बतकही

बातें कही-अनकही…

“भइया…! जल्दी चलो..ss…ss…! …जल्दी चलो…ss…ss…!!” रिक्शे पर बैठी सोलह-सत्रह वर्षीया तीन किशोरी लड़कियाँ रिक्शेवाले को संबोधित करते हुए लगातार चिल्ला रही थीं…. लगभग उनकी ही उम्र का, यानी अंदाज़न अठारह-बीस साल का किशोर रिक्शेवाला भी जी-जान से रिक्शे को पूरी ताकत से पैडल मारता हुआ लड़कियों की आवाज़ से प्रतिस्पर्धा करने की कोशिश कर रहा था | यह कह पाना मुश्किल था, कि लड़कियों के चिल्लाने की गति अधिक थी, या किशोर के रिक्शा खींचने की…? बसों, कारों एवं दोपहिया वाहनों पर सवार सभी यात्री घूर-घूरकर लड़कियों को देख रहे थे, जैसे कहना चाह रहे हों, “ये क्या बेहूदगी है?”

“ड्राइवर साहब, प्लीज़ इन लड़कियों के रिक्शे को आगे चले जाने दीजिये…!” दिव्या ने बस के ड्राइवर से आग्रह किया | ड्राइवर की आँखों में दूधिया-वात्सल्य तैर रहा था…! शायद उससे यह कहने की ज़रूरत नहीं थी | उसने शायद खुद ही अपनी बस की गति धीमी कर लेने का निश्चय कर लिया था …….

बात कुछ साल पहले की ही है… दिव्या को दिल्ली विश्वविद्यालय जाना था, आज उसके रिसर्च कार्यक्रम, यानी पी.एचडी. का बेहद महत्वपूर्ण दिन था | दरअसल आज उसके शोध-कार्य की मौखिक परीक्षा, यानी ‘viva’ था | घर से निकलने में ही उसे काफ़ी देर हो गयी थी और बस भी बड़ी मुश्किल से मिली थी | उसपर आफ़त यह, कि दिल्ली का ट्रैफिक जैसे उसका रास्ता रोके खड़ा था… दिव्या के सामने जैसे एक नहीं, दो-दो परीक्षाएँ थीं -–पीएच.डी. की मौखिक-परीक्षा के अलावा दिल्ली की कभी ख़त्म न होने वाली ट्रैफिक को पार कर समय पर विश्वविद्यालय पहुँच पाने की परीक्षा …..वह काफ़ी चिंतित और परेशान थी ……

….उसपर से तेज़ी से आगे खिसकती हुई घड़ी की सुई जैसे टाइम-बम की तरह लग रही थी, एक-एक मिनट क़ीमती लग रहा था आज दिव्या को | वह काफ़ी परेशान थी | उसका तनाव लगातार बढ़ता ही जा रहा था –“क्या आज वह समय पर विश्वविद्यालय नहीं पहुँच पाएगी ? क्या आज वह अपने viva में शामिल नहीं हो पाएगी?” उसके गाइड प्रो. दिनेश का कई बार फोन आ चुका है, विश्वविद्यालय से | वे नाराज़ हो रहे थे, कि वे पहुँच चुके हैं, किन्तु दिव्या का अभी तक कहीं अता-पता नहीं है |

वस्तुतः उसके गाइड प्रो. दिनेश उसके रिसर्च के काम से बेहद ख़ुश थे | आख़िर दिव्या ने पूरे पाँच साल जी तोड़ मेहनत जो की थी, अपनी थीसिस पर… ! विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रो. दिनेश और दिव्या के सम्बन्ध में यह अक्सर सुना जाता था, कि जिस तरह बड़े नसीब वाले शोधकर्ता विद्यार्थियों को ही प्रो. दिनेश जैसे विद्वान, विद्यार्थियों से सहयोगी व्यवहार करने वाले एवं संवेदनशील प्रवृत्ति के गाइड मिलते हैं; ठीक वैसे ही बड़े भाग्यशाली गाइड को ही दिव्या जैसे ज्ञान के भूखे, लगनशील, परिश्रमी एवं अपने गाइड पर विश्वास रखनेवाले विद्यार्थी मिलते हैं |

दिव्या के गाइड के ख़ुश होने का एक और कारण था | उसकी थीसिस विश्वविद्यालय की ओर से जिन तीन लोगों को भेजी गयी थी, अध्ययन के लिए, उनमें से अलीगढ़ विश्वविद्यालय एवं जेएनयू के, साहित्य की दुनिया के जाने-माने दो साहित्यकार प्रोफ़ेसरों ने उसकी थीसिस की बेहद तारीफ़ की थी, इसके लिए उन्होंने प्रो. दिनेश को विशेष रूप से फ़ोन किया था और उन्हें इसके लिए बँधाई दी थी | इस तारीफ़ में, ज़ाहिर है, उसके गाइड, प्रोफ़ेसर साहब की भी तारीफ़ शामिल थी | कहना नहीं होगा, कि कोई शोधकार्य जितना उसके शोधकर्ता विद्यार्थी के परिश्रम का परिणाम होता है, उतना ही उसके गाइड के कुशल निर्देशन का भी; यानी दोनों के ही सम्मिलित प्रयासों से ही कोई भी रिसर्च का कार्य बेहतरीन ढंग से पूरा होता है |

विद्यार्थी जितना अधिक जिज्ञासु, परिश्रमी और लगनशील होगा, उसके कार्य में उसकी ये प्रवृत्तियाँ और उसके परिणाम उसी मात्रा में दिखाई भी देंगे | और इसी के साथ गाइड जितना विद्वान होगा, अपने विद्यार्थी को धैर्यपूर्वक समझाने और शोध एवं ख़ोज के लिए नए-नए रास्तों की ओर अग्रसर करने का माद्दा रखता होगा, अपने छात्र-छात्राओं की कोशिशों पर विश्वास रखते हुए और उन कोशिशों की सराहना करते हुए, उसे इसके लिए सोचने और खोजने की भरपूर बौद्धिक आज़ादी देते हुए प्रोत्साहित करेगा, तो निश्चित रूप से इसके काफ़ी सकारात्मक परिणाम उस शोधकार्य पर नज़र आएँगे | प्रो. दिनेश के कुशल निर्देशन में दिव्या ने कुछ ऐसा ही काम किया था; इसलिए इस सम्मिलित प्रयास के जो नतीजे मिले थे, विद्वानों की जो सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिली थीं, उससे वे काफ़ी उत्साहित एवं प्रसन्न थे, दिव्या की ही तरह…  

…इसलिए आज जब दिव्या की मौखिक परीक्षा यानी viva का दिन आया, तो वह बेहद नर्वस थी… पता नहीं क्या होगा? इसी चक्कर में उससे सारे काम उल्टे-पुल्टे हो रहे थे और उसे घर से निकलने में देर हो गई…     

बस तो मिल गयी थी, लेकिन लंबे-लंबे ट्रैफिक-जाम ने मुश्किलें और बढ़ा दी | दिल्ली के ट्रैफिक से तो भगवान ही बचाएँ | चालीस मिनट का रास्ता दो घंटे से भी अधिक खिंच चुका था और अभी भी वह विश्वविद्यालय से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर दूर थी | विश्वविद्यालय मेट्रो के पास ट्रैफिक में सभी गाड़ियाँ फँसी थी | शायद आगे रेड सिग्नल भी हो गया था | जिस बस में दिव्या सवार थी, वह खचाखच भरी हुई थी | बस में तिल रखने की भी जगह नहीं थी | दिव्या इसी भीड़ में पिछले दो घंटे से बस के पिछले गेट पर खड़ी थी, अन्य कई यात्रियों की ही तरह | सितम्बर की गर्मी और उमस से सबका बुरा हाल था | चूँकि अब वह बस-स्टैंड नज़दीक ही था, जहाँ दिव्या को उतरना था, इसलिए वह जहाँ खड़ी थी, वहाँ से उसे आगे की तरफ़ एग्जिट गेट के पास आना था | हालाँकि इस खचाखच भरी बस में एक क़दम भी आगे बढ़ना बेहद कठिन था, लेकिन बस में आगे की ओर आना तो था ही, जैसे भी हो; इसलिए जैसे-तैसे वह आकर ड्राइवर के ही नज़दीक एग्जिट गेट के पास खड़ी हो गयी |

थोड़ी देर में सिग्नल हरा होता है और गाड़ियों को थोड़ा-थोड़ा रास्ता मिलता है | जिन्हें आगे ठीक-ठाक रास्ता मिला, वे गाड़ियाँ तीर की तरह भागती हैं, जैसे कोई उनका पीछा कर करा हो… या वे ख़ुद ही किसी का पीछा कर रही हों…

…दरअसल यह दिल्ली के लोगों की ख़ासियत है, जो पूरी दिल्ली में कभी भी, कहीं भी देखने को मिल जाएगी | उन्हें देखकर ऐसा लगता है, जैसे वे किसी कारण से बेतहाशा भागे जा रहे हैं, जैसे उन्हें बहुत जल्दी हो कहीं शीघ्रातिशीघ्र पहुँचने की | और यदि वे वहाँ जल्द-से-जल्द नहीं पहुँच पाए, तो अवश्य कुछ अनर्थ हो जाएगा | अतः बेतहाशा भागना उनकी बहुत बड़ी मजबूरी-सी प्रतीत होती है…! दिल्ली के किसी भी इलाक़े में चले जायँ, लोग ऐसे ही बेतहाशा भागते नज़र आएँगे….

….तो इस भागमभाग में सबको बचाती और खुद भी बचती हुई दिव्या की सरकारी बस भी धीरे-धीरे सरकती अपनी रफ़्तार बढ़ाने की कोशिश कर रही थी… | तभी बस की दाहिनी तरफ़ से लड़कियों के ज़ोर-ज़ोर से चीखने का स्वर सुनाई दिया- “भइया और तेज़ चलाओ…और तेज़ चलाओ..! जल्दी चलो भइया…जल्दी चलो….!” सभी यात्रियों की आँखें बरबस ही बस के पीछे मुड़ गईं | क़रीब दस-पंद्रह सेकेण्ड बाद ही एक रिक्शा बस के समानांतर चलता हुआ और बस से प्रतिस्पर्धा करता हुआ बस की दाहिनी ओर से प्रकट हुआ |

रिक्शे पर क़रीब सोलह-सत्रह साल की तीन किशोरी लड़कियाँ बैठी थीं | रिक्शेवाले की उम्र भी कोई अधिक नहीं थी, यही कोई अठारह-बीस साल होगी…! लड़कियों को देखने से यह आराम से समझा जा सकता था, कि वे अभी-अभी स्कूल के नियंत्रित वातावरण से निकलकर कॉलेज के खुले माहौल में आई हैं | और कॉलेज की आज़ाद दुनिया में जैसे उनको खुला आसमान मिल गया, जिसमें उड़ान भरने को उनके नन्हें पंख बेताब हो उठे हैं |

जिस तरह चिड़िया के नन्हें बच्चों को पंख निकलने और उनमें उड़ान भरने की क्षमता आ जाने के बाद घोंसले में बाँधे रखना बहुत मुश्किल होता है, उनके माता-पिता के लिए; जिस तरह वे अपने सुरक्षित घोंसलों की परिधि में रहने की बजाय खुले आसमान की सीमा तक जाने को उद्दत रहते हैं; वैसे ही ये लड़कियाँ थीं– हर बाज़ी जीत लेने को आतुर, हर किसी से आगे निकल जाने को बेताब, किसी भी चुनौती को मात दे देने के विश्वास से लबरेज़…. दुनिया जैसे उनके ठेंगे पर थी ….! उनमें आत्मविश्वास की कहीं कोई कमी नहीं दिख रही थी…. दिन-दुनिया से बेख़बर, दुखों-तक़लीफ़ों से अनजान….! उनके महँगे आधुनिक कपड़े बता रहे थे, कि वे ग़रीबी और ग़रीबी की विवशता से परिचित नहीं थीं…

…हाँ, केवल माता-पिता और स्कूलों की निगरानी और बंधन में निरंतर रहने के कारण उनके सपनों और उमंगों पर अब तक जैसे विराम-सा लगा हुआ था, लेकिन यूनिवर्सिटी और कॉलेजों का उन्मुक्त वातावरण पाते ही जैसे अब उस बंधन से विद्रोह करने को आतुर हो उठी थीं, वे लड़कियाँ…..| सच तो यह है, कि चहकती हुई वे बहुत भली लग रही थीं | ऐसा लग रहा था, जैसे बहुत सारे सुन्दर सपने अपनी पलकें बिछाए कहीं पर उनके इंतज़ार में बैठे हैं और उनको बुला रहे हैं …और वे उन्हीं सलोने सपनों की ओर चहकती हुई उड़ी चली जा रहीं हों …! यूनिवर्सिटी के खुले और उन्मुक्त वातावरण ने जैसे उनके सपनों को पंख दे दिए थे, उनकी इच्छाओं को जैसे नई तृष्णा से परिचित करा दिया था, उनके अभ्यास-विहीन क़दमों को जैसे नई-नई स्वप्निल मंजिलों तक पहुँचने का रास्ता बता दिया था, उनके हृदयों को उत्साह, उल्लास और लालसा की नई तरंगों से भर दिया था …. !!! …शायद अब वे किसी भी बंधन को मानने को बिलकुल तैयार नहीं थीं…

… उनके अनुभवहीन ह्रदय अभी उन भयों से मुक्त थे, जो हमारे देश में लड़कियों का ‘नसीब’ होता है, अभी वे उन ख़तरों से अनजान थीं, जिसे हमारा समाज ‘दण्ड’ की तरह देखता, निर्धारित करता और देता है, ऐसी ‘आज़ाद ख्याल लड़कियों’ को, अभी उन्हें उन संकटों को जानना बाक़ी था, जो ऐसी ‘आवारा लड़कियों’ की ‘आज़ाद ख्याली’ के कारण उनके एवं उनके परिवारों के सामने पैदा होते हैं… 

….और रिक्शेवाला ….? निश्चय ही परिवार की ग़रीबी और उस ग़रीबी के ही परिणामस्वरूप असमय मिले उत्तरदायित्वों ने उसे स्कूल की संगत में अधिक दिनों तक नहीं रहने दिया होगा | वह उन लड़कियों की तरह भाग्यशाली नहीं था… | उसने घुटनों तक की जगह-जगह से घिसी और रंग उतरी हुई निक्कर और दर्ज़नों छेदवाली एक टीशर्ट पहन रखी थी | हालाँकि उसका चेहरा निरंतर धूप में रिक्शा चलाने के कारण सँवला गया था, या कहना चाहिए कि जल गया था, लेकिन अभी वहाँ मासूमियत और सरलता बाकी थी, वक़्त और हालात द्वारा अभी तक उसे मिटाया नहीं गया था…

…वस्तुतः वह एक ऐसा किशोर था, जो बड़ी शीघ्रता से युवावस्था की ओर अपने क़दम बढ़ा रहा था | उसके चेहरे पर निम्नवर्गीय समाज के किशोरों की तरह समय से पहले ही परिवार की जिम्मेदारियों को उठाने की मजबूरी के कारण आई कठोर गंभीरता और बेबसी की लकीरें तो साफ़-साफ़ देखी जा सकती थीं, लेकिन जीवन का रस अभी वहाँ पूरी तरह सूखा नहीं था | अभी उसमें समय था…

…शायद उसकी आँखों ने अभी सपने देखना बंद नहीं किया था… समाज से, हालात से, वक़्त से अपनी बाज़ी जीतने की ललक और अभिलाषा अभी तक उसमें मरी नहीं थी शायद, अपने जीवन और भविष्य को एक सुन्दर आकार देने की इच्छा-शक्ति भी जैसे अभी शेष थी उसमें…….! शायद इसीलिए उसमें उत्साह अभी तक बचा हुआ था….. 

…इसलिए जब लड़कियाँ उसे लगातार प्रोत्साहित करती हुई रिक्शा तेज़ चलाने को कह रही थीं, तो वह भी अपने चेहरे पर कान तक खिंची हुई बड़ी-सी मुस्कान लिए और भी अधिक ताकत से रिक्शे को पैडल मारने लगता था | कुछ देर तो बाकी लोगों की तरह दिव्या की भी समझ में नहीं आया, कि लड़कियाँ ऐसा क्यों कर रहीं हैं | लेकिन जब-जब उनका रिक्शा भीड़ में चल रही बाइकों और कारों को पीछे छोड़ता हुआ आगे निकल जाता, तब-तब लड़कियों के साथ ही उस अल्प-वयस्क किशोर रिक्शेवाले का चेहरा भी खिल उठता था ! और तब यह बात समझते देर नहीं लगी, कि वे दरअसल सड़क पर चलनेवाले वाहनों से होड़ कर रहे हैं |

रिक्शे पर सवार वे लड़कियाँ सभी बड़े और ज्यादा गति वाले वाहनों से आगे निकलकर जैसे जीत के उस एहसास को जी लेने को उद्धत थीं, जो शक्तिशाली को हराकर कोई कमज़ोर व्यक्ति महसूस करता होगा | कुछ लोगों की आँखों में लड़कियों की मासूमियत को देखकर एक निर्मल-सी मुस्कान तैर जाती थी, जबकि कुछ लोगों के चेहरों पर रिक्शेवाले की आगे निकलने की मुस्कान-भरी नादानी से उसके प्रति घृणा के भाव दृष्टिगोचर होते भी दिखे, जबकि बंदिशों में रखे जानेवाले इन दोनों -–लड़कियाँ और ग़रीब मजदूर रिक्शेवाला– की उनसे आगे निकलने की नादानी और दुस्साहस को देखकर बहुत से लोगों की आँखों में हिकारत की भावना भी तैरती दिखी, जैसे वे कहना कहते हों –“लड़कियाँ होकर इतनी हिम्मत, कि हमसे होड़ करो…! एक रिक्शेवाला होकर इतना दुस्साहस, कि हमें पीछे छोड़ने के बारे में सोचो…!”

लेकिन इन सब से बेपरवाह लड़कियाँ जैसे पूरी दुनिया को ठेंगा दिखाती अपने-आप में डूबी रिक्शेवाले को लगातार प्रोत्साहित कर रही थीं | उनकी हुलसती आवाजें, जैसे समाज के संस्कारों, सामर्थ्यवानों की ताक़त, हैसियत और ‘समझदारी’ को ललकारती हुई चुनौती दे रही थीं | वे जीतने को आतुर लड़कियाँ थीं, जिन्हें किसी के भी कुछ भी सोचने या कहने की परवाह नहीं थी….

…लेकिन यह समझ पाना मुश्किल था, कि रिक्शेवाला किशोर क्या सोच रहा था | क्या लड़कियों के उस प्रोत्साहन से उसमें केवल उत्साह पैदा हो रहा था, या वह खींझ भी उठता था कभी-कभी? क्योंकि दबंग समाज का डर श्रमिक-वर्ग को सदैव साहसी रहने भी नहीं देना चाहता, वर्ना ये छोटे लोग सिर पर चढ़कर नाचने नहीं लगेंगे…? किशोर ने अभी बहुत अनुभव नहीं प्राप्त किए हैं जीवन की दुश्वारियों के, लेकिन उसका अनुभव उन लड़कियों की तरह इतना भी कम नहीं है, कि उसे ‘बड़े लोगों’ से कोई डर भी न लगे | अपने परिवार की ग़रीबी और लाचारी की जिस स्थिति में उसे विद्यालय छोड़कर रिक्शा चलाने को मजबूर होना पड़ा है, वह इतना तो उसे सिखाता ही होगा, कि उसकी स्थिति उन लड़कियों से थोड़ी भिन्न ही है | कौन जाने वह उसी ग़रीबी से लड़ते हुए किराए के रूप में लड़कियों से कुछ अधिक पैसे पाने की उम्मीद में वह उन लड़कियों के “और तेज़…और तेज़…” के साथ रिक्शा खींचने को मजबूर हो ….?….

…..यह समझते ही दिव्या ने ड्राइवर की ओर साभिप्राय देखा और आग्रह किया, “क्या आप बस की रफ़्तार थोड़ी धीमी कर सकते हैं, प्लीज़…?” ड्राइवर दिव्या की ओर देखकर आत्मीयता से मुस्कुराता है | उसकी आँखें जैसे कह रहीं थीं, “मैं खुद भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था….” और बस की गति धीमी हो गई | देखते-ही देखते उनका रिक्शा उनकी बस से आगे निकल गया और लड़कियाँ पीछे मुड़ीं, उस दिव्या की बस के ड्राइवर और मुसाफिरों की ओर विजयी मुस्कान से देखा और अपने दोनों हाथ हवा में उठाकर तीनों एक साथ खूब ज़ोर-ज़ोर से विजयी स्वर में चिल्लाईं –-“ये…sss…ये sss……हम जीत गए…sss…ये…sss…sss…हम जीत गए….हम जीत गए……ये….sss….ये …..sss…. !!!”

…उस समय रिक्शेवाले किशोर के चेहरे की चमक देखते ही बनती थी | वह रिक्शा चलाता है, तो क्या ? जीतने का अधिकार उसे भी है, जीत की ख़ुशी को वह भी उतनी ही शिद्दत से महसूस कर सकता है, जितना समाज के ताक़तवर लोग | किशोर पसीने से तर-बतर था, लेकिन उसके चेहरे पर पैदा हुई चमक अब उसके रोम-रोम से प्रस्फुटित हो रही थी….| वह बेहद प्रसन्न था, कान तक खिंची हुई मुस्कान में अब उसकी धवल दंतावलियों की चमक भी सहयोग दे रही थीं…| …आख़िर इस जीत में परिश्रम उसी का तो था, जिसने लड़कियों को ही नहीं, उसे भी ‘जीतने के अलौकिक सुख’ का एहसास कराया था…! उसके परिश्रम ने दोनों को ही विजयी बनाया था…

इस बार बस के ड्राइवर ने दिव्या की तरफ़ देखा… “बेचारी अभागी लड़कियाँ…आज अपनी छोटी-सी इस जीत पर किस कदर ख़ुश हैं? जैसे इन्होने दुनिया जीत ली हो ! पता नहीं इनमें से किसके नसीब में क्या है? कौन किचन में जलकर मरेगी? कौन तेज़ाब से झुलसेगी, किसको गाड़ियों से लोग रौंद देंगें, किसको नोच खायेंगे?” ड्राइवर का आहत स्वर था….

…“हाँ, आप ठीक कह रहे हैं, पता नहीं इस किशोर को भी अब कब कोई जीत नसीब होगी, कब तक उसका ये उत्साह जीवित रहेगा, पता नहीं कब इसको भी हालात अपने सामने घुटने टेकने को मजबूर कर देंगे….! लेकिन चलिए, कोई बात नहीं, आपकी सहृदयता ने इनको एक जीत का एहसास तो कराया, झूठी जीत ही सही….मगर जीत तो जीत ही होती है …!” दिव्या ने मुस्कुराकर ड्राइवर से कहा…

ड्राइवर ने संवेदना और आत्मीयता से दिव्या की ओर देखा | बस स्टॉप आ गया था….   

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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