बतकही

बातें कही-अनकही…

— “मैं जानता हूँ, कि वे लोग मुझे जल्दी ही मार देंगें !” उस बारह-चौदह वर्षीय किशोर की आवाज़ में जितना भय था, उतनी ही पीड़ा भी, जो अभी दस मिनट पहले ही चलती बस में दौड़ता हुआ चढ़ा था | उसकी आवाज़ भय के कारण लगभग काँप रही थी |

उसकी बात सुनकर मैं स्तब्ध रह गयी | ड्राइवर और कंडक्टर ने किशोर को दया भरी नज़रों से देखा | बाक़ी यात्री बच्चे के बारे में क्या सोच रहे थे, यह मैं नहीं देख पाई …

… दिल्ली प्रवास के दौरान साल 2012 की गर्मियों के एक दिन मैं किसी काम से दिलशाद गार्डन से रूट नं 982 की बस से किंग्सवे कैंप जा रही थी | बस लगभग खाली ही थी | पूरी बस में मुश्किल से चार-पाँच ही यात्री रहे होंगे | भयंकर गर्मी का मौसम … उसपर दोपहर का समय … दिल्ली व्यस्ततम शहरों में शुमार है, तो क्या हुआ … ? इस जलानेवाली लू के थपेड़े कौन खाए ? जिनको बहुत ज़रूरी काम ना हो, वे सब अपने-अपने घरों में गर्मी से बचने के उपाय में लगे होंगें | लेकिन जिनको जरुरी काम हैं, उनको तो गर्मी क्या, और सर्दी क्या …?

बस अभी-अभी शाहदरा बस-स्टैंड पर चार-पाँच सेकेण्ड रुकी थी, यात्रियों के लिए, लेकिन उस लू चलती दोपहर में वहाँ कोई भी किसी बस के इंतज़ार में नहीं खड़ा था | शायद वहाँ से किसी को भी कहीं नहीं पहुँचना था | तब कोई यात्री वहाँ न पाकर बस धीरे-धीरे सरकती हुई आगे चल दी | बस क़रीब सत्तर-अस्सी मीटर चली ही होगी, कि ड्राइवर ने अचानक बस की गति धीमी कर दी | सबकी नज़रें बस के पीछे मुड़ गयीं, कि शायद कोई यात्री चढ़ना चाहता है और उसने गाड़ी को रोकने का इशारा किया है | मैंने भी उत्सुकतावश बस के पीछे देखा, क्योंकि दिल्ली जैसे निर्दय और स्वयं में ही डूबे रहने वाले महानगर में बस चालक सामान्य तौर पर इतनी दरियादिली नहीं दिखाते हैं, मेरा पिछले 20 सालों का दिल्ली-प्रवास का अनुभव तो यही कहता है … चाहे कोई कितना भी बड़ा भोंपू लेकर चिल्लाए –‘दिल्ली दिलवालों का शहर है’…! उसपर भी सरकारी बस का ड्राइवर …? वे तो जैसे नियत बस-स्टैंड पर रोक कर ही यात्रियों पर बेहद एहसान करते हैं …! और फिर इस भयानक झुलसाती लू वाली गर्मी में तो बहुत कम ही ड्राइवरों को इतनी दरियादिली दिखाते मैंने देखा है, चाहे बस में अधिकांश जगह ख़ाली ही क्यों न हो !

… सभी यात्रियों के साथ मैं भी यह जानने को उत्सुक हो उठी थी, कि किस ख़ुशनसीब के लिए इस सरकारी-बस के ड्राइवर की सहानुभूति जगी है, वह कौन महाभाग है, जिसके लिए इस बस के ड्राइवर ने बस की गति धीमी की है ? अवश्य ही वह कोई ख़ास व्यक्ति होगा, अथवा कोई ख़ास बात होगी … तभी इस बस के ड्राइवर ने गाड़ी की गति धीमी की है | कहीं टिकट चेकर तो नहीं हैं, क्योंकि उनके लिए तो कोई भी नियम नहीं है, उनके लिए कभी भी, कहीं भी बस रोकी जा सकती है …|

… उत्सुकतावश मैं बस के पीछे की ओर देखने लगी, लेकिन मुझे वहाँ कोई नहीं दिखा | चार-पाँच सेकेण्ड बाद थककर मैंने अपनी नज़रें आगे की ओर घुमा ली, तभी बस की साइड मिरर में कोई दिखा …| चूंकि मैं आगे की ही सीट पर बैठी थी, जो ठीक कंडक्टर की सीट के पीछे ही थी, इसलिए मैं बस में लगे साइड मिरर में देख सकती थी |

… बस से लगभग आठ-दस मीटर के फ़ासले पर एक बारह-चौदह वर्ष का बालक एक पैरों से लंगड़ाता हुआ कोलतार की जलती सड़क पर नंगे पैरों दौड़ा चला आ रहा था | मेरी आँख एक झटके से बस के पीछे-पीछे दौड़ते उस बालक की ओर मुड़ गयी, बल्कि प्रत्येक यात्री की आँखें उसे ही देख रही थीं |

ड्राइवर ने गाड़ी और धीमी कर दी | शायद उसको भी बच्चे की तक़लीफ़ का एहसास गहरा गया था | कंडक्टर ने जल्दी-से अपनी सीट से उठकर गाड़ी का गेट खोला और अपना सिर बाहर निकालकर बच्चे को देखने लगा, जिसका आशय था – “जल्दी आ जाओ बच्चे, मैंने गेट खोल दिया है” | लेकिन शायद अब बच्चे से अधिक दौड़ा नहीं जा रहा था | कंडक्टर ने गेट पर खड़े-खड़े ही अपना सिर घुमाकर ड्राइवर की ओर देखा और कुछ इशारा किया | ड्राइवर ने गाड़ी लगभग रोक दी | बच्चा दौड़कर बस में चढ़ गया | कंडक्टर ने तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया |

बच्चे की ओर दोनों, ड्राइवर और कंडक्टर, ने दया भरी नज़रों से देखा -“पता नहीं इस अभागे का क्या होगा?” बच्चा बदहवास-सा घबराई नज़रों से चारों ओर देख रहा था | अब मैं ध्यान से उसे देख पाई |

उसने बिना बाँह वाली एक मैली-सी, जगह-जगह से फटी हुई सफ़ेद बनियान और पुरानी काले रंग की मैली-कुचैली घुटनों तक की निक्कर पहनी हुई थी | पैरों में कोई चप्पल नहीं थी | गले में एक काले धागे में ताबीज भी बँधा था | बच्चा निश्चय ही किसी मज़दूर या ऐसे ही किसी निम्नवर्गीय परिवार का होगा, उसकी स्थिति एवं वेशभूषा देखकर मैंने अनुमान लगाने की कोशिश की ….|

उसके बाएँ पैर के तलवे में चोट लगी थी, जो शायद कुछ गहरी थी और इसीलिए वह लंगडाकर चल रहा था | उस चोट पर हल्दी लगाकर एक सफ़ेद रंग का कपड़ा बाँधा गया था | खून के धब्बे उसके तलवे पर अभी भी कई जगह चिपके हुए थे | साथ ही, हल्दी का पीलापन खून के धब्बों के साथ ही पट्टी की परतों को पार कर जगह-जगह से झाँक रहा था | घाव ताज़ा ही प्रतीत हो रहा था, या अधिक-से-अधिक शायद पिछली रात का होगा |

उसके चेहरे पर बेहद गहरी पीड़ा थी | जो पता नहीं, उस पाँव की चोट से उपजी थी, या किसी और वजह से? तत्काल समझ में नहीं आया, क्योंकि उसके चेहरे की रेखाओं में जो चित्र उभर रहे थे, वे शारीरिक कष्ट की तुलना में किसी मानसिक या भावनात्मक पीड़ा के चिह्न अधिक प्रतीत हो रहे थे | उसे देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे मोहन राकेश की कहानी ‘मवाली’ का ‘मवाली-बालक’ कहानी से निकलकर मेरे सामने आकर खड़ा हो गया हो |

बच्चा कुछ देर तक पूरी बस में नज़र दौड़ाता रहा, जैसे सभी से कुछ याचना कर रहा हो | वह किसी भी सीट पर बैठ नहीं रहा था, जबकि चार-पाँच सीटों के अलावा शेष पूरी बस खाली थी | हालाँकि उस पुरानी खड़खड़िया डीटीसी बस के लगातार दोलायमान होने से उसका संतुलन बार-बार बिगड़ रहा था और वह एक पैर के सहारे किसी तरह खड़ा, बार-बार अपने को गिरने से बचाने की कोशिश कर रहा था | क्या जाने, शायद वह अपनी सामाजिक-स्थिति से वाकिफ़ होने के कारण संकोच कर रहा हो… ?

हमारा तथाकथित सभ्य मानव समाज तो अपने प्रत्येक घटक को –यानि प्रत्येक वर्ग को, वर्ण को, समुदाय को- बचपन से ही यह शिक्षा देना आरम्भ कर देता है, कि उसे किसके आगे नतमस्तक होना है और किसको अपने सामने झुकाना है, किस समय तनकर खड़े होना है और कब दूसरों के सामने याचक-भाव से फरियादी होना है, कब मौन धारण करना है और किस समय मुखर हो उठना है …!

शायद वह भी समाज के इस रवैये से इस छोटी-सी उम्र में ही अच्छी तरह वाकिफ़ हो गया था …| शायद इसीलिए अपनी सामाजिक स्थिति को अच्छी तरह समझने के कारण वह अपनी याचना-भरी आँखों से बस के यात्रियों को निहार रहा था |

मेरी बगल वाली सीट खाली थी | मैंने उससे कहा, कि “बेटे, आकर यहाँ बैठ जाओ |” बच्चे को जैसे राहत मिली | पैर और मन की पीड़ा से आहत वह लगभग उतावली में मेरे पास आकर साथ वाली सीट पर बैठ गया | थोड़ी देर बाद जब वह कुछ प्रकृतिस्थ हुआ, तब मैंने उससे पूछा

— “बेटे, तुम्हें ये चोट कैसे लगी? और इस हालत में, इस भयंकर गर्मी की दोपहरी में तुम कहाँ जा रहे हो?” लड़के ने मेरी ओर ऐसे देखा, जैसे मैंने उसकी चोरी पकड़ ली हो | लेकिन अगले ही क्षण उसके चेहरे की रेखाओं में कुछ और तस्वीरें बनने-बिगड़ने लगीं थीं …

— “मेरा कोई पीछा कर रहा है, दीदी ! …कई दिनों से | उन्हीं से बचने की कोशिश कर रहा हूँ ! भागते हुए ही कल मेरा पैर कूड़े में शीशे से कट गया …..|” कुछ क्षण सोचने के बाद उसने मरी-सी बुझी-बुझी आवाज़ में कहा

मुझे बेहद हैरानी हुई, इस छोटे-से बच्चे का पीछा कोई क्यों करेगा? मेरे चेहरे पर आई हैरानी और अविश्वास को उसने पढ़ लिया | उसके बाद उसने जो बताया, उसपर मेरे कानों को सहसा यकीन ही नहीं हो सका… अन्य यात्रियों को भी यकीन नहीं हुआ था, उनकी ऑंखें कह रही थीं … …

— “मेरा भाई और उन लोगों में गैंग-वार हुआ था, चार-पाँच महीने पहले | उसमें मेरा भाई मारा गया | उसके बाद ये लोग मुझे भी मार देने के पीछे पड़े हैं …|” उसने आहत स्वर में बताया

— “… तुम्हारा भाई तो बड़ा होगा, जिससे वे लोग डरते होंगें | …लेकिन तुम तो अभी बहुत छोटे बच्चे हो | फिर तुम्हें ऐसा क्यों लगता है, कि वे लोग तुम्हें मार देंगें?” मैंने बीच में रोककर पूछा

— “मेरा भाई भी बहुत छोटा था, दीदी ! केवल सोलह साल का, जिसको इन लोगों ने मार दिया | उन लोगों का कहना है, कि बड़ा होकर मैं अपने भाई की मौत का बदला लूँगा, इसलिए मुझे मार देना ज़रूरी समझते हैं वे लोग ! इसीलिए मुझे वे ढूँढ रहे हैं, कई दिनों से | और मैं यहाँ-वहाँ छिपकर बचने की कोशिश कर रहा हूँ ! मैं मरना नहीं चाहता ! मुझे बहुत डर लगता है, दीदी !” बच्चे ने बुझती-सी आवाज़ में कहा

मेरा कलेजा काँप गया, उसकी बात सुनकर; दिल भर आया, उसकी मनःस्थिति देखकर | मैं हैरान थी और सहयात्रियों, जो बड़े ध्यान से उस बच्चे की बात सुन रहे थे, के चेहरे भी बता रहे थे, कि उनकी भी कमोवेश वही स्थिति हो रही थी, जो मेरी थी | हमारे सामने एक ऐसा बच्चा बैठा था, जो हमारी उस अनदेखी अपराध की दुनिया के निशाने पर था और बहुत जल्दी उसका ‘फ़ैसला’ होने वाला था, किसी भी दिन, किसी भी समय ……!

कहते हैं, समाज अपने व्यक्तियों के पोषण, शिक्षण और सुरक्षा के लिए होता है | इसलिए व्यक्ति अपने समाज में सुरक्षित होता है | सुरक्षा और संस्कारों की साझी-ज़िम्मेदारी के कारण ही समाज को स्तुत्य और ग्रहणीय माना गया है, समाज के बाहर किसी व्यक्ति का अस्तित्व स्वीकार्य नहीं … और अस्तित्व संभव भी नहीं …….! लेकिन तब क्यों उस बच्चे के लिए हमारा समाज उसका रक्षक नहीं बन सका ? क्या समाज की ज़िम्मेदारी केवल कुछ लोगों की सुरक्षा के प्रति ही है ? क्या समाज का उत्तरदायित्व कमज़ोरों के प्रति, केवल उन्हें नियंत्रित और आदेशित करने तक ही सीमित है, उनकी सुरक्षा और पोषण के प्रति उसकी क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं है …?

…….नहीं……!!! ऐसा समाज स्तुत्य नहीं हो सकता ……!!! एक छोटा बच्चा, महज़ बारह-चौदह साल का, अपनी सुरक्षा के लिए इस प्रकार मारा-मारा फिरे, जीवित रहने के लिए रोज़-रोज मानसिक और भावनात्मक मृत्यु का वरण करने को अभिशप्त हो, यह किस समाज के लिए स्पृहणीय होगा, कौन-सा संवेदनशील समाज इसको स्वीकारेगा ? मैंने अपने दिल में बहुत पीड़ा महसूस की ……

…एक बात मैं उस दिन अच्छी तरह समझ गयी, कि अपराध की दुनिया में उम्र कोई मायने नहीं रखती है | हम न जाने कितने समाचार-पत्रों और ख़बरों में, फिल्मों में, अपने आसपास मौजूद अपराध की इस रोमांचक-दुनिया के बारे में न जाने कितने तरह के हैरतअंगेज और सनसनीखेज किस्से-कहानियाँ देख-पढ़कर अचंभित होते रहते हैं | दिल्ली हमारे देश की राजधानी है, तो क्या हुआ, इसके भी कई इलाके ऐसे अपराधों, बाल-अपराध सहित, के हॉट स्पॉट हैं, जिसके बारे में समाज भी जानता है, हमारी सरकारें भी जानती हैं, और दुर्भाग्य से, अपराध की दुनिया के प्रति आकर्षित होने वाले या धकेल दिए जाने वाले ऐसे बच्चे भी जानते हैं …!  

…अचानक मेरे मन में यह सवाल कौंधा, कि बच्चे के माता-पिता कहाँ हैं, जो इनको अपराधियों के हाथों में इस तरह खेलता छोड़कर निश्चिन्त हैं? और यह बारह-चौदह वर्षीय बालक इस तरह अपनी जान हथेली पर रखकर भाग रहा है? मैंने अपने मन की उलझन बच्चे के सामने रख दी और जिज्ञासा से उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगी | लड़के ने जो जवाब दिया, उसकी उम्मीद मुझे कत्तई नहीं थी ……

— “जब मेरे भाई की हत्या हो गई, तो मेरी अम्मी यह सदमा नहीं बर्दाश्त कर पाई | उसने चाकुओं से गोदी हुई भाई की लाश देखी थी, हॉस्पिटल में | और उसके कुछ ही दिनों बाद वह भी मर गयी ….!” बच्चे की आवाज़ काँप रही थी, जैसे वो अभी रो देगा; माँ के मरने की पीड़ा उसके चेहरे से, नाउम्मीदी से बुझी उसकी आँखों से, उसकी काँपती आवाज़ से जैसे टपक-टपक पड़ती थी …

— “…….अब मेरा एक छोटा भाई है, दो साल का, मैं हूँ और अब्बू हैं | अब्बू ने अम्मी के मरने के कुछ ही दिनों बाद दूसरी शादी कर ली और उसके बाद मुझे घर से भगा दिया | वे कहते हैं, मैं उनके साथ नहीं रह सकता, क्योंकि नई अम्मी को मेरा उनके साथ रहना पसंद नहीं ! उनके साथ केवल मेरा छोटा भाई रहता है |” बच्चे का स्वर अंगारे की तरह मेरे मन को दहला गया, ड्राइवर और कंडक्टर सहित अन्य यात्रियों के चेहरे भी ऐसे लग रहे थे, जैसे अभी टपक कर चू पड़ेंगे …..

…अपनी बात कहते-कहते अचानक वह उठकर खड़ा हुआ और तेज़ी से बस के गेट की ओर भागा | कंडक्टर ने लपककर गेट खोल दिया | …..और….. इसके पहले, कि मैं कुछ समझ पाती, या कोई भी कुछ समझ पाता, वह बस से उतरकर देखते-ही-देखते न जाने किधर ओझल हो गया | तब मुझे ध्यान आया, कि जब वह मुझसे बात कर रहा था, उस समय भी वह सतर्क नज़रों से लगातार खिड़की के बाहर कुछ टटोल रहा था |

मैं तेज़ी से दरवाज़े की ओर बढ़ी, उसे रोकने के लिए, लेकिन कंडक्टर और ड्राइवर ने हाथ के इशारे मुझे रोक दिया  

— “जाने दो मैडम, कोई कुछ नहीं कर सकता | वैसे भी ये ज़्यादा दिन नहीं जिएगा | सुना नहीं आपने, जो उसने कहा? इस इलाक़े में ऐसे दर्ज़नों बच्चे हैं… पूरी दिल्ली में ऐसे हज़ारों बच्चे हैं… हम तो रोज़ ही देखते हैं | लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते… कोई कुछ नहीं कर सकता…….” कंडक्टर ने मरी हुई-सी आवाज़ में कहा 

ड्राइवर और कंडक्टर खामोश थे, जैसे किसी का अंतिम संस्कार करके घर लौट रहे हों …. ….

यात्री भी उसी ख़ामोशी की चादर में लिपटे हुए थे, जैसे हलक में हाथ डालकर किसी ने उनकी आवाज़ छीन ली गई हो …. ….

वह दमघोंटू सन्नाटा बस में काफ़ी देर तक पसरा रहा, कोई कुछ नहीं बोल रहा था, जैसे सभी को सामूहिक फाँसी की सज़ा सुनाई गई हो …. ….

………………………………….

हर डर के आगे जीत नहीं होती है, साहब ! वे लोग ख़ुशनसीब होते हैं, जिनके जीवन में डर के आगे जीत होती है …. लेकिन इस दुनिया में, हमारे समाज में कुछ बदनसीब ऐसे भी होते हैं, जिनके लिए डर के आगे मौत होती है, ………असहाय मौत …… !!! ……

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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8 thoughts on “डर के आगे क्या है ….

  1. जितना आप को पढ़ती जा रही हूं उतनी ही ज्यादा डूबती जा रही हूं।

  2. कहानी बहुत ही अच्छी और समाज की सच्चाई को झलकाती हुई है। आपकी लेखन कला भी अच्छी है। उम्मीद करती हूँ और ऐसी कहानियाँ हमे पढ़ने को मिलेगी।

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