हल्द्वानी, उत्तराखंड का एक खूबसूरत शहर | जो उत्तराखंड में स्थित तीन प्रसिद्ध तालों भीमताल, खुरपाताल और नैनीताल से बस थोड़ी दूर पर ही स्थित है और काठगोदाम जिसका सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है | इसी शहर से दो शिक्षकों, वीरेंद्र कुमार टम्टा और डॉ. संदीप कुमार की ओर से वहाँ आयोजित होनेवाले ‘आंबेडकर जयंती’ समारोह में शामिल होने का स्नेह और आग्रह भरा निमंत्रण आया | दरअसल डॉ. संदीप कुमार (बलुवाकोट डिग्री कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत और एक लेखक भी) सोशल मीडिया के माध्यम से मुझसे जुड़े हुए हैं और वीरेंद्र कुमार टम्टा (देवद्वार, रामगढ़ ब्लॉक के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय के सहायक अध्यापक, अनुसूचित जाति जनजाति शिक्षक एसोसिएशन के जिला अध्यक्ष और आंबेडकर जयंती समारोह समिति के के मुख्य संयोजक भी) उनके परिचित हैं | हालाँकि मैं उक्त तारीख के दौरान किसी और काम से दिल्ली जानेवाली थी, लेकिन वीरेंद्र जी के आग्रह में इतना अपनापन था और उन्होंने लगभग आधे घंटे की बातचीत में इतने विस्तार और दिलचस्पी से मुझे वहाँ बुलाने की अपनी इच्छा और वंचित-समाज के लिए अपनी और अपनी टीम की कोशिशों के बारे में बताया कि मुझे अंत में अपना दिल्ली का कार्यक्रम स्थगित करके उनका निमंत्रण स्वीकार करना ही पड़ा |
वहाँ मैं अपनी माँ और छोटी बहन के साथ 14 अप्रैल को सुबह लगभग साढ़े ग्यारह बजे पहुँची | मुझे वहाँ दो बजे कार्यक्रम-स्थल पर उपस्थित होना था | कार्यक्रम में शामिल होने के बाद इतनी दिलचस्प और सराहनीय बातें पता चलीं, जिसने यह उम्मीद पैदा की कि वंचित-समाज इन बीते सालों में अब किस हद तक जागरूक, संघर्षशील और जुझारू हो चला है | उसने अपने मूलभूत मानव-अधिकारों, अपने स्वतन्त्र अस्तित्व, आत्मसम्मान आदि की रक्षा के लिए जैसे कमर कस ली हो !
मंच पर मुझे सुमित चौहान जी के साथ बिठाया गया, जिस कारण उनसे बातचीत करते हुए कई नई बातें और अनुभव हासिल हुए और साथ ही कई जानकारियों, जो अभी तक मैं अपुष्ट रूप से जानती थी, के पुख्ता और ठोस प्रमाण भी मिले | सुमित चौहान जी वंचित-समाज के एक ऐसे जुझारू कार्यकर्त्ता हैं, जिन्होंने अपने यूट्यूब चैनल ‘द न्यूज बीक’ (The News Beak) के माध्यम से पिछले कुछ सालों से वंचित-समाज के मुद्दों को उठाने और दुनिया के सामने लाने का काम शुरू किया है | साथ ही वे उन सकारात्मक घटनाओं को भी अपने चैनल के माध्यम से सामने लाते हैं, जो वंचित-समाजों के दिलों में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद पैदा करके उनके संघर्षों की सार्थकता और आवश्यकता के लिए उत्साह-सृजन का काम करती हैं और जो वंचित-समाजों के आत्म-विश्वास को जागृत करके उनमें आत्म-सम्मान की भूख को और अधिक विकसित करती हैं |
अन्य मंचासीन लोगों से पिछले 6 दिनों (9 अप्रैल से लेकर 14 अप्रैल तक, जिसमें 9 अप्रैल को प्रकांड विद्वान् राहुल सांकृत्यायन की जयंती थी, जिन्होंने बौद्ध-इतिहास पर गहन रिसर्च किया, 11 अप्रैल को ज्योतिबा फुले जंयती और 14 अप्रैल को डॉ. आंबेडकर जयंती) के कार्यक्रमों का विस्तृत ब्यौरा हासिल हुआ | उससे पता चला कि हल्द्वानी के उस छोटे-से इलाके के वंचित-समाजों ने अपने स्वतन्त्र अस्तित्व (अर्थात् मज़बूरी में सवर्णों की गुलामी करने और जी-हुजूरी करने से अपनी मुक्ति) और अपने मानव-अधिकारों के प्रति किस हद तक अपने-आप को और अपने समाज को भी जागरूक बनाने का काम किया है |
पहाड़ों की भीतरी दुनिया से अनभिज्ञ शेष समाज
वास्तव में पहाड़ों की दुनिया से बाहर रहनेवाले समाजों और मानव-समुदायों को, उसमें भी दिल्ली जैसे आधुनिक और विकसित शहरों के वाशिंदों को यह अनुमान सहज रूप से लगा पाना बहुत कठिन है कि भारत के इन भीतरी इलाको में रहनेवाले सनातनी-सवर्णों, अन्य तथाकथित उच्च-वर्गों और उनके समानांतर वंचित-समाजों की जीवन-स्थितियाँ और मनःस्थिति कैसी होती होगी? क्या सवर्ण-समाज भारत के हिंदी-पट्टी के अन्य इलाकों के सवर्णों की तरह ही जातीय-द्वेष से ग्रसित होता होगा या उसमें उदारता और मानवीयता की भावना बहुत गहराई से विद्यमान होती होगी? क्या वह सवर्ण-समुदाय भारत के मूल-निवासी दलित-आदिवासियों को भी अपने ही समान ‘मानव’ समझता होगा, अथवा उनके साथ अपने अन्य सजातीय-बंधुओं की तरह ही जातीय-घृणा से भरकर पेश आता होगा? इससे भी अधिक यह जानना चुनौतीपूर्ण है कि क्या पहाड़ों में निवास करनेवाले वंचित-समाज सवर्णों द्वारा प्रताड़ित होने और वंचित किए जाने की स्थिति में अपने अधिकारों को समझते होंगे? क्या वे उसके प्रति सचेत होंगे? क्या वे उनके लिए संघर्ष करते होंगे? यदि हाँ, तो उनके संघर्षों का स्वरूप क्या होता होगा?
हल्द्वानी के उक्त समारोह में शामिल होना इस कारण भी बहुत सार्थक रहा, क्योंकि वहाँ जाने के बाद मुझे इन प्रश्नों के उत्तर बहुत ही सीधे-सीधे जानने को मिले | दरअसल कुछ ही ऐसे मौके होते हैं, जब हम यह जान पाते हैं कि भारत का वह मूल-निवासी समाज, जो अपने ही देश में हमलावर-विदेशियों द्वारा सदियों से पीड़ित और वंचित किया जाता रहा है, शिक्षा जिसके लिए आज भी दूर की कौड़ी बनाकर रखी गई है, जिसको अन्धकार में पुनः धकेलने के लिए वह विदेशी वर्चस्ववादी-समाज लगातार कोशिशें करता रहा है; वह समाज इतनी बाधाओं और षड्यंत्रों के माहौल में क्या कर रहा है? क्या उसने हालातों के सामने घुटने टेक दिए हैं, अथवा आज भी अपने सघर्षों को कायम रखे हुए है?
पहाड़ों में जातीय-सच्चाई से सामना
पहाड़ों की दुनिया मेरे लिए उस समय तक लगभग अजनबी-सी ही रही थी, जब तक मैं उत्तराखंड में अजीम प्रेमजी फाउंडेशन में ‘शिक्षक प्रशिक्षक’ के रूप में नियुक्त होकर पौड़ी नहीं पहुंची थी | दरअसल जुलाई 2018 में ‘शिक्षक प्रशिक्षक’ (Teacher’s Educator) के रूप में चयनित होकर मैं पौड़ी पहुँची और तब धीरे-धीरे पहाड़ों का जीवन और वहाँ के समाजों की स्थिति को थोड़ा करीब से जानने के मौके मिले थे | शुरू में मुझे बहुत ज्यादा पता नहीं चला कि समाज की सतह के भीतर क्या चल रहा है, जो ऊपर से नज़र नहीं आता; जहाँ समाज के वंचित और गरीब हिस्से रहते हैं, जो वास्तविक परिश्रम करके समस्त संसाधनों का सृजन करते हैं | उन परिश्रमी, लेकिन वंचित-समाज के लोगों का वास्तविक हाल क्या है? क्या वे अपनी दयनीय स्थिति के प्रति सचेत हैं? क्या वे अपने बच्चों के बेहतरीन भविष्य के निर्माण के प्रति सजग हैं और उसके लिए कोशिश कर रहे हैं? वे जातीय-दंश झेलते हैं, या नहीं? यदि झेलते हैं, तो किन रूपों में? उस दंशों का उनके जीवन पर और सबसे अधिक उनके बच्चों के मनोविज्ञान, उनके भविष्य आदि पर क्या असर होता है? और यदि नहीं झेलते, तो क्या इस कारण कि वहाँ का सवर्ण-समाज बहुत अधिक मानवीय हो गया है और उसने मानवता के पक्ष में अपने-आप को खड़ा कर लिया है?
वास्तव में मेरे वहाँ पहुँचने के साथ ही शुरू में ही इन प्रश्नों पर उक्त ‘समाजसेवी’ संस्था के सवर्ण-कर्मचारियों द्वारा बड़ी सफ़ाई से पर्दा डाल दिया गया था; यह कहकर कि ‘पहाड़ों के लोग बहुत ही भले, देवता सरीखे, छल-कपट से दूर, घृणा और हिंसा से दूर रहनेवाले लोग हैं, जो महिलाओं की बहुत इज़्ज़त करते हैं, किसी भी कमजोर और गरीब को नहीं सताते, जातीय और धार्मिक विद्वेष कहीं दिखाई भी नहीं देगा |’ मैंने भी सहज रूप से उनकी बातों पर विश्वास कर लिया | लेकिन मुझे बहुत जल्दी ही पता चल गया कि उपरोक्त बातें वंचितों, ग़रीबों के व्यवहारों के बारे में तो पर्याप्त रूप से सही कही गई हैं और सवर्ण-समाज में भी अपने सजातीय-लोगों के बीच उपरोक्त बताए गए व्यवहार ही होते हैं; लेकिन यही एकमात्र सम्पूर्ण सत्य नहीं है | उपरोक्त बातें वंचित-समाज, खासकर दलित-वर्ग के साथ सवर्णों के व्यवहार और मानसिकताओं पर बिल्कुल लागू नहीं होतीं | मुझे जल्दी ही यह समझ में आ गया कि भारत के किसी भी कोने की तरह पहाड़ों में रहनेवाले सवर्णों के समाज का बहुलांश, मैदानी इलाक़ों में रहनेवाले एकदम अपने सजातीय-सवर्णों की तरह ही सोचता है, उन्हीं के जैसा व्यवहार करता है, वंचित-समाज, खासकर दलित-वर्ग के साथ उसका व्यवहार उतना ही क्रूर और अमानवीय है, वह दलितों की शिक्षा को, उनके आगे बढ़ने को, उनके अधिकारों को, जागरूकता को, संघर्षों को, उनके संघर्षशील नायकों को कत्तई पसंद नहीं करता और जी-तोड़ कोशिशें करता है कि किस तरह वंचित-समाजों को अधिक-से-अधिक हानि पहुँचाई जाए, उनके बच्चों को पढ़ने और भविष्य के सुन्दर सपने देखने से अधिक-से-अधिक कैसे रोका जाए |
पौड़ी जैसे भीतरी स्थान में लगभग मैं डेढ़ साल रही और इस दौरान उत्तराखंड के कई अन्य इलाक़ों (श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, रुद्रपुर, कोटद्वार, टिहरी, उत्तरकाशी आदि) में भी जाना हुआ | इस दौरान दो माध्यमों से मुझे पहाड़ी-जीवन की भीतरी परतों के अन्दर झाँकने और देखने-जानने के बड़े अच्छे और ठोस मौके मिले | एक तो उक्त संस्था के सवर्ण-कर्मचारियों के सवर्णीय-व्यवहारों एवं घृणित कोशिशों के माध्यम से तथा दूसरे सरकारी स्कूलों के सवर्ण अध्यापकों-अध्यापिकाओं के माध्यम से | इसके अलावा, वहाँ के रोजमर्रा के जीवन में समाज के लोगों के व्यवहारों और विचारों के जरिये भी इस सन्दर्भ में कई बातें पता चलीं |
सवर्णीय चेहरे हर जगह एक जैसे
उन डेढ़ सालों में मुझे संस्था में रहते हुए विभिन्न अवसरों पर दर्ज़नों सरकारी-स्कूलों में जाने के मौक़े मिले, अनेक शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बतौर ‘शिक्षक प्रशिक्षक’ शामिल हुई, इन सबके दौरान सैकड़ों अध्यापकों-अध्यापिकाओं से मिलने के मौक़े मिले, उनसे काफ़ी गहनता से बातचीत हुई, उनके विद्यालयों में वंचित-समाज के बच्चों के साथ उनमें से कईयों के व्यवहारों को भी मैंने अपनी आँखों से देखे | उसके बाद वहाँ के समाज की भीतरी तहों के बारे में मुझे जो बातें पता चलीं, उनमें सबसे दिलचस्प यह बात थी कि पहाड़ों में रहनेवाला वंचित-समाज सचेत हो या न हो, लेकिन वर्चस्ववादी सवर्ण-समाज केवल अपने वैध और नैतिक अधिकारों के प्रति ही सचेत नहीं है, बल्कि सदियों-सहस्त्रब्दियों से वह जिन अवैध और अनैतिक अधिकारों को भोगता रहा है, उन तमाम अवैध-अनैतिक अधिकारों में से एक-एक अवैध-अनैतिक अधिकार तक के प्रति बेहद सचेत है और उनको पुनः पाने की हर संभव कोशिशें येन-केन-प्रकारेण कर रहा है |
यहाँ तक कि मैं जिस ‘समाजसेवी’ संस्था ‘अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन’ की सदस्य बनकर वहाँ गई थी और जिसका दावा रहता है कि वह समस्त समाज, जिसमें वंचित-समाज भी शामिल है, की बेहतरीन और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की स्थापना के लिए ही प्रयासरत एक समाज-सेवी संस्था है; उस संस्था के सवर्ण-कर्मचारी भी इसके अपवाद नहीं हैं | अपनी ही आँखों से मैंने उक्त ‘समाजसेवी’ संस्था के कई सवर्ण-कर्मचारियों को सरकारी स्कूलों (सामान्य सरकारी स्कूल, न कि नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय आदि) के बच्चों (और यह तो अब किसी से छिपा नहीं है कि सरकारी स्कूलों में केवल वंचित-समाजों के बच्चे ही पढ़ते हैं, सवर्णों के बच्चे या तो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ते हैं, या नवोदय विद्यालय, केन्द्रीय विद्यालय जैसे विद्यालयों में, जिनपर सवर्णों ने एक तरह से अपना कब्ज़ा जमा रखा है, सवर्णों के केवल एक्का-दुक्का बच्चे ही सामान्य सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं) के मासूम सपनों की हत्या करते देखे, उन सरकारी-स्कूलों में बच्चे पढ़ न सकें, इसके लिए उनकी शिक्षा को बर्बाद करने की दर्ज़नों क़िस्म की तिकड़में लगाते देखे | इससे संबंधित अपनी डायरी के कुछ पन्नों को शीघ्र ही इसी ब्लॉग के माध्यम से साझा करने की कोशिश करूँगी, ताकि वंचित-समाज और सभी समाजों की महिलाएँ अपने शुभचिंतकों और हत्यारों में फर्क करना सीख सकें, यह देख और समझ सकें कि उनको किनसे सावधान रहना है और किनपर विश्वास करना है |
बदलते हालात में निरंतर सचेत होता वंचित-समाज
हल्द्वानी में मैं गणमान्य सज्जनों के साथ बैठी उनसे बातचीत करते हुए कई जानकारियाँ हासिल करती गई | पता चला कि उन छः दिनों में हल्द्वानी की वंचित-जनता ने बहुत ही अच्छी तरह से सवर्ण-समाज तक ये सन्देश पहुँचाने की कोशिश की कि आनेवाला समय अब उनका है, चाहे जितनी तिकड़में लगा ली जाएँ, चाहे जितने पैंतरे चले जाएँ, चाहे जितने षड्यंत्र रचे जाएँ; वंचित-समाज गिरते-पड़ते ही सही, लेकिन वह संभलना भी सीखता जाएगा, सवर्णों के हर षड्यंत्र और घृणित-कोशिशों का सामना करना भी जारी रखेगा और इसी तरह न केवल आगे बढ़ना जारी रखेगा, बल्कि अपने संघर्षों की धार को दिन-प्रतिदिन तेज करता भी जाएगा | और यह तो भविष्य का इतिहास बताएगा कि आनेवाला समय ‘रामराज्य’ का होगा, अथवा ‘भीमयुग’ का ! वह ‘रामराज्य’, जिसमें कोई महारानी तक सुरक्षित नहीं थी (रानी सीता का परित्याग और निष्कासन तथा अंत में उनके बच्चे छीनकर उनको आत्महत्या के लिए विवश किया जाना) और न ही वंचित-समाज को पढ़ने-लिखने की सजा मृत्यु (शम्बूक-हत्या) के अलावा कुछ और थी | अथवा वह ‘भीम-युग’, जिसमें आंबेडकर-निर्मित संविधान ने भारत के दलित या आदिवासी समाज की सबसे गरीब महिला के मानव-अधिकार भी केवल सबसे धनी ब्राह्मण-पुरुष से ही नहीं बल्कि भारत के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री से भी कत्तई कम नहीं होने दिए हैं |
इसके कुछ उदाहरण ही काफ़ी हैं, जिसे हल्द्वानी के उस विशाल समारोह के माध्यम से हल्द्वानी ने देखे और अपने हृदयों में दर्ज़ कर लिया; जो पूरे देश में चले हज़ारों-लाखों आंबेडकर-जयंतियों की कड़ी को उत्तराखंड की ओर से दर्ज करा रहे थे |
ब्राह्मणीय-प्रतिमानों को तोड़ने की कोशिश
छः दिन के इस विशाल कार्यक्रम में निकाली गई विशाल शोभा-यात्रा या रैली में घोड़ों पर कुछ वंचितों की सवारी सवर्णों को यह बताने के लिए प्रतीक रूप में निकाली गई प्रतीत होती है कि सवर्ण-समाज द्वारा दलित दूल्हों-दुल्हनों को घोड़ों और पालकियों पर चढ़ने से रोककर किया जाने वाला अहंकारपूर्ण अमानवीय व्यवहार बहुत दिनों तक सहन नहीं किया जाएगा | दलितों की बारात में शामिल लोगों को अकेला पाकर, उनमें शामिल बच्चों और स्त्रियों को मारने-पीटने और अपमानित करने का भय दिखाकर भले ही आज सवर्ण अपनी मनमानी कर लेते हैं; लेकिन जिस दिन दलित-वर्गों ने अपने इन डरों को छोड़ दिया और ‘करो या मरो’ के भाव के साथ सामने आने लगे, तब अल्पसंख्यक सवर्ण-समाज के अहंकार का क्या होगा? इसी कड़ी में ‘भीम-कारवाँ’ में शामिल बाइक-रैली वंचित-समाज के जीवन में केवल समृद्धि और आगे बढ़ने का प्रतीक ही नहीं बनी, बल्कि वह उसके जीवट और साहस को भी दर्शा रही थी | इसी तरह कुछ लोगों के हाथों में पारंपरिक हथियार सवर्णी-सत्ता की उस मनोवृत्ति को चुनौती दे रहे थे, जिसमें भोजन के साथ-साथ हथियार को भी वंचित-समाज से हजारों सालों पहले छीनकर उसे निहत्था करते हुए पंगु, लाचार और असहाय बना दिया गया था; ताकि वे ब्राह्मणों/सवर्णों के ख़िलाफ़ सशस्त्र विद्रोह न कर सकें |
इसके अलावा कुछ ऐसे भी महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय नज़ारे हल्द्वानी शहर ने देखे, जिसके ज़िक्र के बिना यह लेख कुछ अधूरा-सा लगेगा | हल्द्वानी में राजपुरा की दलित पार्षद श्रीमती राधा आर्य ने झाँकी की परेड में एक क्विंटल फूल का प्रबंध किया था, जिससे भीम-रैली के दौरान उस भीम-कारवाँ का स्वागत किया गया |
‘भीम-कारवाँ’ के सिपाहियों की विविधता
उस छः दिवसीय विशाल कार्यक्रम में सबसे महत्वपूर्ण थे, उसमें शामिल लोग | जिनमें बच्चे, स्त्रियाँ, बुजुर्ग उस कार्यक्रम की शान और जान थे; युवा पुरुष तो थे ही | दरअसल भारतीय-समाज में हर स्थान पर हर कार्यक्रम में प्रायः युवा और प्रौढ़ पुरुष ही प्रमुखता से छाए रहते हैं, लेकिन कोई भी कार्यक्रम तब बेहद खास और जीवंत हो उठता है, जब उसमें बच्चों, बुजुर्गों और स्त्रियों की बढ़-चढ़कर उपस्थिति और भागीदारी होती है |
सभा-स्थल पर मैंने अपनी आँखों से बड़ी संख्या में बच्चों को देखे, जो केवल मनोरंजन के उद्देश्य से नहीं आये थे; बल्कि ख़ुशी के माहौल के बीच भी दिखनेवाली उनके चेहरों की रेखाएँ और आते-जाते भाव कह रहे थे कि वे अच्छी तरह उस सत्य को समझते हैं, कि वे जिस समाज में पैदा हुए हैं, उस समाज के साथ कुछ ख़ास वर्ग के लोग जो बेहद अपमानजनक, क्रूर, अमानवीय बर्ताव करते हैं, वे ऐसा क्यों करते हैं | वंचित-वर्गों के उन बच्चों में से अधिकांश अपने-अपने स्कूलों में और आसपास भी अवश्य उन अपमानजनक और दुखदायक अनुभवों से गुजरते ही होंगे, इसलिए इस सन्दर्भ में उनकी समझ बनने के लिए किसी अतिरिक्त चीज की ख़ास ज़रूरत नहीं |
इसी तरह बड़ी संख्या में वंचित-समाज की स्त्रियों का इस समारोह में शामिल होना, वह भी हर आयु-वर्ग की, यह जाहिर कर रहा था कि बहुसंख्य सवर्ण-स्त्रियों की ‘रामराज्य’ की स्थापना की कोशिशों के विपरीत, वंचित-समाज की महिलाएँ न केवल अपने और अपने समाज के अधिकारों के प्रति सचेत होने और संघर्ष करने की ओर तेजी से अग्रसर हो रही हैं, बल्कि वे अपने समाज के इतिहास, वर्त्तमान और भविष्य को लेकर जागरूक भी हो रही हैं | उनमें बच्चियाँ, किशोरियाँ, युवतियाँ, प्रौढ़ाएँ, वृद्धाएँ शामिल थीं |
यहाँ एक बात का उल्लेख अवश्य ज़रूरी है कि उस सभा-स्थल पर मंच पर से मेरी नज़र सामने बैठे जन-समूह को जहाँ तक देख पा रही थी, उसमें कम-से-कम एक दर्जन ऐसे बुजुर्ग स्त्री-पुरुष नज़र आये, जो ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे, न ठीक से खड़े हो पा रहे थे; इसके बावजूद वे उस जन-सभा में शामिल होने के लिए आए था | उनमें से शायद पति-पत्नी की तीन-चार जोड़ियाँ भी थीं, जो मेरे देखते-देखते ही एक-दूसरे को सहारा देते हुए आकर अपनी-अपनी सीटों पर बैठी | ज़ाहिर-सी बात है कि वे किसी मौज-मज़े के लिए नहीं आए थे, बल्कि अपने वंचित-समाज के प्रति उनकी चेतना और कर्तव्यबोध ही उस वृद्धावस्था की असक्तावस्था में भी उन्हें वहाँ तक ले आया था |
यह वंचित-समाज के लिए बड़े ही गर्व की बात है कि उसका वृद्ध-हिस्सा, लेकिन जीवन के बहुत सारे अनुभवों से समृद्ध, उसके साथ खड़ा था | आज वास्तव में इसी की ज़रूरत है कि वंचित-समाज अपने हर हिस्से को लेकर आगे बढ़े | क्योंकि वंचित-वर्गों के पास चाहे पर्याप्त धन, अवसर, शिक्षा आदि भले न हो, लेकिन उसका मानव-संसाधन बेहद समृद्ध है | जिस दिन वंचित-समाज अपने मानव-संसाधनों के प्रत्येक हिस्से को पर्याप्त महत्त्व और सम्मान देते हुए उनका सही तरीके से उपयोग करना सीख गया, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक, उस दिन से उसे अन्य धन-संसाधनों की उतनी ज़रूरत नहीं पड़ेगी, या कम-से-कम धन के अभाव में उसका संघर्ष और आन्दोलन रुकेगा नहीं और न कमज़ोर पड़ेगा |
फ़टी जींस नहीं, बेहतरीन कपड़ों में सजा वंचित-समाज
और… जिस तरह वंचित-समाज द्वारा अपने समारोह में अपने समाज के सभी हिस्सों को शामिल किया जाना सुकून की बात थी, उतने ही सुकून की बात थी, वहाँ उपस्थित सभी लोगों द्वारा सुन्दर, साफ़-सुथरे और बिना फटे कपड़े पहने हुए उस सभा में आना | वास्तव में भारत-भर में अब बदलते माहौल में जहाँ-जहाँ भी वंचित-समाज में यह प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है, वह एक अलग कहानी लिखने की शुरुआत हो सकती है | हल्द्वानी के उस समारोह में भी किसी भी बच्चे या युवा ने फ़ैशन की चकाचौंध में किसी भी तरह की फटी हुई जींस या फ़टे टी-शर्ट जैसे कपड़े नहीं पहने थे | शायद यह बात एक संयोग हो, अथवा सचमुच में वंचित-समाज यह समझने लगा हो कि उनके पूर्वजों ने तो हज़ारों सालों से फ़टे-पुराने, रंग उड़े या बदरंग कपड़े ही पहने हैं, क्योंकि उनको अच्छे कपड़े पहनने से रोका गया है और वर्तमान में भी फैशन के नाम पर जानबूझकर इस समय फ़टे तथा रंग उड़े कपड़े वंचित-समाजों के बीच पॉपुलर किया गया है |
जो भी हो, लेकिन वहाँ आए सभी लोग अपने रंग-बिरंगे, साफ़-सुथरे और बिना कटे-फ़टे कपड़ों में डॉ.आंबेडकर के उस आदेश को अपने जीवन में उतारते नज़र दिख रहे थे, जिसमें आंबेडकर ने कहा था “अपने पूर्वजों की तरह चीथड़े लपेटना बंद करो !…”
‘देवताओं की भूमि’ का सत्य
इसके बाद उस विशाल जन-सभा में आमंत्रित किए गए अतिथियों को जब बोलने का मौक़ा दिया गया, तो सुमित चौहान जी ने अपनी कही गई बातों में न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों में होने वाली विविध दुखद घटनाओं का हवाला देकर यह बताया कि किस तरह सुनियोजित ढंग से वंचित-वर्गों को निशाना बनाया जा रहा है, बल्कि उन्होंने उत्तराखंड को ‘देवताओं की भूमि’ कहे जाने की पोल भी खोली— “इस जमीन को… जो आप दिखाते हैं कि यह देवताओं की जमीन है, देवताओं के राज में जो हमारे लोगों के साथ शोषण हो रहा है, उसकी बात भी करनी होगी ! आप सिर्फ अपने हिस्से की बात कह के, आप सिर्फ अपनी कहानियाँ बता के, आप अपने नृत्य और गीत पेश करके, टूरिज्म की बातें करके कहते हैं कि सबकुछ यहाँ पर अच्छा है? वो हमें मंजूर नहीं है ! हमारे लोगों की पीड़ा भी सामने आनी चाहिए, हमारे लोगों की हक मारी (अधिकार छीनने की बात) को भी सामने आनी चाहिए ! …हमारा यह कार्यक्रम, यहाँ केवल बाबा साहेब का जन्म-दिवस ही नहीं मनाया जा रहा है, बल्कि हम यहाँ अपने साथ हो रहे अन्याय पर भी बात कर रहे हैं |”
सुमित चौहान ने कई ज्वलंत प्रश्न भी उठाए और यह बताया कि कैसे सवर्ण-समाज अपने छोटे-छोटे बच्चों को शैशव-उम्र से ही जातीय दुराग्रह करना सिखाता है— “किसने अपने बच्चे को सिखाया होगा कि स्कूल में जब तुम्हारी (दलित) कुक (भोजनमाता) तुम्हारे लिए खाना बनाएगी, तो तुम उसे खाने से मना कर देना | पाँच साल, सात साल, दस साल का बच्चा (दलित भोजनमाता से) कहता है कि ‘मैं तुम्हारे हाथ का खाना नहीं खाऊँगा’ ! उसको यह सिखाने वाले उसके माँ-बाप उसको गोमूत्र पिला रहे होंगे, उसको गोबर खिला रहे होंगे ! लेकिन एक व्यक्ति का, एक इन्सान का, एक मानव का बनाया हुआ खाना खिलाने से उनको रोक रहे हैं ! ऐसे घटिया लोगों की मानसिकता, ऐसे जातिवादी लोगों की मानसिकता पूरी दुनिया ने देखी है…!”
आत्म-विश्वास का परिणाम है योग्यता
और जब मुझे मंच से जन-सभा को संबोधित करने का मौका मिला, तो मैंने बहुत कम समय होने के कारण संक्षेप में कुछ बातें कही | वास्तव में मैं जहाँ भी जाती हूँ, बच्चों से बातचीत के दौरान कोशिश करती हूँ कि उनके सपनों पर बात करूँ, उनके मन के किसी कोने में परिस्थितियों की मार खाकर सो चुके सपनों को हलकी-सी थपकी देकर जगा दूँ, उनके आत्म-विश्वास को अधिक-से-अधिक जागृत करने की कोशिश करूँ | इसलिए मैंने कहा कि “सवर्ण-बच्चों में यदि कोई ख़ास योग्यता नहीं भी होगी, पढ़ने में कोई ख़ास मन नहीं भी लगता होगा, उनमें कोई ख़ास क्षमता नहीं भी होगी; तो भी वे केवल अपने अत्यधिक आत्म-विश्वास के बल पर आगे बढ़ जाते हैं | जबकि हमारे बच्चों में किसी भी योग्यता की कमी नहीं होती है; उनमें भी योग्यता उतनी ही होती है, जितनी सवर्णों में | जब प्रकृति ने मनुष्य को बनाया तो उसने ऐसा नहीं कहा कि ‘यह ब्राह्मण का बच्चा है, तो इसको योग्यता ज्यादा देंगे; ये दलित का बच्चा है या आदिवासी का बच्चा है या शूद्र का बच्चा है, तो इसको योग्यता बहुत कम देंगे या नहीं देंगे !’ प्रकृति ने ऐसा नहीं किया (प्रकृति ने न तो सनातनी-सवर्णों को अधिक काबिलियत दी और न ही दलित, आदिवासी या शूद्र समाज के लोगों को कम काबिलियत दी); बल्कि योग्यता तो सभी को उसने बराबर ही दी | तब अंतर कहाँ से आना शुरू हुआ? हमारे बच्चों का आत्म-विश्वास ख़त्म होना कहाँ से शुरू हुआ? ख़त्म उससे हुआ, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे साथ हुआ | ….सनातनी-समाज वंचित-समाज के आत्म-विश्वास को एकदम बचपन से ही कुचलकर, उसको प्रताड़ित-अपमानित करके, उनके सपनों की हत्या बड़ी ही चतुराई से ही करना शुरू कर देता है | इसलिए यदि सवर्णों के बच्चों में कम योग्यता भी होती है, तो भी केवल अपने आत्मविश्वास के बल पर वे वंचित-बच्चों की तुलना में आगे बढ़ जाते हैं और वंचित-समाज के बच्चे पिछड़ जाते हैं |”
अन्य वक्ताओं ने भी बहुत जोर-शोर से वंचित-समाज को आगे बढ़ने और अपने संघर्षों को लगातार ज़ारी रखने का आह्वान किया | अंत में मंच पर सभी वक्ताओं द्वारा बहुजन आन्दोलन को नए स्तर तक ले जाने के अपने दृढ़-संकल्पों को जाहिर किया | इस पूरे कार्यक्रम के दौरान सभा-स्थल पर रह-रहकर और पूरे जोश के साथ ‘जय भीम’ का नारा ज़ोर-शोर से लगाते लोग अपनी भविष्यगत मंशा और साहस का परिचय दे रहे थे |
इतिहास बड़ी तेज़ी से करवट ले रहा है…
—कनक लता
आपका यह लेख ऐतिहासिक होगा।
धन्यवाद मैडम हल्द्वानी को समय देने के लिए।
शुक्रिया आप सभी का संजय जी, मुझे आप सबके बीच आने का अवसर देने के लिए