगी, इसलिए वह उसका विरोध भी नहीं कर सकती |

विरोध करने पर एक और बड़ी समस्या यह भी खड़ी हो जाएगी कि बड़ी मुश्किल से समाज के ग़रीब-वर्गों को यह ‘समझाया’ गया है कि ‘ग़रीबी और फ़टेहाली में ही तो असली ‘मॉडर्निटी’ और ‘फ़ैशन’ है; और फ़िर ‘नारायण’ (दरिद्रनारायण) भी तो ग़रीबी में ही बसते हैं |

और यदि पितृसत्ता व्यवसाय-जगत का उन्मुक्त समर्थन करती है तो उनके अपने ही बच्चे ग़रीबी और बदहाली के प्रतीक उन्हीं फ़टे-पुराने कपड़ों को पहनकर ‘फ़टेहाल-अवस्था’ में नज़र आने लगते हैं | लेकिन यह इतनी छोटी बात भी नहीं है, कि इसे इतनी आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सके; क्योंकि किसी भी एक पीढ़ी की मानसिकता निर्मित करने में सालों लगते हैं, लेकिन उसका असर कई पीढ़ियों तक बना रहता है; क्योंकि जब एक पीढ़ी की मानसिकता एक ख़ास रूप में एक ख़ास तरीक़े से सेट कर दी जाती है, तो वह ‘मानसिकता’ और ‘समझ’ एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी तक होती हुई अगली कई पीढ़ियों तक हस्तांतरित होती चली जाती है | इसमें कोढ़ में ख़ाज की तरह हुआ उनकी अपनी ही बहू-बेटियों का फ़टी-पुरानी जींस को ‘फ़ैशन’ एवं ‘आधुनिकता’ के नाम पहनना |

दुर्भाग्यवश यह तो इतिहास में दर्ज़ है कि भारत के वंचित-वर्गों की स्त्रियों को हमारा ‘सभ्य-सुसंस्कृत’ पितृसत्तात्मक समाज ‘नग्न-अवस्था’ में देखना पसंद करता है, क्योंकि इसमें उनको न केवल ‘मज़ा’ आता है, बल्कि इससे उन वंचितों-ग़रीबों को एवं उनके समाज को उनकी ‘औक़ात’ में रखने में भी मदद मिलती है |

यदि किसी को इस बात से आपत्ति हो, तो उसे भारत का इतिहास पढ़ना चाहिए, जहाँ यह दर्ज़ है कि भारत के कई इलाक़ों में (जैसे मालाबार, त्रावणकोर आदि) वंचित-वर्गों की स्त्रियों को अपने स्तनों को ढँकने का अधिकार नहीं था; अपने स्तनों के आकार के हिसाब से उनको ‘मूलाक्करम’ नामक ‘स्तन-कर’ देना पड़ता था, सो अलग | और यदि कोई स्त्री अपने स्तनों को ढँकने की कोशिश भी करती थी, तो उसके साथ क्रूरतम व्यवहार किया जाता था | त्रावणकोर की रानी अत्तिंगल ने अपनी दासी के स्तनों को केवल इसलिए कटवा दिया, क्योंकि उसने अपने स्तनों को ढँकने की कोशिश की थी | मंदिरों में किसी आयोजन पर अथवा राजा या सामंतों द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के दौरान इन दलित-स्त्रियों को अपने स्तनों का प्रदर्शन करते हुए मंदिर/कार्यक्रम-स्थलों के बाहर कतार बाँधकर खड़ी होना पड़ता था, ताकि पुजारियों, राजाओं, सामंतों और अन्य गणमान्यों को उनके स्तनों को देखकर ‘आनंद’ मिले |

लेकिन यही ‘सभ्य-समाज’ अपनी स्त्रियों को हमेशा कपड़ों के थान में लिपटी हुई देखना चाहता है | और आधुनिक-युग में ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ उलट गईं— वंचितों की स्त्रियाँ अपने शरीर को ढँकने लगीं, जबकि उनकी अपनी स्त्रियाँ आधुनिक कपड़े पहनकर अधिकाधिक ‘नग्न’ होती चली जा रही हैं

और यही है पितृसत्ता की समस्या ! इसी कारण ‘जींस’ नामक यह हथियार उसके लिए दुधारी तलवार की तरह बन गया, जिसकी एक धार स्वयं उसी ओर ही प्रहार करने को आतुर है; या साँप-छछुंदर की तरह, जिसे न तो उगलते बन रहा है, न निगलते |

‘जींस’ के मामले में फ़िलहाल धर्म उस पराजित योद्धा की तरह उसको कोसने तक सिमट गया है, जिसे अपनी जीत की कोई आशा ही नहीं दिखाई दे रही है…! फ़िलहाल तो वह केवल अँधेरे में तलवार भाँजने की कोशिश ही कर सकता है…

लेकिन व्यवसाय-जगत बेहद प्रसन्न है, निरंतर वृद्धिमान संभावित लाभ से अति-उत्साहित; उसके संभावित लाभ की मात्रा तरक्की करती जा रही है, जितनी मात्रा में जींस फ़टती जा रही है, उसी मात्रा में उसकी तिजोरी भी भरती जा रही है… दिन-दुनी रात-चौगुनी…!!!…

…भविष्य किसने देखा है…???!!!…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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2 thoughts on “व्यवसाय, धर्म और पितृसत्ता के बरक्स खड़ी फ़टी जींस

  1. विचारोत्तेजक लेख..!
    निश्चित भारतीय समाज बर्बर क्रूर अतिवादी जातिवादी है जिसे निरंतर ऐसे लेख से सभ्यता और आधुनिकता के करीब लाया जाना चाहिए

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