– “वो औरत ही अच्छी होती है, आंटी, जो मर्द के पैरों की जूती बनकर रहे |” रामलाल गुप्ता ने तो यह बात अपनी मकान-मालकिन से कही, लेकिन उसका लक्ष्य वहीँ बैठी किरण थी, जो उसी मकान में दूसरी मंज़िल पर बतौर किरायेदार रहती थी |
– “………….” मकान मालकिन ने कुछ नहीं कहा, किरण ने भी जानबूझकर नज़रअंदाज़ किया, कौन इस मूर्ख-अहंकारी के मुँह लगे
– “अरे आंटी, तू सुन रही है ना ! मैं ये कह रहा हूँ, कि औरतों को हमेशा मर्दों के पैरों की जूती बनकर ही रहना चाहिए, मर्दों के मुँह लगनेवाली औरतें ‘अच्छी औरत’ नहीं होती हैं |” यह कहते हुए गुप्ताजी ने अपनी कुटिल नज़रें किरण के चेहरे पर गड़ा दीं और उसकी प्रतिक्रिया देखने लगे
– “अरे बेटे किरण, ये तुझसे कह रहा है….|” किचन से निकलते हुए मकान-मालिक ने किरण से कहा, जो काफ़ी देर से गुप्ताजी की बात सुन रहे थे और उनके निशाने, यानी किरण को भी लक्ष्य कर रहे थे
बात उस समय की है, जब किरण अपने भाई-बहन के साथ, पढ़ने के सिलसिले में, दिल्ली के मुखर्जीनगर में रह रही थी | मुखर्जीनगर और आस-पास का इलाक़ा तब सिविल सेवा की तैयारी करनेवाले प्रतियोगियों एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं (जो देश के अलग-अलग हिस्सों, ख़ासकर यू.पी., झारखण्ड, बिहार, म.प्र. आदि हिंदी पट्टी, से आये लड़के-लड़कियाँ थे) के लिए कई कारणों से एक सुविधाजनक स्थान था | और सत्य तो यह है, कि मुखर्जीनगर के मकान-मालिकों की आय का सबसे प्रमुख ज़रिया भी इन विद्यार्थियों से प्राप्त होने वाली किराए की वह मोटी रकम ही हुआ करती थी, जिसने इनकी आर्थिक-स्थिति इतनी मज़बूत कर दी, कि उनमें से कईयों ने उसी आय की बदौलत अपने कई नए बिज़नस खड़े कर लिए, कई बड़ी-बड़ी कोठियाँ खड़ी कर ली, कई लोगों ने कुछ सालों में नए-नए मकान बनाए और उन्हें किराए पर चढ़ाकर उसी से होने वाली आमदनी को अपना धंधा बना लिया | मुखर्जीनगर के मकान-मालिकों के लिए तब इससे अधिक फ़ायदे का सौदा और कोई था भी नहीं ….
…खैर, जिस मकान-मालिक और गुप्ताजी की बात यहाँ हो रही है, उसके सन्दर्भ में बात दरअसल इतनी ही है, कि उस मकान में बतौर किरायेदार गुप्ताजी पिछले तेरह सालों से रह रहे थे, जब मकान-मालिक के बच्चे बहुत छोटे-छोटे थे | गुप्ताजी ने, पता नहीं किस मंत्र-बल से, अंकल-आंटी को अपने नियंत्रण में कर रखा था | वे दोनों पति-पत्नी गुप्ताजी से बहुत डरते थे, इसलिए उनकी हर बात वे लोग बिना ना-नुकुर के मानते थे | इसी कारण गुप्ताजी घर का किराया भी बहुत ही मामूली-सा देते थे, केवल नाममात्र का | यानी जिस दो कमरों के सेट का किराया किरण और उसके भाई-बहन से चार हज़ार रुपये लेते थे, उसी सेट का किराया गुप्ताजी सिर्फ़ आठ सौ रुपये ही देते थे | तब भी मकान-मालिक कुछ नहीं कह पाते थे | यहाँ तक कि जब किरण, अपने भाई-बहन के साथ बतौर किरायेदार वहाँ शिफ्ट हुई, तब उसे मकान-मालिकों की बजाय गुप्ताजी से ही पहली हिदायत मिली…
– “यहाँ मेरी मर्ज़ी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता, इसलिए बिना मुझसे पूछे कोई काम नहीं करना है | ऐसा कोई काम भी नहीं करना है तुम लोगों को, जो मुझे पसंद ना हो ! अंकल-आंटी भी मेरी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं करते | इस घर में कब कौन-सा काम होगा, इसका फ़ैसला मैं करता हूँ, अंकल-आंटी नहीं…!” गुप्ताजी ने बिना किसी भी प्रकार की झिझक के कहा, जैसे वे ही वहाँ के सर्वे-सर्वा हों | आंटी-अंकल का चेहरा तब देखने लायक था |
समय बीतता गया और समस्याएँ खड़ी होती गयीं | घर में मकान से संबंधित कोई समस्या होती, जैसे वाश-बेसिन का लीक करना, या बाथरूम का नल ख़राब होना, तो किरण या उसके भाई-बहन मकान-मालिकों की ही सहायता लेते | इससे गुप्ताजी चिढ़ गए | एक दिन वाश-बेसिन ठीक कराते हुए गुप्ताजी ने पान-मसाला खाकर किरण के ही घर के वाश-बेसिन में कई बार थूककर उसे पूरा लाल कर दिया, जबकि वहाँ काम हो रहा था | पास में आंटी खड़ी थीं, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा, बेसिन ठीक करनेवाले कारीगर ने भी कुछ नहीं कहा, शायद वह गुप्ताजी और उन मकान-मालिकों की वस्तुस्थिति से पहले से ही अवगत था |
— “गुप्ताजी, जब आप देख रहे हैं, कि अभी बेसिन को बनाया जा रहा है, तब आपको इसमें नहीं थूकना चाहिए था | आप अपने घर चले जाइए और वहीँ पान-मसाला थूककर आइए |” मकान-मालकिन को चुप देखकर तब किरण ने ही कहा
— “……!!!……???” गुप्ताजी ने उसे घूरकर देखा, उन्हें उसकी बात अपने निर्बाध अधिकारों में ख़लल लगी थी
— “मेरी दीदी ठीक कह रही हैं, आप यहाँ मत थूकिए, अपने घर चले जाइए …|” किरण के भाई विजय ने गुप्ताजी द्वारा बहन को घूरते हुए देखकर कहा
गुप्ता जी तत्काल तो बाहर सीढियों की ओर निकलकर गली में मुँह की गन्दगी थूक आए, लेकिन उनकी आँखों से अंगारे बरस रहे थे और वे किरण और विजय की ओर आग्नेय-नेत्रों से देख रहे थे | इसे सभी ने नोटिस कर लिया |
– “बेटे, गुप्ता को कुछ मत बोलो, वो अच्छा आदमी नहीं है | मैं तुम्हारे लिए ही कह रही हूँ |” आंटी किरण को कमरे में लेकर आईं और बुझी आवाज़ में कहा
– “आंटी, आप मेरी चिंता मत कीजिए, ऐसे दो कौड़ी के लोग मेरा क्या बिगाड़ लेंगे ! मैं उन लड़कियों में से नहीं हूँ, जो हर बात पर ऐसे पुरुषों के सामने रोती-गिड़गिड़ाती हैं |” किरण ने आत्म-विश्वास से कहा
— “………….!” आंटी निरुत्तर हो गयीं, लेकिन उनकी आँखें साफ़-साफ़ कह रही थीं, कि उनको विश्वास नहीं है, कि गुप्ता जैसे लोगों से पार पाना किसी के लिए भी आसान है
तब दोनों बाहर आ गईं | वाश-बेसिन ठीक हो चुका था और कारीगर भी जाने लगा, उसके पीछे-पीछे गुप्ताजी भी जाने लगे | अपने भाई-बहन में बड़ी होने के कारण अपने भाई-बहन को किसी भी भावी समस्या और संकट से बचाने की ज़िम्मेदारी किरण की ही थी, इसलिए आगे से गुप्ताजी को ऐसा करने से रोकने के लिए उसने उनको टोका,
–“गुप्ताजी, आपने वाश-बेसिन में थूक-थूककर उसे गन्दा कर दिया है, कम-से-कम पानी चलाकर इसे साफ़ कर दीजिए |” किरण ने एकदम सामान्य स्वर में कहा
–“…….मैं तुम्हारा बेसिन साफ़ करूँ??……मैं…??…..?? दिमाग तो नहीं ख़राब नहीं हो गया है, तुम्हारा …?” गुप्ताजी के चेहरे पर उनका अहंकार साफ़-साफ़ झलक रहा था
— “बेटे, मैं साफ़ कर देती हूँ, कोई बात नहीं …!” आंटी ने डरे हुए स्वर में कहा और बेसिन की ओर बढ़ गईं
— “नहीं आंटी, गंदगी गुप्ताजी ने फैलाई है, तो साफ़ भी उन्हीं को करना चाहिए | जब इन्होंने देखा, कि बेसिन ठीक किया जा रहा है, तो इनको नहीं थूकना चाहिए था इसमें ! इंसान के पास इतना तो कॉमन-सेंस होना ही चाहिए …!” किरण ने आंटी को हाथ से रोककर दृढ़ता से कहा
— “……..गुप्ताजी, आइए, नल चलाकर अपनी फैलाई गंदगी बहा कर जाइए !” उसने थोड़े से कठोर स्वर में कहा, गुप्ताजी अवाक् थे….
उन्हें तनिक भी उम्मीद नहीं थी, कि एक लड़की उनसे इस तरीक़े से पेश आएगी | कारीगर, मकान-मालकिन और इन चार भाई-बहनों के सामने गुप्ताजी की बेइज्ज़ती हो रही थी, शायद अब और अधिक बेइज्ज़ती के डर से उन्होंने आकर बेसिन का नल खोल दिया और किरण को जलती आँखों से घूरते हुए चले गए | आंटी भी सकते में थीं, लेकिन किरण इतना जानती थी, कि यदि ऐसे लोगों को एकदम शुरुआत में ही यह एहसास नहीं कराया गया, कि उनकी कोई भी हरकत यूँ ही बर्दाश्त नहीं की जा सकती, तो ऐसे लोग बाद में अपनी दबंगई बढ़-चढ़ कर दिखाते हैं और उनको रोकना तब अधिक कठिन हो जाता है |
समय बीतता गया और गुप्ताजी किरण और उसके भाई-बहन को औक़ात दिखाने की हर संभव कोशिश करने लगे | कभी दोपहर में उनके घर की ग्रील खोलकर बेधड़क घर में घुस जाते और किरण को सोती हुई देखकर उसकी चादर खींच देते और उसके बिस्तर पर आकर बैठ जाते, कभी उसे पढ़ती हुई देखकर उसकी बगल में बैठ जाते, जैसे अपनी गर्ल-फ्रेंड के साथ बैठे हों, और उसकी किताब साधिकार उसके हाथों से लगभग छीनकर कहते,
– “वो किताब पढ़ो, जो तुम्हारी समझ में आये | लड़कियों के पास इतना दिमाग़ नहीं होता, कि ऐसी बड़ी-बड़ी और मुश्किल क़िताबें समझ पाएँ |” तब एक क़िस्म की पौरुषीय-संतुष्टि और दुष्ट मुस्कान उनके चेहरे पर नाचती दिखती थी
इसी तरह की दर्ज़नों हरकतें वे अक्सर करते और उल्टा मुँह की खाकर लौटते | किरण और उसके भाई-बहन यथासंभव कोशिश करते, कि कोई टकराव या विवाद न हो, क्योंकि इससे उनके भी मन की शांति भंग होती थी और अंकल-आंटी भी चिंतित हो जाते थे | उन लोगों ने अंकल-आंटी को कई बार गुप्ताजी द्वारा उनके सामने खड़ी की जाने वाली समस्याओं के बारे में बताया और गुप्ताजी को समझाने को कहा | लेकिन उन्हें हर बार उनकी लाचार आँखें ही देखने को मिलती थीं |
एक दिन किरण के बहुत पूछने पर आंटी ने आँखों में आँसू भरकर बताया, कि गुप्ताजी उनके घर में कभी भी घुस जाते हैं और वे लोग उन्हें किसी भी तरह रोकने-टोकने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं | उन्होंने यह भी बताया, कि कैसे जब उनकी ननद की बहू अपनी शादी के बाद पति के साथ कुछ समय के लिए वहीँ उन लोगों के साथ रहने आई थी, तब गुप्ताजी ने बहू के साथ कई बार अश्लील और अपमान-जनक व्यवहार किया था और उनकी बहू दुखी होकर अपने पति के साथ वहाँ से चली गई थी और फिर कभी नहीं आई | इतना ही नहीं, इसी कारण अंकल-आंटी की अपनी बेटी भी, जो पास ही में अपनी ससुराल में रहती है, गुप्ताजी के कारण अपने माता-पिता से मिलने वहाँ नहीं आती | ऐसी दर्ज़नों घटनाएँ आंटी और अंकल ने उस दिन और उसके बाद भी अनेक मौकों पर किरण और उसके भाई-बहन को बताईं थीं |
उनकी बातें सुनने के बाद किरण समझ गई, कि गुप्ताजी स्त्रियों को ‘भोग की वस्तु’ समझते हैं | दूसरे, अंकल-आंटी की प्रत्येक चीज और उसके उपभोग पर भी अपना स्वाभाविक-अधिकार समझते हैं, चाहे वह कोई वस्तु हो, या व्यक्ति, यहाँ तक, कि बहुएँ और बेटियाँ भी | तीसरे, उनकी कोशिश होती थी है, कि कोई भी ऐसा व्यक्ति अंकल-आंटी के आस-पास ना रहे, जिससे उनको किसी भी प्रकार का संबल और साहस मिलता हो | और यदि ऐसा कोई व्यक्ति अंकल-आंटी के पास आ भी जाता है, तो गुप्ताजी उस व्यक्ति को किसी भी तरीक़े से वहाँ से हटाने की जी-तोड़ कोशिशें करते हैं….
….इस बीच गुप्ताजी ने किरण को कई बार परोक्ष रूप से आगाह किया, कि वह उनकी बात या किसी भी काम का विरोध न करे | उसने अनसुना किया, तो उसके भाइयों से भी कहा, लेकिन उन्होंने भी अनसुना ही किया | जब मकान-मालिकों को कोई परेशानी नहीं हैं, तब कोई दूसरा किरायेदार उन्हें रोकने-टोकने वाला कौन होता है?
गुप्ताजी ने बातों-बातों में कई बार कहा, बल्कि एक तरह से उनको चेताया, कि उन्हें उनकी सत्ता के नीचे उनकी इच्छा के अनुसार चलना होगा, जिसमें यह भी शामिल था, कि गुप्ताजी को किरण के साथ भी कोई भी वांछित-अवांछित हरकत करने का अधिकार है | वह उनके निशाने पर थी, क्योंकि उसने उनकी निर्बाध सत्ता को चुनौती जो दी थी, एक लड़की होकर | उनकी नज़र में यह अक्षम्य अपराध था, इसलिए उसे उसकी औक़ात दिखाना गुप्ताजी को बहुत ही अधिक ज़रूरी लगा |
लेकिन किरण और उसके भाई-बहन ने यथासंभव गुप्ताजी से अपनी तकरार रोके रखी थी | एक दिन, उस मकान में शिफ्ट करने के कुछ ही सप्ताह बाद, जब कई बार गुप्ताजी बेधड़क उनके घर में घुस गए, तब उन लोगों ने अपने घर के प्रवेश-द्वार पर लगी ग्रील में ताला लगा दिया, जिसे खोलकर गुप्ताजी बेधड़क और निःसंकोच उनके घर में घुस जाया करते थे; जैसे अंकल-आंटी के घर में घुस जाया करते थे | उस ताले की एक-एक चाभी चारों भाई बहनों के पास रहती थी, ताकि सभी अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार आ-जा सकें और किसी को इंतज़ार न करना पड़े | …और उनकी देखा-देखी अंकल-आंटी ने भी अपने घर की ग्रील में ताला लगा दिया | शायद उनका खोया हुआ साहस लौटने लगा था, गुप्ताजी को एक लड़की से बार-बार हारते हुए देखकर | इसी तरह के कई और काम उन लोगों ने किए और उनके कहने पर या परामर्श पर, अथवा कभी-कभी देखकर भी, अंकल-आंटी ने भी किए | नतीजा ये हुआ, कि धीरे-धीरे उनके साथ-साथ अंकल-आंटी के जीवन में भी गुप्ताजी का नियंत्रण और दखल कम होता चला गया | इससे गुप्ताजी, किरण से बेतहाशा चिढ़ने लगे | वे अक्सर मौक़े की तलाश में रहते और मौक़ा मिलने पर उसे उसकी औक़ात दिखाने की भरपूर कोशिशें करते थे | यह अलग बात है, कि हर बार वे मुँह की खाकर लौटते | तब एक दिन उन्होंने किरण को खुली चेतावनी दे डाली
– “एक बात तू कान खोलकर सुन ले, किरण ! मैं बिहारी हूँ, एक नंबर का कमीना ! मैं जिसको बर्बाद करने की सोच लूँ, उसको बर्बाद करके छोड़ता हूँ ! तू चाहे तो जाकर अंकल-आंटी से पूछ ले ! इसलिए इस मकान में पिछले तेरह-चौदह सालों से वही होता आया है, जो मैं चाहता हूँ | …इस मकान में वही किरायेदार रह सकता है, जिसे मैं चाहूँ ! इसलिए तू इस बात को अच्छी तरह समझ ले, कि यदि तुझे और तेरे भाई-बहन को यहाँ रहना है, तो मेरी मर्जी से चलना होगा…!” गुप्ताजी की चेतावनी किरण को चिंतित कर गई, परन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी
– “बिहारी तो हम भी हैं, गुप्ताजी ! लेकिन हम कमीने नहीं हैं | रही आपके बिहारी और कमीना होने की बात, तो आप बिहारी नहीं भी होते, कुछ भी होते, तो भी आप इतने ही कमीने होते, जिसकी आप घोषणा करते रहते हैं !” किरण ने उनकी बात को उन्हीं की तरफ़ उछाल दिया
उसके बाद कई बार ऐसी धमकियाँ उसे और उसके भाई-बहन को मिलीं | गुप्ताजी का हर वार ख़ाली जा रहा था, क्योंकि उनकी हरकतों से आजिज आ चुके अंकल-आंटी परोक्ष रूप से उनका समर्थन ही कर रहे थे | इन तमाम तू-तू-मैं-मैं के बीच ही उन्हें वहाँ रहते हुए दो साल से अधिक बीत चुका था | धीरे-धीरे उन लोगों ने गुप्ताजी से एकदम बातचीत बंद कर दी थी, बल्कि कहना चाहिए, कि गुप्ताजी ही, हर बार मुँह की खाने के बाद, खुद ही उनसे बचने लगे थे और उन्होंने भी उनसे कोई बात न करना ही ठीक समझा |
…एक दिन किरण घर का किराया देने अंकल-आंटी के पास गई | लगभग पाँच-सात मिनट बाद ही गुप्ताजी भी कहीं जाने के लिए तैयार होकर एक छोटे-से बैग के साथ वहाँ आये, वे अपने गाँव जा रहे थे, पत्नी और बच्चों को शहर लाने | इसलिए जाने से पहले अंकल-आंटी से मिलने और घर जाने की बात बताने आये थे | किरण ने उनकी ओर नहीं देखा, जानबूझकर | कौन ऐसे व्यक्ति के मुँह लगे | सामने बैठी लड़की, वह भी उनकी पुरानी प्रतिद्वंद्वी, उन्हें इस तरह ‘इग्नोर’ करे, यह बात शायद उनको बर्दाश्त नहीं हुई | उन्होंने तब परोक्ष रूप से उस पर व्यंग्य किया
– “वो औरत ही अच्छी होती है, आंटी, जो मर्द के पैरों की जूती बनकर रहे |”
लेकिन किरण ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी | गुप्ताजी इससे और अधिक चिढ़ गए और बार-बार अपनी बात दुहराने लगे | जब अंकल ने उससे कहा, कि ‘गुप्ता तुझे ही कह रहा है, किरण’ तब किरण ने गुप्ताजी को उत्तर देना ज़रूरी समझा
— “मैं जूते-चप्पलों से बात नहीं करती, अंकल ! मैं इंसान हूँ, तो इंसानों से ही बात करती हूँ ! मुझे जूते-चप्पलों की बात समझ नहीं आती !” गुप्ताजी की बात को उन्हीं की लानत में लपेटकर किरण ने उनकी ओर उपेक्षा से फेंक दिया
— “तूने मुझे जूता-चप्पल कहा…??? …तेरी इतनी हिम्मत…???” अंकल-आंटी किरण की बात नहीं समझ पाने के कारण चेहरे पर प्रश्नवाचक चिह्न लेकर कभी उसे तो कभी गुप्ताजी को ताकने लगे, लेकिन गुप्ताजी समझ गए थे, इसलिए आपे से बाहर हो गए थे
— “मैंने आपको जूता-चप्पल नहीं कहा, गुप्ताजी ! अपना परिचय तो आप खुद ही दे रहे हैं….!….मैं तो आपको इंसान समझ रही थी, लेकिन चलिए अच्छा हुआ, कि आपने अपना परिचय खुद दे दिया ! मैं याद रखूँगी आपका यह परिचय !” किरण ने कटाक्ष किया, गुप्ताजी अवाक रह गए और अंकल-आंटी के चेहरे पर एक क़िस्म का संतोष चमक उठा, वे होठों में मुस्कुरा पड़े
– “तेरी हिम्मत कैसे हुई, मुझे जूता-चप्पल कहने की ?” गुप्ताजी गरजे
– “अरे, आपने ही तो अभी-अभी बताया ! …”
– “मैंने कहा…?…मैंने कहा…?” गुप्ताजी गरज रहे थे, तीर एकदम सटीक निशाने पर जो लगा था | लेकिन किरण एकदम सहज और शांत थी, वह समझ चुकी थी, कि गुप्ताजी अपने ही जाल में उलझ चुके हैं, अब केवल रस्सी खींचना बाकी है…
– “…अरे भई…! आपने ही तो कहा, कि अच्छी औरत वो होती है, जो मर्द के पैरों की जूती बनकर रहे …! …और आप तो अपनी माँ की पूजा करते हैं ! …यानी आप मानते हैं कि आपकी माँ अच्छी औरत थीं…है ना गुप्ताजी ?…..” किरण ने अब रस्सी खींच दी और उनकी ही बात के कीचड़ में उनको बल-पूर्वक खींच लिया, हालाँकि एक दिवंगत स्त्री के लिए इस तरह की भाषा का प्रयोग करते हुए उसे बहुत बुरा लग रहा था | किन्तु कहते हैं ना, कि काँटे को काँटे से ही निकाला जा सकता है, या विष का ईलाज विष से ही होता है; तो गुप्ताजी जैसे लोगों का ईलाज उन्हीं के तरीक़े से करना कभी-कभी ज़रूरी हो जाता है | किरण इस बात को अच्छी तरह समझती थी…
– “….और अच्छी औरत होने के कारण आपकी माँ, आपके पिताजी के पैरों की जूती थीं…है ना, गुप्ताजी…! …और मुझे पूरा विश्वास है, कि आपके पिताजी भी जूता ही होंगे, क्योंकि आपकी दादी भी अच्छी औरत ही होंगी, इसलिए वो भी आपके दादाजी के पैरों की जूती ही होंगी …! …तो इस हिसाब से ‘जूती’ यानी आपकी दादी, का बेटा, यानी आपके पिताजी, ‘जूता’ हुए ! और देखिए ना, कितना बढ़िया कॉम्बिनेशन है, आपकी माँ जूती थीं.. और आपके पिताजी जूता…! …राम मिलाई कैसी जोड़ी…?” किरण ने जैसे कोई जूता ही गुप्ताजी के सिर पर दे मारा, गुप्ताजी तिलमिला उठे | गुप्ताजी को काटो, तो खून नहीं | उनके चेहरे पर बेचैनी साफ़-साफ़ दिखने लगी थी | अंकल-आंटी हैरत से आँखें फाड़े किरण की बात सुन रहे थे, उनके चेहरे पर झलकता हुआ संतोष अब पूरी तरह से प्रकट हो रहा था |
– “….और इतना तो साइंस आप भी जानते हैं, गुप्ताजी, कि शेर-शेरनियों से केवल शेर-शेरनियाँ ही पैदा हो सकते हैं, न कि बाघ-बाघिनें, या बिल्लियाँ या कोई और पशु-पक्षी; उसी तरह बाघ-बाघिनों से केवल बाघ-बाघिनें ही पैदा हो सकते हैं, कोई और जीव-जंतु नहीं; बिल्लियाँ भी केवल बिल्ले-बिल्लियों को ही जन्म देती हैं | ऐसे ही आम के पेड़ पर केवल आम के फ़ल लगते हैं, न की जामुन या लीची के; और लीची के पेड़ पर लीची, सेब के पेड़ पर सेब, अमरुद के पेड़ पर अमरुद ही फलते हैं, गुप्ताजी… | ये तो प्रकृति का नियम है !” गुप्ताजी को कुछ बोलने का अवसर दिए बिना किरण ने अपनी बात जारी रखी, गुप्ताजी की व्यंग्य करनेवाली जबान अब सिल चुकी थी
— “… और… आप इससे इन्कार नहीं कर सकते, कि इन्सानों से भी केवल इंसान ही पैदा हो सकते हैं, कुछ और नहीं …..!” इतना कहकर एक क्षण को किरण रुकी, केवल यह देखने के लिए, कि उसकी बात का वांछित प्रभाव गुप्ताजी पर पड़ रहा है, या नहीं | उनका चेहरा तो गुस्से से तमतमा रहा था, लेकिन जबान बंद थी
— “…ठीक उसी तरह, जूते-जूतियों से केवल और केवल जूते-जूतियाँ ही पैदा हो सकते हैं, इंसान नहीं, या बाघ, शेर या अन्य कोई दूसरा जीव भी नहीं …! गुप्ताजी पर वांछित प्रभाव पड़ता देख किरण ने बात को आगे बढ़ा दिया, गुप्ताजी सोफ़े पर बैठे-बैठे कसमसाने लगे थे
— “…और आपके माता-पिता तो जूते-जूतियाँ हैं, आपने अभी-अभी खुद ही बताया ! तो उनकी औलाद होने के कारण आप और आपके भाई-बहन तो जूते-जूतियाँ ही हुए ना ! …और आप तो एकदम पक्के वाले जूते हैं गुप्ताजी, इसमें कहीं कोई संदेह अब नहीं बचा है …|” किरण एक झटके में यह बात कह गई, गुप्ताजी चारों खाने चित थे, उनकी बेचैनी देखने लायक थी
अंकल-आंटी ठहाके लगाकर ज़ोर-ज़ोर से हँसने और कहकहे लगाने लगे | गुप्ताजी के चेहरे का रंग उड़ चुका था, उनकी शक्ल देखने लायक थी |
— “अरे वाह, बेटे, तूने मेरा दिल ख़ुश कर दिया ! अब तक इस गुप्ता को जवाब देने वाला कोई नहीं था, इसीलिए ये अब तक सबके सिर पर नाचता था | तूने बढ़िया जवाब दिया इसको |… बोल गुप्ता, कोई जवाब है तेरे पास…?” सालों से गुप्ताजी से चिढ़े अंकल के घावों पर जैसे मरहम लग गया था | उनकी आवाज़ गुप्ताजी के सामने खुलने लगी थी और यह प्रतिक्रिया उसका पुख्ता सबूत थी
— “…………..!!!” गुप्ताजी खामोश…..केवल उनकी जलती आँखें किरण को घूर रही थीं |
अंकल-आंटी की हँसी और प्रतिक्रिया ने गुप्ताजी को एहसास करा दिया, कि वे लोग उनके नियंत्रण से मुक्त हो चुके हैं या होने की प्रक्रिया में हैं | गुप्ताजी उठकर दनदनाते हुए चले गए | लेकिन अपने गाँव जाने के लिए बिल्डिंग से बाहर जाने की बजाय, अपना बैग थामे हुए पहले ऊपर अपने कमरे में गए और पाँच-दस मिनट बाद घर में पुनः ताला लगाकर गाँव चले गए | अगले दिन सबको पता लगा, कि वे पानी के सारे नल खोलकर चले गए हैं, जिससे टंकी का सारा पानी बह जाता था | अंकल ने कहा, कि ‘गुप्ता ने यह सब जानबूझकर किया है, हमें परेशान करके अपने अपमान का बदला लेने के लिए’ | सभी पानी के अभाव में बहुत परेशान हुए |
लगभग बारह-पंद्रह दिनों बाद जब गुप्ताजी अपनी पत्नी और बेटे के साथ आए, तो अंकल ने पानी का नल खोलकर चले जाने के लिए उनको भला-बुरा कहा | लेकिन गुप्ताजी ने अपनी ग़लती मानने की बजाय, ढिठाई दिखाई
— “हाँ, मैं जानबूझकर नल खोल कर गया था, तुमलोगों को यह बताने के लिए, कि मुझसे बाहर यहाँ कोई नहीं हैं | जो मेरी बेइज्ज़ती करेगा, उसे मैं छोडूँगा नहीं | मैं जो चाहूँ, वो कर सकता हूँ ….!” गुप्ताजी ने बेझिझक कह दिया
— “…..तो ठीक है, अब तू इस घर में नहीं रहा सकता ! एक महीने के अन्दर-अन्दर मेरा घर ख़ाली कर दे ….!” अंकल ने एक झटके में बिना डरे, बिना झिझके कह दिया | शायद वे सालों से इसी मौक़े की तलाश में थे
— “……………….!!!” गुप्ताजी निरुत्तर …! उन्हें तनिक भी अंदाज़ा नहीं था, कि जो अंकल-आंटी उनके सामने एक शब्द भी मुँह से नहीं निकालते थे, वे इतने निडर कैसे हो सकते हैं ……!!!
– डॉ कनक लता
नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…
वाह बहुत खूब……. इट का जवाब पत्थर से हुवा
धन्यवाद हेमकांत जी
पहल अगर हो तो रास्ते निकलते हैं, और गंदे लोगों के मुहँ पर डाट लग जाता है.
बहुत बहुत धन्यवाद आपका …
हर बेटी कनकलता और किरण जैसी हो जाय तो बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ के स्लोगनों की जरूरत ही न पढ़े।अपनी सशक्त लेखनी से आने वाली पीढ़ी की हर बालिका को किरण और कनक जैसा बनाने की कोशिश करो।
उत्साह वर्द्धन के लिए मैं ह्रदय से आपकी आभारी हूँ, मैडम …