बतकही

बातें कही-अनकही…

घटना 19 सदी के त्रावणकोर (केरल) के हिन्दू रियासत की है | वहाँ की रानी अत्तिंगल की एक दासी एक दिन अपने शरीर के ऊपरी भाग, यानी स्तनों को ढँककर महल में अपना काम करने गई | रानी ने जब देखा कि उसकी अदना-सी दासी ने उच्च-वर्णीय समाज के बनाए नियमों का उल्लंघन करते हुए अपने स्तनों को ढँककर रखा है तो रानी अत्तिंगल के क्रोध की सीमा न रही और उसने राजकर्मचारियों को उस दासी के स्तनों को काट देने का आदेश दिया और कर्मचारियों ने उसके स्तन काट दिए…

इसी तरह एक विद्रोही दलित-स्त्री नांगेली द्वारा अपने स्तनों को ढँकने के एवज़ में राजकर्मचारी बलपूर्वक उससे ‘मूलाक्करम’ नामक ‘स्तन-कर’ (ब्रेस्ट-टैक्स) वसूलने आए, तो उसने उस अपमानजनक कर के विरोध में अपने दोनों स्तन काटकर केले के पत्ते पर रखकर कर-संग्रहकर्ता राजकर्मचारियों को दे दिए; इसके बाद उसकी मृत्यु हो गई और सदमे में उसके पति ने भी उसकी चिता पर कूदकर अपनी जान दे दी…

यह प्रश्न यहाँ क्यों उठाया गया? आज इसकी क्या प्रासंगिकता और आवश्यकता है…?…

…पिछले एक-डेढ़ दशकों से महिलाओं द्वारा फ़टी जींस पहनने को लेकर धर्म, संस्कृति, परंपरा, नैतिकता, के रक्षकों के बीच एक तकरार की-सी स्थिति बनी हुई है; जो आजकल राजनीतिक हलकों तक पहुँच गई है | लेकिन सोचनेवाली बात तो यह है कि किसी समय इसी भारत की धरती पर, जिसके उच्चवर्णीय पुरुषों का प्रतिदिन का मंत्र है कि ‘अजी हम तो नारियों की पूजा करनेवाली संस्कृति के लोग हैं और हमारा तो मूलमंत्र ही है— ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’, महिलाओं द्वारा कपड़े पहनने की इज़ाज़त के लिए भी लम्बा संघर्ष करना पड़ा है, कई कुर्बानियाँ देनी पड़ी हैं, नांगेली जैसी महिलाओं को प्राण भी गँवाने पड़े हैं, और आज भी उनका अपने शरीर पर ठीक से कपड़े पहनना उन्हीं महान संस्कृति-पुजारियों को कत्तई पसंद नहीं है…!

जी हाँ, हमारे देश में त्रावणकोर (केरल) सहित भारत के कई अन्य इलाक़ों में महिलाओं ने कपड़े पहनने के लिए बेहद रक्त-रंजित संघर्ष किए हैं और आज भी परोक्षतः कर ही रही हैं | इसी के साथ यह बात भी बड़ी ही असंगत-सी लगती है कि वर्तमान में बहुत-सी महिलाएँ अपने शरीर या अंगों को अधिक से अधिक प्रदर्शित करनेवाले कपड़े पहनना चाहती हैं, पहन रहीं हैं, छोटे-से छोटा, तंग-से तंग, अधिक से अधिक फटा हुआ…! लेकिन ये परस्पर विरोधी असंगति क्यों? क्या महिलाएँ कभी कपड़े पहनना चाहती हैं, और कभी नहीं…? अपने को ‘नग्न’ दिखाने और अपने शरीर को ढँककर रखने की माँग और इच्छा रखनेवाली महिलाएँ क्या एक ही वर्ग या समुदाय की हैं अथवा अलग-अलग…?

इसके लिए यह समझना जरुरी होगा कि जिन महिलाओं ने कपड़े पहनने के लिए संघर्ष किए, वे कौन थी? उनकी पहचान क्या थी? उनकी सामाजिक स्थिति क्या थी? और क्यों उनको कपड़े पहनने के लिए संघर्ष करना पड़ा? और यह भी देखना होगा कि वर्तमान सदी या पिछले तीन-चार दशकों में जिन महिलाओं ने कपड़ों से आजादी की मुहीम छेड़ रखी हैं, वे कौन हैं? उनको कपड़े पहनने से क्यों और क्या दिक्कत है…?

…दरअसल हमारी ‘सनातनी-संस्कृति’, ‘भारतीय परंपरा’ ‘उच्च-नैतिकता’, ‘स्त्री की गरिमा’, ‘महान आर्य संस्कृति’, ‘शालीन वस्त्र’ की दुहाई देती मानसिकता और इसका संरक्षण, संवर्द्धन एवं पोषण करती पितृसत्ता का वास्तविक चेहरा यही है— रक्त-रंजित, भयानक, अतिक्रूर, विद्रूप, दोहरा, अनेक मुखौटों वाला….! जिसका परिणाम हैं, ये दो विपरीत प्रकार की माँग करनेवाली स्त्रियाँ !

हमारी यह महान ‘सनातनी-संस्कृति’ उच्चवर्णीय-स्त्रियों, अर्थात् अपनी स्त्रियों को कपड़ों की गठरी बनाकर रखने की हिमायती है, जिनपर उनके अलावा और किसी की भी दृष्टि न पड़े; जबकि यही संस्कृति ठीक इसके विपरीत अपनी अधीनस्थ जातियों की स्त्रियों के प्रति एकदम विपरीत व्यवहार करते हुए उन्हें अधिक-से-अधिक नग्न रखना चाहती है, ताकि वे प्रत्येक पुरुष की वासनामय आँखों एवं हरकतों की शिकार बनें ! सवाल है कि क्यों?

दरअसल सभी पितृसत्तात्मक-समाजों में हज़ारों सालों के परिश्रम से अनेक ऐसी विधियाँ, तौर-तरीक़े, क़ायदे-कानून विकसित किए गए, जिनके माध्यम से परिश्रम करके तमाम साधन-संसाधन पैदा करनेवाले समाजों के स्त्री-पुरुषों के भीतर बहुत गहराई तक भय और आतंक के माध्यम से हीनभावनाओं का विकास किया जा सके, उनके आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान को पैरों तले रौंदते हुए धूलि-धूसरित किया जा सके; उनके सिर को हमेशा के लिए कुचला जा सके…! इसके माध्यम से प्रत्येक पितृसत्तात्मक-समाज का वर्चस्ववादी तबक़ा अपने ‘श्रेष्ठ’ और ‘महान’ होने के अहंकार की तुष्टि करता है और इन ग़रीब-वंचित वर्गों पर शासन करता है…!

उन्हीं में से एक है शरीर पर पहने जानेवाले कपड़े ! पिछले लेख ‘व्यवसाय, धर्म और पितृसत्ता के बरक्स खड़ी फ़टी जींस’ में एक घटना का ज़िक्र हुआ था, जिसमें कुशीनगर (उत्तरप्रदेश) के ‘साहियों’ ने एक ग़रीब-दलित व्यक्ति को केवल इसलिए अधमरा करके खेतों में फ़ेंक दिया था कि उसने नए साफ़-सुथरे कपड़े पहने थे | ठीक इसी प्रकार भारत के सभी भागों में ग़रीब वंचित-समाज के स्त्री-पुरुषों को, ख़ासकर स्त्रियों को यथाशक्ति अपने शरीर को ढँकने से रोकने की कोशिशें होती हैं; …आज भी…!

वस्तुतः पितृसत्ता अपने सामने समाज के ‘कमज़ोर’ वर्गों को नतमस्तक एवं दलित-दमित अवस्था में रखने के लिए जो विविध उपाय करती है, उसमें कपड़े प्रमुखता से शामिल हैं | और ‘स्त्रियाँ’ तो पितृसत्ता में ‘पुरुष’ की चिर-दासी’ हैं; चाहे वे किसी भी वर्ग, समाज, वर्ण, धर्म आदि की हों | इसका एक नमूना मिलता है दक्षिण भारत के अनेक पूर्ववर्ती रियासतों में, जिनसे संबंधित दो वास्तविक घटनाओं का ज़िक्र ऊपर हुआ हा | इन रियासतों में 19वीं सदी ख़त्म होने तक प्रत्येक समाज और वर्ण/जाति की स्त्री को अपने से उच्चवर्ण के पुरुष के सामने अपने स्तनों को खुला रखना पड़ता था | इस रूप में क्षत्रिय-स्त्रियाँ ब्राह्मण-पुरुषों के सामने अपने स्तन नग्न रखती थीं, जबकि दलित-वर्गों की स्त्रियों को समाज के सभी वर्गों के पुरुषों के सामने अपने को अर्द्धनग्न रखना पड़ता था | यह प्रथा दलित-पुरुषों पर भी लागू थी— अर्थात् दलित-पुरुषों को भी अपने शरीर के उपरी हिस्से को समाज के तथाकथित उच्चवर्णों के सामने अनिवार्यतः सर्वथा खुला रखना होता था | और पत्नी को अपने घर के भीतर अपने स्तनों को ढँकने का तो कत्तई अधिकार नहीं था, चाहे वह ब्राह्मण की स्त्री ही क्यों न हो, वह भी घर में रहते हुए अपने परिवार के पुरुषों के सामने अपने को उसी तरह अर्द्धनग्न रखती थी |

क्रूरता और पाशविकता की इन्तहा तो यह थी कि सभी ‘पुरोहित-महाराज’ इस प्रथा की कड़ाई से रक्षा और उसका पालन करवाने के लिए अपने हाथों में लम्बा-सा डंडा रखते थे, जिसके सिरे पर तेज़ धार का चाकू बंधा होता था; यदि कोई स्त्री, विशेषकर दलित-स्त्री, अपने स्तनों को किसी भी तरीक़े से ढँकने की रंचमात्र भी कोशिश करती थी, तो ब्राह्मण-महाराज उसी चाक़ू से दूर से ही उसके कपड़ों को फाड़ दिया करते थे और प्रायः ही दलित-स्त्रियों के स्तनों को सार्वजनिक रूप से काट भी दिया करते थे |

इसके अलावा स्त्रियों को अपमानित करने, या यूँ कहा जाय कि उन्हें उनकी ‘औक़ात’ में रखने के लिए ‘स्तन-कर’ (ब्रेस्ट-टैक्स) देना पड़ता था—‘मूलक्करम’; जिसकी मात्रा स्तनों के आकार के अनुसार बढ़ती जाती थी |

लेकिन दलितों की अनेक पीढ़ियों ने कपड़े पहनने के अपने मानवीय अधिकार के लिए सदियों तक लम्बी लड़ाइयाँ लड़ीं, सैकड़ों कुर्बानियाँ दीं, तब जाकर डरी हुई पितृसत्ता के पुजारियों ने अंग्रेज़ों के दबाव में उनको कपड़े पहनने की अनुमति दे दी | इसका एक उदाहरण है त्रावणकोर, जहाँ दलितों द्वारा राजमहल को घेरकर खड़ी दलित-प्रजा से भयभीत वहाँ के राजा ने मन मारकर 26 जुलाई 1859 के दिन दलित-स्त्रियों की मुक्ति, अर्थात् स्तनों को ढँकने की अनुमति के पत्र पर हस्ताक्षर किए !

लेकिन दलितों के कपड़े पहनने की लड़ाइयाँ जीतने एवं निःसंकोच कपड़े पहनने के कारण पितृसत्ता के पुजारियों के भीतर अपनी इस ‘पराजय’ से जो कलुषतापूर्ण मानसिक संताप व्याप्त कर गया, उसने कभी उनको चैन से जीने नहीं दिया और वे उन तमाम उपायों की जुगत में लग गए जिससे उन दमित-वंचितों को पुनः निर्वस्त्र किया जा सके, ख़ासकर उनकी स्त्रियों को |

लेकिन स्वाधीन भारत में लोकतंत्र और संविधान के शासन के कारण वर्चस्ववादी तबक़ों के सामने बड़ी चुनौती यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति को कपड़े पहनने से नहीं रोक सकता है | साथ ही, औपनिवेशिक-शासनकाल से ही पूरी दुनिया में औद्योगिकीकरण के कारण अच्छी मात्रा में सस्ते कपड़े बनने से सबके लिए ठीकठाक स्थिति के कपड़े उपलब्ध हो गए हैं, ख़ासकर यूरोप की सोलहवीं-सत्रहवीं सदी के दौरान आई औद्योगिक-क्रांति के बाद | तब वर्चस्ववादी-वर्ग क्या करें?

उनके पास एक उपाय के रूप में सदियों पुराना आजमाया यह विकल्प तो था ही कि वह वंचितों की आर्थिक-रीढ़ को इतना तोड़ दे कि उसके लिए सस्ते कपड़े भी दूर का सपना हो जाएँ और वह उसे भी न ख़रीद सकें; उन्होंने यह तरीक़ा अपनाया भी | लेकिन यह उपाय भी जब पर्याप्त रूप से कारगर नहीं हुआ, तब उन्होंने दूसरा तरीक़ा अपनाया— ‘फ़ैशन’ और ‘मॉडर्निटी’ के नाम पर उन्हीं ग़रीबों के फ़टे-पुराने कपड़ों को फ़िल्मों के नायक-नायिकाओं एवं आकर्षक मॉडल्स के माध्यम से, पत्र-पत्रिकाओं एवं विज्ञापनों आदि के द्वारा इतना बढ़ावा दिया गया कि वाकई में वंचित-ग़रीबों के नासमझ बच्चों ने, जो अशिक्षित होने के कारण दिन-दुनिया एवं वर्चस्ववादी-छल-प्रपंचों से अनजान थे, धीरे-धीरे अपने फ़टे-पुराने कपड़ों को ही ‘नया फ़ैशन’ और आधुनिकता का प्रतीक एवं ‘ट्रेंड’ मान लिया और संतुष्ट होकर उसी में ख़ुश भी रहने लगे |

लेकिन दुधारी तलवार की तरह उन सत्ताधारी वर्चस्ववादी-वर्गों की यही कुटिल रणनीति उन्हीं के गले की हड्डी बनकर उनके गले में ऐसी अँटक गई है कि वह निकलने का नाम ही नहीं ले रही है, क्योंकि उनकी महिलाओं और बच्चों के द्वारा वे ही फ़टे-पुराने, बदरंग, छोटे-छोटे तंग कपड़े बढ़-चढ़कर अपना लिए गए हैं | उनकी कपड़ों की गठरी बनाकर रखी गई महिलाओं ने उन फ़टे-पुराने, छोटे-छोटे कपड़ों को अपनी आज़ादी एवं मुक्ति का परचम बना लिया है; पीढ़ियों से हमेशा रेशम और रत्न से ढँके रहनेवाले उनके बच्चे घिसी, पुरानी-सी, बदरंग दिखनेवाली फ़टी हुई जींस पहनकर उसी भाँति ‘मानसिक बदहाली एवं ग़रीबी’ के प्रतीक दिखने लगे हैं, जो कभी बेबस वंचितों की नियति हुआ करती थी; अब वही ग़रीबी एवं फ़टेहाली उनके बच्चों का अपना ‘स्टेटस-सिम्बल’ बन चुकी है | इसीलिए अब पितृसत्ता के रहनुमा अपनी ही दुरभिसंधि के परिणामों से चिंतित हो उठे हैं !

किन्तु अब वर्तमान समय में चिंतित होकर प्रतिदिन ‘भारतीय परंपरा’, ‘सनातनी-संस्कृति’, ‘नैतिकता’, ‘स्त्री की गरिमा’, ‘महान आर्य संस्कृति’, ‘शालीन वस्त्र’ आदि की दुहाई देते हुए बलात्कारों एवं हिंसक भाषाओँ के माध्यम से ख़ूनी खेल खेलनेवाले लोगों, रहनुमाओं, ‘धर्म-रक्षकों’ एवं ‘संस्कृति के फरमाबरदारों’ को अवश्य उन आंदोलनों, संघर्षों और सदियों तक चले रक्त-रंजित इतिहासों को देखना चाहिए, जहाँ उनके ही पूर्वजों ने किस प्रकार समाज के एक बड़े हिस्से की स्त्रियों को कपड़े पहनने के अधिकार से सर्वथा वंचित कर रखा था; बल्कि उससे भी आगे बढ़कर इस ‘सनातनी-नियम’ का पालन करवाने के लिए ख़ूनी खेल रचा रखा था |

मौसूर के शासक टीपू सुल्तान को भले ही आज ‘उस विशेष घटना’ के लिए ‘हिन्दू-धर्म-संहारक’ के रूप में प्रचारित किया जाए, किन्तु इतिहास ने ‘उस सत्य’ को अपने सीने में छुपाकर रखा है और ‘समय’ को भी याद है कि टीपू सुल्तान को जब दलित-स्त्रियों को नग्न रखनेवाली उस ‘सनातनी-आर्यीय-प्रथा’ का पता चला, तो उसने अपने राज्य में दलित-स्त्रियों सहित सभी स्त्रियों को उन्मुक्त होकर अपने पूरे शरीर पर इच्छानुसार कपड़े पहनने का अधिकार दिया |

किन्तु वहाँ के ‘सबसे पवित्र’ समझे जाने वाले नम्बूदरीपाद ब्राह्मणों ने इसे अपने अधिकारों का उल्लंघन और अपना एवं अपने रीति-रिवाजों का अपमान माना और इसका विरोध करते हुए टीपू सुल्तान के विरुद्ध ख़ूनी सशस्त्र-विद्रोह कर दिया | जिसमें उन नम्बूदरीपाद ब्राह्मणों द्वारा ही वहाँ की दलित-आबादी के हज़ारों स्त्री-पुरुषों, बच्चों की खुलकर हत्याएँ की गईं, सैकड़ों स्त्रियों पर बलात्कार के बाद उनके स्तन काटे गए… इसके अलावा और भी बहुत कुछ…! तब इस विद्रोह से उस दलित-आबादी की जीवन-रक्षा के लिए और दलित-स्त्रियों के कपड़े पहनने के अधिकार के लिए टीपू सुल्तान ने अपने सैनिकों के माध्यम से उस ख़ूनी-ब्राह्मणीय-विद्रोह का दमन किया, जिसमें क़रीब 700 हत्यारे ब्राह्मण मारे गए…

इस घटना की वास्तविकता को आज भले ही सनातनी-पाखंडियों द्वारा चालाकी से छुपाकर यह कहा जाता हो कि ‘मुस्लिम शासक टीपू सुल्तान ने धर्म की रक्षा के लिए लड़नेवाले ब्राह्मणों की हत्या की, भले ही वे उस सच को छुपा लें कि अहंकारी पुरोहितों ने ‘धर्म’ एवं ‘परंपरा’ की रक्षा के नाम पर भारत की दलित-औरतों को निर्वस्त्र रखने की अपनी तथाकथित उच्चवर्णीय ज़िद एवं क्रूर सनक में अपने प्राण दिए, लेकिन इतिहास तो जानता ही है, उससे भी अधिक वहाँ की दलित-आबादी को अपनी पत्नियों, माँओं, बेटियों को निर्वस्त्र रखे जाने का वह घृणित षड्यंत्र याद है…

…भारत की वंचित-आबादी का एक बड़ा हिस्सा, ख़ासकर ग़रीब दलित एवं आदिवासी समाज, आज भी पर्याप्त कपड़े पहनने की परोक्ष लड़ाई लड़ रहा है, उन स्त्रियों को फ़टी आधुनिक जींस नहीं चाहिए, बल्कि तन ढँकने के लिए पर्याप्त एवं साफ़-सुथरे कपड़े चाहिए… उनके लिए तो ‘आधुनिकता’ और लोकतंत्र’ का यही अर्थ है…

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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