बतकही

बातें कही-अनकही…

‘जींस’ को लेकर चंद महीनों पहले ही उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री का वह सार्वजनिक बयान तो सबको याद ही होगा, जिसमें वे किसी महिला द्वारा फ़टी हुई जींस पहने जाने को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज़ कर रहे थे और जिसपर विवाद खड़ा हो गया था ! यहाँ बात उसी ‘जींस’ की हो रही है |

‘जींस’ वह वस्त्र है, जो यूरोप में पैदा हुई | दरअसल यूरोप में आए ‘नवजागरण’ और उसके परिणामस्वरूप विकसित हुए औद्योगीकरण से इस जींस के जन्म का बहुत गहरा सम्बन्ध है; जहाँ कल-कारख़ानों में काम करनेवाले श्रमिकों के लिए मोटे खुरदरे कपड़ों से बनी जींस को ईजाद किया गया, जो कारख़ानों में लगातार बहुत अधिक परिश्रम वाला काम करने के बावजूद जल्दी घिसती और फ़टती नहीं थी | यह समाज में कब और कैसे प्रचलन में आई, इसे कौन लाया और क्यों, इसपर मेरा एक विस्तृत लेख समयांतर पत्रिका (संपादक पकज बिष्ट) के मई 2021 के अंक में छपा है, ‘दरिद्रनारायण’ की फ़टी जींस’ के नाम से |

यहाँ उस लेख से आगे इस बिंदु पर चर्चा होगी कि यह जींस महिलाओं, ख़ासकर लड़कियों द्वारा पहने जाने पर क्यों और कैसे ‘संस्कृति-रक्षकों’ को चिंतित कर रही है |

वैसे तो जींस अन्य वस्त्रों की ही तरह एक मामूली-सा वस्त्र है, लेकिन केवल पुरुषों के लिए ! लेकिन जब यही जींस महिलाओं द्वारा पहनी जाती है, तब यह न तो मामूली रह जाती है, और न केवल एक वस्त्र-मात्र ! लेकिन ऐसा क्यों? क्यों एक ही कपड़ा पुरूषों के संबंध में सामान्य बात है, जबकि महिलाओं के संबंध में असामान्य बात…?

इसे समझना हो, तो आप जींस पहनी हुई सड़क पर चलती किसी लड़की को ज़रा ध्यान से देखिए | क्या आपको वह एक अलग क़िस्म के आत्म-विश्वास से भरी दिखाई नहीं देती…!?

यह एक तथ्य है कि जब लड़कियाँ जींस पहनकर सड़क पर चलती हैं, तो छेड़खानी करनेवाले पुरुष उनके साथ कोई भी दुव्यवहार करने के पहले कम-से-कम दो-तीन बार तो सोचते ही हैं, क्योंकि वे यह मानकर चलते हैं कि यदि उन्होंने उनके साथ कोई भी बेहूदा हरकत की, तो जींस पहनी हुई वे आत्म-विश्वासी लड़कियाँ उन पुरुषों के मुँह पर सैंडल पहने हुए अपने पैरों से प्रहार भी कर सकती है, खींचकर एक ज़ोरदार थप्पड़ भी रशीद कर सकती है | लेकिन यही आत्म-विश्वास सलवार-कमीज़ पहनी सहमी-सिकुड़ी लड़कियों में अक्सर नहीं दिखाई देती ! ऐसा क्यों और किस तर्क से कहा जा सकता है?

हालाँकि यह अनिवार्य नहीं है कि सलवार-कमीज़ या साड़ी पहनी हर महिला आत्म-विश्वास से रहित हो, या हर जींस पहनी हुई लड़की आत्म-विश्वास से भरपूर हो; लेकिन एक सामान्य तथ्य एवं सत्य तो यही है, जिसका बहुत गहरा संबंध उन वस्त्रों के प्रति सामान्य सामाजिक समझ से है |

हम उन दोनों तरह के वस्त्र पहननेवाली लड़कियों के व्यवहार को देखकर उस सत्य और तथ्य को समझ सकते हैं ! सलवार-कमीज या साड़ी पहनी महिलाएँ किसी बड़े संकट के समय भी, जैसे किसी गुंडे द्वारा छेड़खानी किए जाने पर, अपनी शर्म और संकोच को छोड़कर अपने पैरों से उन पुरुषों पर प्रहार नहीं कर सकतीं | क्योंकि उनको यही समझाया गया है कि अपने पैरों को एक सीमा के बाद खोलना ‘संस्कारों’ के विरुद्ध है, जिसका अभ्यास उनको सालों के दौरान घर से लेकर समाज, यहाँ तक कि उनके स्कूलों में भी जाने-अनजाने में करवाया गया है | सिमोन दा बोउआ अपनी विश्व-प्रसिद्द पुस्तक ‘द सेकेण्ड सेक्स’ (अनुवाद ‘स्त्री-उपेक्षिता’, प्रभा खेतान) में इस प्रवृत्ति पर विस्तारपूर्वक बात करती हैं कि कैसे दुनियाभर के पितृसत्तात्मक-समाजों में लड़कियों को बचपन से सिखाते हुए उनके दिमाग़ में अच्छी तरह कुछ बातें बिठा दी जाती हैं— जैसे अपनी टाँगों को सिकोड़कर बैठो, छोटे-छोटे क़दमों से चलो, तेज़ मत चलो, अपने पैरों को खोलो मत, अपनी आवाज़ धीमी रखो, ऊँची आवाज़ में मत बोलो, आज्ञाकारी बनो, किसी से प्रतिवाद मत करो. आक्रामक मतों बनो, परिवार की प्रतिष्ठा को अपने जीवन से अधिक मूल्यवान समझो …आदि ! किन्तु पुरुषों को इनमें से कोई ‘संस्कार’ नहीं सिखाया जाता है |

संस्कारों के इस खेल को आप महिलाओं और पुरुषों के बैठने के अंदाज़ या तरीक़ों से भी समझ सकते हैं | परिपक्व महिलाओं की बात छोड़िए, प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ती छोटी-छोटी बच्चियाँ भी अपने पैरों को सिकोड़कर बैठी हुई ही आपको मिलेंगी; जबकि लड़के उन्मुक्त भाव से किसी भी स्थिति में बैठे हुए | आप बसों, ट्रेनों, सार्वजनिक स्थानों पर पुरुषों को अपनी टाँगें भरपूर फैलाकर बैठे देखेंगें, जबकि वहीं पर महिलाएँ सिमटी-सिकुड़ी अपने घुटनों को आपस में चिपकाए बैठी मिलेंगी…!

और इन्हीं ‘संस्कारों’ के बीच पली, आत्म-विश्वास से रहित, सलवार-कमीज़ या साड़ी में ‘सलीक़े’ से ‘लज्जा’ की प्रतिकृति बनी, अपने परिवार की सामाजिक-गरिमा का भार ढोती हुई अपने-आप में सिमटी-सिकुड़ी गठरी बनकर रहनेवाली महिलाएँ किसी गुंडे द्वारा छेड़खानी या रेप की कोशिश किए जाने पर भी अपने पैर उठाकर उनपर प्रहार नहीं कर सकतीं, न ही अपने हाथ उठा पाती हैं ! किन्तु जब किसी जींस पहनी हुई लड़की पर ऐसा संकट आता है और उसमें तनिक भी साहस होगा, तो उसे अपनी टाँगों को उठाकर उन पुरुषों के मुँह पर भी अपनी सैंडल का प्रहार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होगी, क्योंकि जींस न केवल इसके अनुकूल है, बल्कि वह इसकी अनजाने में ही परोक्ष रूप से अनुमति भी देती है और इसकी वक़ालत भी करती है ! और इस रूप में यह ‘जींस’ महिलाओं के लिए उनके ऊपर थोपी गई जबरदस्ती की शर्म, झिझक, संकोच, भय, बंधन आदि से मुक्ति का प्रतीक बनकर उभरी है !

निवेदिता मेनन अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘नारीवादी निगाह से’ में लिखती हैं— “(एक) कार्यशाला में अध्यापिका कह रही थी कि लड़कियों के साथ यौन-उत्पीड़न की घटनाएँ इसलिए होती हैं क्योंकि वे जींस पहनती हैं | इसपर (एक) उस लड़की ने, जो ज़ाहिर तौर पर उच्चवर्ग से सम्बन्ध नहीं रखती थी, हिन्दी में जवाब देते हुए कहा था कि उसके साथ यौन-उत्पीड़न की घटना तब ज़्यादा घटित होती है, जब वह जींस के बजाय सलवार-कमीज़ में होती है | उसका आकलन क्या कहता है? यही कि जब वह सलवार-कमीज़ में होती थी तो लोग उसे सीधी-सादी और दब्बू मान बैठते थे, लेकिन जब वह जींस पहनकर निकलती थी, तो आत्मविश्वास से लबरेज और दबंग नज़र आती थी, लिहाजा उसपर हाथ छोड़ने से पहले किसी को भी दो बार ठहरकर सोचना पड़ता था !” (पृष्ठ-143, निवेदिता मेनन, ‘नारीवादी निगाह से’)

कहने का तात्पर्य यह कि ‘जींस’ नामक यह वस्तु महिलाओं और पुरुषों, दोनों के विचारों एवं मनोभावनाओं को प्रभावित करती हुई उनके व्यक्तित्व में परिवर्तन की ओर उन्मुख होती है— स्त्री को स्वयं उसकी अपनी ही समझ में ‘दब्बू’ से ‘दबंग’ बनाती है और इसके परिणाम में उनमें एक अंश में आत्म-विश्वास और साहस भरती है, जबकि स्त्री की उसी ‘दबंगता’ के प्रदर्शन के माध्यम से पुरुष को उस ‘दबंगता’ से भयभीत भी कर देती है ! और नतीज़ा…? नतीज़ा होता है, ‘जींस’ पहनी महिला का किसी भी आपात-संकट से निपटने के लिए मनोवैज्ञानिक-भावनात्मक रूप से तैयार हो जाना और पुरुष का उस महिला से एक अंश में भयभीत होकर कोई भी हरकत करने से पहले कई बार सोचने को मजबूर होना !

और यही है वह समस्या, वह बिंदु, वह संकट, जिससे निपटने के लिए पुरुष ‘जींस’ को महिलाओं के मामले में ‘संस्कृति पर हमले’ के रूप में समाज की निगाह में प्रचारित करता है | पहले जहाँ वह पारंपरिक रूप से थान-भर कपड़े पहनकर सिमटी-सिकुड़ी रहनेवाली किसी भी महिला के साथ कोई भी हरकत कभी भी और कहीं कर लेता था, चाहे ‘अपने पुरुषत्व’ के अहम् की संतुष्टि के लिए अथवा उस महिला (और उसके समुदाय) को नीचा दिखाने के लिए; लेकिन वही आज़ादी अब उससे छिनने लगी, जब जींस पहनकर आत्म-विश्वास और साहस से भरी महिलाएँ ऐसे पुरुषों के ‘पुरुषोचित’ व्यवहारों का आक्रामक उत्तर देने को प्रस्तुत होने लगीं (ध्यान रहे तथाकथित निम्न तबक़े का पुरुष तथाकथित उच्च तबके की स्त्रियों के साथ यह करने से परहेज़ करता है, वह या तो अपने तबक़े अथवा अपने से कमज़ोर तबक़े की महिलाओं को शिकार बनाता है; सभी महिलाओं को केवल दबंग तबक़े के पुरुष ही साधिकार अपना शिकार समझते हैं) |

तब प्रश्न उठाया जा सकता है कि माता-पिता फ़िर क्यों अपनी बेटियों द्वारा जींस पहनने पर आपत्ति करते हैं? इस प्रश्न पर चर्चा किसी अन्य लेख में…

अस्तु, जब एक बार महिलाओं ने साहस करने एवं अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करने की शुरुआत कर दी, तो यह यात्रा उनको अपने जीवन में और अपने व्यक्तित्व में कहाँ तक और किन ऊँचाईयों तक ले जा सकती है, ये बात स्त्रियाँ समझें या न समझें, लेकिन पितृसत्ता और उसके रक्षक, जो वस्तुतः ‘संस्कृति-रक्षक’ के चोले में दिखाई देते हैं, इस बात को खूब भली-भाँति समझते हैं |

पितृसत्ता और उसमें पला पुरुष यह जानता है कि जिस दिन महिलाओं को इन छोटी-छोटी बातों पर हिम्मत करने, साहस दिखाने का एवं छेड़खानी करते पुरुषों पर प्रहार करने का मामूली-सा अधिकार भी दे दिया गया, तो यह मामूली-सी बात कहाँ तक विस्तारित होगी ! तब तो न केवल घर एवं बाहर, दोनों जगहों पर, महिलाएँ न केवल स्वतन्त्र रूप से चिंतन करने लगेंगीं, बल्कि उस चिंतन का प्रयोग भी करने लगेंगीं | इससे पुरुषों की गलतियों पर वे न केवल उँगली उठाएँगी, बल्कि उनको सार्वजानिक रूप से दण्डित भी करने लगेंगीं; उनकी अनेक नाजायज़ आपत्तियों पर प्रश्न उठाने लगेंगीं; उनके दोमुहें व्यवहारों एवं क़ायदे-कानूनों पर ज़वाब तलब करेंगीं…!

ऐसे में तो बहुत शीघ्रतापूर्वक समाज में पुरुषवादी पितृसत्ता के सभी स्तंभ एक-एक करके ध्वस्त होने लगेंगें ! समस्त स्त्रियों पर पितृसत्ता का एकान्तिक नियंत्रण और मुट्ठीभर वर्चस्ववादी पुरुषों का एकाधिकार, जिसे पिछले पाँच-छः हज़ार वर्षों के प्रयत्नों से स्थापित किया गया है, उन स्त्रियों द्वारा ही बहुत शीघ्र उखाड़ फ़ेंक दिया जाएगा, उसका क्या होगा…? जो सामाजिक ताना-बाना उन्हीं पिछले पाँच-छः हज़ार सालों में बुना गया है, जिसमें समाज के परिश्रमी वंचित-वर्गों को नीचा दिखाकर उनपर अपनी श्रेष्ठता की धौंस जमाई गई है और उनके परिश्रम से अर्जित समस्त साधनों-संसाधनों को उनसे बलपूर्वक और साधिकार छीन लिया जाता है या विविध धार्मिक-तरीक़ों से हड़प लिया जाता है, वह जातीय ताना-बाना तो तिनके की भाँति बिखर जाएगा…!? महिलाएँ अपनी बुद्धि का प्रयोग करने पर जब यह बात समझने लगेंगीं कि जाति, धर्म, नस्ल आदि का यह ताना-बाना कितना कुटिल है, और यह समझकर जब वे इन तमाम बंधनों को धता बताते हुए उन्मुक्त भाव से निर्द्वंद्व प्रेम करने लगेंगीं; तब पितृसत्ता में ‘अक्षत-योनि पवित्र कन्याओं’ से पुरुष का विवाह और उससे ‘अपनी संतानों’ की सुनिश्चितता का क्या होगा? स्त्रियों द्वारा उन्मुक्त प्रेम करने के कारण जाति-व्यवस्था के ध्वस्त हो जाने से तथाकथित उच्चवर्गों/वर्णों की रक्त की शुद्धता का क्या होगा?

इसी कारण अपनी पुरुषवादी मानसिकता एवं व्यवस्थाओं की रक्षा के लिए उन वस्त्रों की वक़ालत करता है, जो वस्त्र महिलाओं को उनके जीवन के अँधेरों से बाहर न निकाल सके | इससे महिलाएँ सदैव ही उसके लिए ‘मुफ़्त का माल’ बनी रहेंगी जिनका वह कभी भी, कहीं भी उपभोग कर सकेगा; और ‘विवाह’ के दायरे में ‘अक्षत-योनि-कन्याओं से ‘अपनी औरस की संतान’ पैदा कर सकेगा; जिससे उसकी नस्ल की ‘शुद्धता’ बची रहेगी | इसके लिए ही वह महिलाओं की आज़ादी की प्रतीक ‘जींस’ का विरोध करता है एवं उसके समानान्तर साड़ी और सलवार-कमीज़ का समर्थन |

लेकिन एक प्रश्न और उठता है, कि क्या ‘भारतीय परिधान’ जैसे सलवार-कमीज़ और साड़ी वाकई में स्त्रियों के लिए बंधन की तरह हैं, या यह भी एक पूर्वाग्रह है?

इसे समझने के लिए हमें हमारे पूर्वज ‘संस्कृति-रक्षकों’ द्वारा बनाए या निर्धारित किए गए उन वस्त्रों की ओर बहुत गौर से देखना चाहिए, जो महिलाओं और पुरुषों के लिए बनाए गए हैं | आपको क्या दिखाई देता है? क्या आपको यह नहीं दिखाई देता कि पुरुषों के कपड़े तुलनात्मक रूप से काफ़ी आरामदायक बनाए गए हैं, लेकिन महिलाओं के कपड़े इस प्रकार के हैं कि वे आसानी से अपने हाथ-पैर भी नहीं हिला सकतीं, सहजतापूर्वक चल-फिर नहीं सकतीं | उसके ऊपर से आकर्षक ‘आभूषणों’ को उनके शरीर पर लादकर इस असहजता और गतिहीनता या असुविधा को और अधिक बढ़ा दिया जाता है | और इसके बाद भी जो कसर रह जाती है, उसे ‘संस्कारों’ द्वारा पूरा कर लिया जाता है— जैसे टाँगें फ़ैलाकर मत बैठो, तेज़ मत चलो, लम्बे-लम्बे डग मत भरो…आदि |

इसलिए ठीक यहीं पर इस बात को समझना होगा कि जींस पहनने वाली लड़कियों को ठीक उस समय दबोचकर, जब वे नितांत अकेली होती हैं और दबोचने वाले दो या दो से अधिक की संख्या में, उसके साथ छेड़खानी या रेप की घटनाओं को अंजाम क्यों दिया जाता है? हालाँकि सबसे अधिक रेप की घटनाएँ साड़ी और सलवार-कमीज़ पहननेवाली महिलाओं के साथ होते हैं, जिसका न तो वे प्रतिवाद कर पाती हैं, न किसी से उसका ज़िक्र; और जिसे हमारा यह महान ‘संस्कृति-पूजक’ समाज भी स्वीकार तक नहीं करना चाहता ! लेकिन ‘जींस’ पहने लड़कियों के साथ हुई इस तरह की वारदातों को ख़ूब प्रचारित किया जाता है ! लेकिन क्यों ?

ताकि समाज को, और सबसे अधिक लड़कियों को भयभीत करते हुए यह समझाया जा सके, कि ‘तुम्हारी आज़ादी हमें स्वीकार नहीं, यदि तुम हमारी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर जींस पहनोगी, तो हम तुम्हारे साथ रेप अवश्य करेंगे…!’ क्या समाज, नेताओं, या मीडिया ने राजस्थान की उस 70-75 वर्षीया दलित वृद्धा के साथ गाँव के ही ‘सवर्ण-पुरुषों, जिनमें से सभी की उम्र उस वृद्धा दलित की उम्र की आधी या उससे भी कम थी, द्वारा किए गए रेप को पर्याप्त रूप से उजागर किया? वह तो साड़ी पहनती थी और सिर को पल्लू से अच्छी तरह ढंकती भी थी !

इसलिए देखने में बहुत साधारण-सी दिखनेवाली इस ‘जींस’ को कोई मामूली चीज मत समझिए, यह अपने-आप में सम्पूर्ण ‘क्रान्ति’ है… एक परिवर्तनकारी ‘विद्रोह’… एक पूरी संस्कृति… जो युगांतरकारी भी हो सकती है, …और मौक़ा मिलने पर पितृसत्ता को उसके समस्त पायों सहित उखाड़कर फ़ेंक देने का माद्दा भी रखती है…

क्या इसी कारण ‘लड़कियों के ‘जींस’ पहनने से ‘संस्कृति-रक्षकों’ को डर नहीं लगता…???

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

Related Posts

6 thoughts on “फ़टी जींस, लड़कियाँ और संकट में संस्कृति

  1. आत्मविश्वास से लबरेज होना चाहिए
    चाहे जींस हो सलवार सूट या साडी
    कोई भी हो ड्रैस कैसा भी हो मेकअप
    हर परिस्थिति का मुकाबला करने में हो सक्षम
    पूरी ढकी हो या कपड़े हों थोड़े कम
    बस मौका पड़े तो हाथ जोड़ दे
    और मौका मिले तो हाथ ही तोड दे
    कुछ ऐसी आत्मविश्वास की कहानी होनी चाहिए
    नारी की कुछ ऐसी ही रवानी होनी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!