बतकही

बातें कही-अनकही…

— “आप हमारे साथ खाना नहीं खा सकते, मुखिया जी” अध्यापक ने कहा

— “क्यों …….???” मुखिया जी ने हैरानी से पूछा  

— “यदि आप हमारे साथ खाएँगे, तो हम खाना नहीं खाएँगे, क्योंकि यह हमारा अपमान होगा | आप हमारे साथ नहीं खा सकते ……!” अध्यापक ने दृढ़ता से कहा  

— “………………” मुखिया जी का चेहरा फ़क्क पड़ गया | उनसे कोई उत्तर देते नहीं बन रहा था | अपमान और तिरस्कार के कारण उनकी आँखें भर आई, उनकी आँखों में आँसू तैरने लगे थे |

आस-पास खड़े लोगों को समझ में नहीं आ रहा था, कि ब्राहमण मुखिया के साथ खाना खाने में शिक्षक महोदय को क्यों अपना अपमान लग रहा है ! लोग हैरान थे, मुखिया जी के रिश्तेदार भी और अन्य ग्रामीण भी …

उत्तराखंड के एक जिले पौड़ी के अंतर्गत आने वाला प्रसिद्द धार्मिक-स्थल कोटद्वार … उसके एक कस्बे, उसे गाँव कहना अधिक ठीक होगा, में वहाँ के मुखिया मनोहरलाल पैन्यूली के बेटे आशुतोष पैन्यूली की शादी हुई, तो उन्होंने गाँव के सभी लोगों को प्रीति-भोज पर न्योता दिया | गाँव के लगभग सभी जातियों और वर्णों के लोग आमंत्रित थे |

उदारता दिखाते हुए मुखिया जी एवं उनके परिवार वाले गाँव के ही पास बने सभी सरकारी विद्यालयों के बच्चों को भी उनके विद्यालयों में जाकर आमंत्रित कर आये थे | वहीं एक प्राथमिक पाठशाला के बच्चे भी अपने अध्यापकों सहित आमंत्रित थे | छोटे-छोटे बच्चे स्वादिष्ट भोजन की आशा में ख़ुशी के मारे अपनी-अपनी कक्षाओं में शोर मचा रहे थे | अध्यापक भी ख़ुश थे, कि एक दिन ही सही, इन अभागे ग़रीब बच्चों को स्वादिष्ट भोजन तो नसीब होगा ! भोजन-माताएँ भी ख़ुश थीं, कि उनको एक दिन तो बच्चों के लिए भोजन बनाने से छुट्टी मिली और साथ ही उनको भी आज अच्छा और लज़ीज़ खाना खाने को मिलेगा |

इस प्राथमिक शाला में लगभग 36 बच्चे थे और तीन अध्यापक –जमनालाल जगूड़ी, नीलम जैन और पद्मा पुनिया | जब भोज में जाने का समय हुआ, तब अध्यापकों ने एक-दूसरे से सलाह की, कि बच्चों को कौन ले जाय, कैसे ले जाया जायँ | दरअसल नीलम जी को शाम की बस से अपनी बेटी के पास जाना था, जो देहरादून में रहती थी | अगले 4 दिन विद्यालय में छुट्टी थी, जिसका वे लाभ उठाकर बेटी और नाती-नातिन से मिल आना चाहती थीं | पद्मा जी के पति की तबियत पिछले कुछ दिनों से कुछ ठीक नहीं चल रही थी, उन्हें चलने-फिरने में भी दिक्क़त हो रही थी, बीमारी से काफ़ी कमज़ोरी आ गई थी | लेकिन ऐसी स्थिति में भी वे चाहकर भी विद्यालय में बच्चों के इम्तिहान नजदीक होने के कारण छुट्टी नहीं ले सकीं थीं | घर में भी पति की देखभाल करनेवाला कोई नहीं था | दो बेटों में से बड़ा बेटा पिछले साल ही शादी के बाद पत्नी को लेकर दिल्ली चला गया था, वहीं उसकी नौकरी लगी थी | छोटे बेटे का अभी-अभी देहरादून में इंजीनियरिंग की तैयारी के लिए एक महँगे कोचिंग में एडमिशन हुआ था, तो वह अपनी पढाई के सिलसिले में वहीं रह रहा था | इसलिए पद्मा जी अपने पति को घर में अकेला छोड़कर आईं थीं, हालाँकि उन्होंने अपने पड़ोसियों से उनको देखते रहने का आग्रह किया था, किन्तु चिंता तो फिर भी बनी ही रहती थी | किसी तरह विद्यालय में जैसे-तैसे समय बिताती थीं, लेकिन पूरा ध्यान घर में अकेले बिस्तर पर पड़े पति ही पर लगा रहता था | ऐसे में विद्यालय में अतिरिक्त समय तक रुकना उनके लिए बेहद मुश्किल था |  

तीसरे अध्यापक जमनालाल जी के बच्चे अभी छोटे ही थे | हालाँकि पत्नी भी कोटद्वार के एक किसी अन्य विद्यालय में अध्यापिका थीं और पति के बाद ही घर पहुँचतीं थी | दरअसल जमनालाल का घर उनके विद्यालय से मात्र 15-17 किलोमीटर की दूरी पर था, जबकि उनकी पत्नी घर से लगभग 28 किलोमीटर दूर स्थित विद्यालय में कार्यरत थीं | जमनालाल जी और उनकी पत्नी सविता जी ने बच्चों की बेहतर पढ़ाई एवं कुछ बेहतर शहरी-सुविधाओं के मददेनज़र शहर में ही रहना तय किया था, हालाँकि इससे पत्नी को थोड़ी दिक्क़त होती थी, विद्यालय पहुँचने में | लेकिन कहीं-न-कहीं तो समझौता करना ही पड़ता | इधर आस-पास अच्छे प्राइवेट स्कूल हैं भी कहाँ | कोटद्वार में, शहर होने के कारण, कुछ अच्छे स्कूल हैं, जहाँ वे अपने बच्चों को कुछ बेहतर पढ़ा सकते थे | सरकारी विद्यालयों में तो पढ़ाने के विषय में वे सोच ही नहीं सकते |

सरकारी विद्यालयों की हालत अब ऐसी कहाँ रह गई है, कि अपने बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा का सपना देखने वाले माता-पिता उनकी ओर देखें भी ? तनिक भी मजबूत आर्थिक-स्थिति वाले माता-पिता प्राइवेट स्कूलों की ओर ही देखते हैं | सरकारी विद्यालयों में तो बस वही बच्चे अब नज़र आते हैं, जिनके माता-पिता संभवतः अपने बच्चों की शिक्षा और बेहतर भविष्य के प्रति चिंतित नहीं हैं, जिनको लगता है, कि पढ़-लिख कर भी उनके बच्चों को अंततः वही करना है, जो खुद अनपढ़ रहकर वे लोग कर रहे हैं; या फिर वे माता-पिता, जिनकी आर्थिक हैसियत बहुत अधिक ख़राब है |

… तो अपने-अपने विद्यालयों से पति-पत्नी में से जमनालाल जी पहले घर पहुँचते थे और पत्नी सविता लगभग पौन घंटे बाद | जमनालाल जी लौटते हुए अपने दोनों बच्चों -8 वर्षीया सौम्या और 12 वर्षीय शिशिर- को स्कूल से अपनी बाइक पर ही लेते आते थे, जो रास्ते में ही पड़ता था | जब तक पत्नी घर पहुँचती थीं, तब तक बच्चे खा-पीकर खेलने में मग्न हो चुके रहते थे |

…. लेकिन आज विद्यालय में उन गरीब और मजलूम बच्चों को गाँव के मुखिया की ओर से भोजन का आमंत्रण मिला था, अधिकतर बच्चे भी अच्छे और स्वादिष्ट भोजन पाने की सोचकर बेहद उत्साहित थे | दोनों ही कारणों से इस निमंत्रण को अनदेखा नहीं किया जा सकता था | अतः तय किया गया, कि जमनालाल जी बच्चों को लेकर मुखिया जी के घर दावत पर जाएँगे | उन्होंने अपने एक पडोसी को फोन करके अपने बच्चों को स्कूल से घर ले आने को कह दिया और थोड़ी देर में पत्नी भी घर आ ही जाती |

नियत समय पर जमनालाल जी 36 बच्चों को लेकर गाँव की ओर चले, मुखिया मनोहरलाल पैन्यूली जी के घर की ओर, जहाँ दावत थी | रास्ते भर बच्चे शोर मचाते रहे, कि इस दावत में क्या-क्या बना होगा, वे क्या-क्या और कितना-कितना खाएँगें, पिछली बार उन्होंने कब किसी दावत में अच्छा खाना खाया था…. !

इन अभागे बच्चों की बातें सुनकर जमनालाल जी का दिल कचोटने लगा, “क्या ये बच्चे इतने बदनसीब हैं, कि उनको भरपेट भोजन भी मयस्सर नहीं, कि उनके सपनों में एक अच्छा भोजन बसता है, एक सुन्दर भविष्य नहीं, एक अच्छा करियर नहीं, वैज्ञानिक, डॉक्टर, अध्यापक, इंजीनियर, आदि बनने की ख्वाहिशें नहीं ….. !” लेकिन वे या उन जैसे लोग कर भी क्या सकते हैं; जब कोई समाज ही यह ठाने बैठा हो, कि उसे भूखे असहाय गुलामों की एक बड़ी-सी फ़ौज चाहिए, जो भूख से लड़ते हुए उसके सामने सदैव नतमस्तक बनी रहे, जिससे समाज के कुछ वर्गों को अपने ‘दाता’ होने का, ‘भाग्य-विधाता’ होने का, ‘स्वामी’ होने का अनिर्वचनीय आनंद मिलता रहे ?

मुखिया जी का घर आ गया, घर क्या था, एक तरह से महल ही था | ईश्वर ने उनपर अपनी भरपूर कृपा बरसाई थी | पूरा घर रंग-बिरंगे फूलों और आम के पत्तों से सजा हुआ था, बाहर विशाल मैदान में चारों तरफ़ अलग-अलग रंगों और डिजाइन के शामियाने लगे थे, रंग-बिरंगी झालरों से पूरा इलाक़ा सजा हुआ था, चटकदार झंडियाँ भी जगह-जगह लगाई गई थीं, गेंदे और गुलाब सहित अनेक प्रकार के फूलों के ख़ूबसूरत तोरण और बंदनवार लगाए गए थे, जिनकी सुगंघ किसी के भी मन को विभोर कर देने को काफ़ी थी |

तरह-तरह के रंग-बिरंगे नए कपड़ों में सजे लोग आ-जा रहे थे, चारों ओर खूब चहल-पहल थी –- यानी चारों तरफ अकुंठ ख़ुशी का माहौल था | मुखिया मनोहरलाल पैन्यूली जी और उनके नाते-रिश्तेदार रेशमी कपड़े पहने और अपने-अपने सिरों पर खूबसूरत गुलाबी पगड़ी बाँधे अपने-अपने गुलाबी चेहरों पर मुस्कराहट चिपकाए सभी आदरणीय मेहमानों का स्वागत कर रहे थे | चारों ओर तरह-तरह के व्यंजनों की खुशबू फैली हुई जैसे सभी को अपनी ओर खींच रही थी | ठीक इसी समय जमनालाल जी भी अपने 36 छात्र-छात्राओं के साथ वहाँ पहुँचे | वे सब वहाँ एक जगह खड़े होकर भीड़ में मुखिया जी या उनके घरवालों में से किसी पहचान वाले को ढूँढने लगे | इसी बीच मुखिया जी, जो थोड़ी ही दूरी पर मेहमानों से बात कर रहे थे, की नज़र उन लोगों पर पड़ी | वे लपक कर वहाँ आये और अध्यापक और बच्चों को वहाँ आने के लिए धन्यवाद दिया |

बच्चे वहाँ की रौनक देखकर हैरान और ख़ुश थे | वे यही नहीं समझ पा रहे थे, कि इतने लोग कहाँ से आ गए | कुछ बच्चों को यह सवाल परेशान कर रहा था, कि इतने सारे फूल कहाँ से आये होंगे, किस गाड़ी में भरकर इतने सारे फूल लाये गए होंगे, इतने सारे फूलों की माला बनाने में कितने दिन लगे होंगे …वगैरह …वगैरह …!

इसी बीच उनका ध्यान विभिन्न प्रकार के व्यंजनों की ख़ुशबू की ओर चला गया, बच्चे अनुमान लगाने लगे, कि किस व्यंजन की खुशबुएँ आ रही हैं | बच्चों की बातें सुनकर मुस्कुराते हुए मुखिया जी ने शरबत परोसने वाले एक सेवक को आदेश दिया, कि बच्चों को वह शरबत पिलाए | सेवक अपने कई सहयोगियों के साथ कई ट्रे में रखे रंग-बिरंगी शरबतों से भरे दर्ज़नों गिलास ले आया | रंग-बिरंगी शरबत देखकर बच्चों के बीच होड़ मच गई, कि कौन किस रंग की शरबत पिएगा | इस चक्कर में छीना-झपटी के बीच शरबत के दो-तीन गिलास नीचे गिर पड़े, लेकिन गनीमत थी, कि वे डिस्पोजल गिलास प्लास्टिक के थे, इसलिए टूटे नहीं और बच्चे चोटिल नहीं हुए | अध्यापक जमनालाल जी बच्चों का यह व्यवहार देख थोड़े झेंप-से गए और बच्चों को डाँटती नज़र से देखकर इशारे से शरारतों के लिए मना किया | लेकिन मुखिया जी विनोद से हँस पड़े और कहा – “कोई बात नहीं मास्टरजी, बच्चे ही हैं |” मास्टर साहब को भी साथ देने के लिए उनके साथ हँसना पड़ा |

शरबत पी लेने के बाद मुखिया जी ने कुछ देर बच्चों को घूम-घूमकर चारों ओर की रौनक़ और सजावट देखने को कहा, क्योंकि अभी कुछ लोग खाना खा रहे थे | मास्टर साहब जमनालाल जी ने, बच्चों को शांति बनाए रखने की हिदायत के साथ समारोह-स्थल में घूमने की इज़ाज़त दे दी | दावत की ख़ुशी में स्कूल में भी खाना नहीं खाने के कारण भूख से व्याकुल और भोजन की ख़ुशबू से उतावले हो रहे बच्चे किसी तरह अपने मन को समझाते हुए समारोह-स्थल की रौनक और सजावट देखकर अपने-आप को बहलाने की कोशिश करने लगे | अध्यापक जी गाँव के अन्य लोगों से मिलने और बात करने लगे | विद्यालय की कुछ समस्याओं का हल निकालने के लिए उनको ग्रामीणों और मुखिया जी से मदद की ज़रूरत थी |

दूसरे सरकारी विद्यालयों के आमंत्रित बच्चों में से कुछ तो अलग-अलग स्थानों पर खाना खा रहे थे, कुछ खाना खाने के बाद शरबत की चुस्कियाँ ले रहे थे, तो कुछ मिठाइयों का आनंद ले रहे थे | कुछ बच्चे उन्हीं की तरह बाहर घूमते हुए खाने के लिए अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे | जो बच्चे खाना खा चुके थे, वे व्यंजनों के प्रकार और उनके विभिन्न स्वादों के बारे में रस ले-लेकर एक-दूसरे को बता रहे थे | उनकी बातें सुननेवाले भूखे बच्चे उनकी बातें सुनकर किसी तरह अपनी जीभ और पेट को सांत्वना देने की असफ़ल कोशिशों में जुटे थे |  

थोड़ी देर बाद मुखिया जी के एक नौकर ने आकर कहा –“अब तुमलोग खाना खाने चल सकते हो |” बच्चे बेसब्र हो उठे, वे अपने गुरूजी को ढूँढने लगे, ताकि वे उनको खाना खाने की अनुमति दे सकें और उनके साथ भोजन-स्थल पर चल सकें | मास्टरजी कुछ दूरी पर ही दूसरे विद्यालय के अध्यापकों और गाँव के ही दो-तीन अभिभावकों के साथ अपने विद्यालय की किसी समस्या पर चर्चा में तल्लीन थे | बच्चों ने उन्हें ढूंढ लिया और भागे-भागे उनके पास गए और बताया, कि उनको खाने के लिए बुलाया गया है | बच्चों की व्यग्रता देखकर मास्टरजी उनके साथ चल पड़े |  

भोजन-स्थल पर कुछ लोग पंगत में बैठ चुके थे, लेकिन अभी भी बहुत जगह खाली थी | मास्टरजी ने बच्चों को बैठने के लिए कहा, बच्चे ख़ुशी से चहकते हुए अपना-अपना स्थान लेने को दौड़े | लेकिन तभी मुखिया जी के बड़े साले ने बच्चों को डाँटते हुए रोक दिया | उनके मास्टरजी वहीँ खड़े सब देखते रहे | वह व्यक्ति बच्चों से एक-एक करके उनकी जाति पूछने लगा, बारी-बारी से सभी बच्चों की जाति पूछते हुए उनमें से कुछ बच्चों को वहीँ बैठ कर सबके साथ खाने की अनुमति दी और कुछ बच्चों को उस जगह जाकर खाना खाने को कहा, जो उनके लिए ख़ास तौर पर बनाया गया था, ये बच्चे वंचित समुदायों से थे |

तब शिक्षक महोदय ने इसका विरोध किया, तो वहाँ उपस्थित लोग मास्टरजी को समझाने लगे –

— “…. अरे मास्टरजी, जब भगवान ने ही सबको बराबर नहीं बनाया है, तो हम कौन होते हैं, भगवान के विधान का विरोध करने वाले …!”

— “…. हमारे ऋषि-मुनियों की बनाई गई परंपरा है ये तो, ग़लत कैसे हो सकती है | यदि ये ग़लत होता, तो हमारे महान ऋषि-मुनि ऐसी परंपरा बनाते ही क्यों ….? आप हमारे ऋषि-मुनियों से तो अधिक नहीं जानते ना मास्टरजी !”

— “अरे मास्टरजी, अब भगवान के विधान को तो ग़लत मत ही कहो आप ..!”

लेकिन मास्टरजी नहीं माने | बच्चे सहमे हुए इस पूरे प्रकरण को देख रहे थे | उनकी आँखों में उदासी और मायूसी थी | जिन बच्चों को किसी और स्थान पर बैठाए जाने को कहा जा रहा था, उनकी आँखों में एक अलग भाव दिख रहा था, जो तिरस्कार, उपेक्षा और अपमान से उपजता है | शायद उन बच्चों ने यह जान लिया था, कि वे समाज में बाक़ी लोगों के साथ बैठने के लायक नहीं हैं | उनकी आँखें बुझी हुई थीं, उनमें भोजन के लिए अब वो ललक नहीं दिख रही थी, जो थोड़ी देर पहले ही थी |

… और उनके वे दोस्त एवं सहपाठी, जिनको अपने साथ बिठाकर वे सम्मानित लोग खाना खिलाना चाहते थे, यानी उच्च-वर्णीय बालक-बालिकाएँ …? वे क्या सोच रहे थे ? उनकी आँखों में जैसे कोई शिक़ायत तैर रही थी, उन लोगों के विरुद्ध, जो उनके दोस्तों और सहपाठियों को उनसे अलग देख और समझ रहे थे | विद्यालय में साथ-साथ पढ़ते, खेलते, खाते हुए उनके कोमल मन में अभी तक वह भावना उत्पन्न नहीं हो पाई थी, जो किसी को उच्च-वर्णीय बनाती है, तो किसी को निम्न-वर्णीय घोषित करती है | ये बच्चे भी जैसे अपने पेट की भूख से नाराज़-से हो रहे थे, अपने दोस्तों को अपमानित और तिरस्कृत होते देख शायद उनकी भी खाने की इच्छा जैसे बुझने लगी थी ….    

हालाँकि ये सभी बच्चे, सामाजिक-संरचना और उसकी व्यवस्थाओं को समझने के लिए अभी बहुत छोटे थे, मगर समाज से अक्सर मिलने वाले तिरस्कार एवं अपमानजनक व्यवहार या विशेष सम्मानजनक भाव ने उनको धीरे-धीरे यह तो जताना शुरू कर ही दिया था, कि उनमें से कौन विशेष वर्ग का है, कौन सामान्य मनुष्य है और किसकी हैसियत बदबूदार जानवरों से भी कमतर है | आख़िर समाज ऐसे ही तो अपने बालक-बालिकाओं को भविष्य के लिए प्रशिक्षित करता है ! उसके लिए कोई अलग से पाठशाला थोड़े न होती है? पाठशालाएँ, आधुनिक लोकतान्त्रिक पाठशालाएँ, तो सबको मानवीय मूल्य और उनके नैसर्गिक एवं संविधानिक अधिकारों की शिक्षा देती हैं |

…. लेकिन समाज की परंपरा और धर्म के रक्षकों में से किसी ने भी उनमें से किसी भी बच्चे के किसी भी मनोभाव को न तो देखा, न समझा, न देखने-समझने की ज़रूरत समझी -–न उनके द्वारा उपेक्षित और तिरस्कृत बच्चों को, न सम्मानित समाज के बच्चों को | लेकिन शिक्षक महोदय सब देख और समझ रहे थे | उन्हें अपने प्रत्येक विद्यार्थी की मनःस्थिति ज्ञात थी | इसलिए, और शिक्षक होने के दायित्वों के कारण भी, उन्होंने दृढ़ता से अपनी बात रखी —    

— “यदि आपलोगों को मेरे वंचित तबकों के बच्चों के साथ भोजन करने में आपत्ति है, तो आपलोग हमारे साथ भोजन मत कीजिए | लेकिन मेरे सभी विद्यार्थियों के लिए एक साथ बैठने की व्यवस्था कर दीजिए, जहाँ भी आपलोगों को ठीक लगे …| लेकिन मेरे बच्चे अलग-अलग समूह में भोजन नहीं करेंगें | वे सब एक साथ ही खाना खाएँगे |” विवाद बढ़ता देखकर जमनालाल जी ने बीच का रास्ता निकालने की कोशिश की

— “… मेरे सभी विद्यार्थी एक साथ रहते हैं, एक साथ पढ़ते हैं, साथ-साथ खेलते हैं, यहाँ तक कि सभी बच्चे विद्यालय में एक साथ एक ही जगह बैठकर खाना भी खाते हैं | हम अपने विद्यार्थियों में भेद नहीं करते | आख़िर पढ़ने-पढ़ाने का फ़ायदा ही क्या, जब हम इन चीजों से ऊपर ही नहीं उठ सकें ?” शिक्षक ने सभी लोगों को समझाने की कोशिश की |

लेकिन वे लोग इस बात पर अड़ गए, कि ऐसा करना धर्म-विरुद्ध होगा |

— “बात तो एक ही होगी, मास्टरजी …! जो बच्चे ऊँची जाति के हैं, यदि वे इन नीच जात वालों के साथ खाना खाएँगे, तो उनका धर्म तो भ्रष्ट होगा ही…..!” मुखिया जी के साले साहब का तर्क था

— “…और फिर जब ऊँची जाति के बच्चे अपना धर्म भ्रष्ट करवा कर अपने-अपने घरों को जाएँगे, तो वहाँ घरवालों का धर्म भी भ्रष्ट कर देंगें |” पास खड़े पंडित जी ने धर्म के सामने खड़ी विकट स्थिति की गंभीरता को स्पष्ट करने का प्रयास किया

अभी यह वाद-विवाद चल ही रहा था, कि मुखिया जी वहाँ आ गए, किसी ने उनको बता दिया था, इस विवाद के बारे में | उन्होंने भी मास्टरजी को दुनिया और धर्म का ऊँच-नीच समझाने के बहुत प्रयास किए और स्पष्ट निर्णय सुनाया, कि बच्चे अपनी-अपनी बिरादरी के अनुसार ही बैठाए जाएँगे |

तब मास्टरजी ने सभी बच्चों को अपने पास आने को कहा और जब सहमे हुए बच्चे आ गए, तब उन्होंने मुखिया जी से कहा, कि वे और उनके विद्यार्थी अब वहाँ भोजन नहीं करेंगें | उसके बाद सभी बच्चों को साथ लेकर वे विद्यालय की ओर चल पड़े | मुखिया सहित सभी लोग सकते में आ गए | किसी को यह तनिक भी उम्मीद नहीं थी, कि गुरूजी ऐसा कुछ कर सकते हैं ! मुखिया जी यह सोचकर ही परेशां हो उठे, कि यदि बच्चे उनके दरवाज़े से बिना खाना खाए ही वापस लौट गए, तो पूरे गाँव में उनकी बदनामी हो जाएगी | बच्चों को तो उन्होंने खुद ही विद्यालय जाकर आमंत्रित किया था, ऐसे में बच्चों को भूखा वापस लौटाना किसी तरह भी उचित नहीं था | लोग कहेंगे – “ मुखिया जी ने बच्चों को बुलाकर खाना खिलाए बिना ही वापस लौटा दिया |” गाँव में क्या इज्ज़त रह जाएगी उनकी ? धर्म की दुहाई देने वाले यही लोग सालों तक थू-थू करेंगे उनपर |

मुखिया जी ने आगे बढ़कर मास्टरजी और बच्चों को रोका और मनाने की कोशिश की | लेकिन बच्चों के मास्टरजी अब वहाँ न तो स्वयं ही खाना खाने को तैयार थे और न ही बच्चों को खिलाने को |

— “मास्टरजी, प्लीज़ इस तरह बच्चों को भूखा वापस मत ले जाइए |” तब मुखिया जी हाथ जोड़कर मिन्नतें करने लगे थे |   

— “…… माफ़ कीजियेगा मुखिया जी, लेकिन मैं मजबूर हूँ | मैं अपने प्रत्येक विद्यार्थी का शिक्षक हूँ | ये सभी बच्चे मेरे ही भरोसे पर यहाँ आये हैं | इसलिए इनके सम्मान या अपमान के लिए मैं ही ज़िम्मेदार हूँ | मैं यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता, कि मेरे उन विद्यार्थियों का अपमान हो, जो अपने जन्म के कारण निम्न समझे जाते हैं | इसमें इन बच्चों का क्या दोष? जो व्यवहार अपने विद्यालय में हम नहीं करते, उसकी इज़ाज़त किसी और को कैसे और क्यों दे दें? …. मैं माफ़ी मांगता हूँ, अब हम खाना नहीं खा सकते !” शिक्षक ने अपना तर्क दिया  

आस-पास खड़े लोगों को साँप सूंघ गया | मुखिया जी की हालत यह थी, कि काटो, तो खून नहीं | उन्हें कोई उपाय नहीं सूझ रहा था | मास्टरजी पुनः बच्चों को लेकर चल चुके थे, भूखे-प्यासे, उदास और मायूस बच्चे अपने मास्टरजी के पीछे-पीछे चल दिए | यदि कोई बाल-मनोवैज्ञानिक उन बच्चों के मनोभावों का उस समय विश्लेषण कर पाता, तो उसे साफ़-साफ़ दिखाई देता, कि बच्चों के मन में अपने मास्टरजी के लिए उस समय कितना आदर और विश्वास भर गया था, इसके बावजूद, कि वे सब भूखे थे और खाना न मिल पाने से क्षुब्ध भी !  

— “….. मास्टरजी….! मास्टरजी…! प्लीज़ रुक जाइए… ! चलिए, वापस चलिए …! जैसा आप चाहते हैं, वैसा ही होगा; ये सभी बच्चे एक साथ ही बैठकर खाना खाएँगे | मैं भी इन बच्चों के साथ ही बैठकर खाऊँगा ! प्लीज अब तो वापस चलिए !” कोई उपाय न देखकर सहज ही मुखिया जी ने कह दिया | उनका सम्मान दाँव पर लग चुका था | कहीं-न-कहीं उनका मन भी, छोटे-छोटे बच्चों को भूखा-प्यासा वापस लौटाने के लिए, उस अपराध को सहज ही महसूस कर रहा था |

बाकी तमाशबीन मुखिया जी के रिश्तेदारों और प्रतिष्ठित ग्रामीण लोगों में से भी दो-चार ने मुखिया जी की तरह सभी बच्चों के साथ ही खाना खाने की हामी भरी | इनमें से एक मुखिया जी का बड़ा बेटा और दोनों साले भी थे, एक किसी अन्य विद्यालय के अध्यापक भी थे और कुछ प्रतिष्ठित गाँववाले भी ….|

— “………………..!!!” मास्टरजी थोड़ी देर सोचते रहे …….

— “अब ज्यादा मत सोचिए, मास्टरजी …! हमने आपकी बात मान ली, अब प्लीज़ आप भी कृपा करके मान जाइए | बच्चों को देखिए, कैसे इनके चेहरे उतरे हुए हैं | हमारी नहीं, तो इन बच्चों की सोचिए …! प्लीज़ अब चलिए …! मुखिया जी ने हाथ जोड़कर आग्रहपूर्वक कहा

मास्टरजी मान गए | बच्चों के सूखे-मुरझाये चेहरों पर थोड़ी-सी चमक दिखी, लेकिन वे अभी भी पूरी तरह आश्वस्त नहीं थे, कि आज उनको खाना मिलेगा ही, उनके नन्हें ह्रदय और थोड़ी-सी समझ से मिला अब तक का अनुभव तो यही कहता था !

मुखिया जी सबको आग्रह सहित भोजन-स्थल पर ले आए | उन्होंने ख़ुद सभी बच्चों को बिठाया और उनके सामने अपने हाथों से थर्मोकोल की प्लेटें लगाई, मास्टरजी और अपने लिए भी प्लेटें लगाई | उनके बड़े बेटे ने सबकी प्लेटों के साथ ही थर्मोकोल के गिलास रखे और उसमें पानी भरा | गरमागरम खाना आने लगा और कई सारे व्यंजन देखते ही देखते सभी की प्लेटों में सज गए | लेकिन थोड़ी देर पहले घटित अवांच्छित घटना से सहमे बच्चे, भूख के बावजूद, भोजन पर हाथ नहीं लगा पाए | वे अपने गुरूजी की ओर ही निहार रहे थे, कि उनके गुरूजी खाना शुरू करें, तब वे भी आश्वस्त हों और खाना शुरू करें | मुखिया जी सहित सभी लोगों ने बच्चों की दुविधा को समझा, लेकिन कोई कुछ बोला नहीं | उनके गुरूजी अपने बच्चों के चेहरों के मनोभावों को लगातार पढ़ रहे थे, मगर फिर भी खाना शुरू नहीं किया | तब मुखिया जी टोका –

— “मास्टरजी, खाना शुरू कीजिए, प्लीज़ ..! बच्चे आपका मुँह देख रहे हैं ! शायद आपके शुरू किए बिना ये नहीं खाएँगे |” मुखिया जी ने आग्रह पूर्वक कहा

— “………..!!!” अध्यापक महोदय ने कोई उत्तर नहीं दिया

— “क्या हुआ मास्टर जी, अब तो गुस्सा थूक दीजिए ..|” मुखिया जी ने विनती के स्वर में कहा

— “मुखिया जी, यदि आप हमारे साथ खाना खाएँगे, तो हम नहीं खाएँगें |” मास्टरजी ने अचानक अपना फ़ैसला सुनाया

— “…………!!!” मुखिया जी को काटो तो खून नहीं ! उनका चेहरा फ़क्क पड़ गया ! उठे हुए हाथ का निवाला हवा में ही रह गया |

— “ये आप क्या कह रहे हैं, मास्टरजी ! …….लेकिन क्यों …..???” भोजन में साथ ही बैठे मुखिया जी के बड़े बेटे ने आश्चर्य से पूछा

— “……जी, मैं यही कह रहा हूँ, कि मुखिया जी हमारे साथ खाना नहीं खा सकते …..!!! यही नहीं आप लोग भी नहीं खा सकते हमारे साथ ! यदि आपलोगों में से कोई भी व्यक्ति हमारे साथ खाना खाएगा, तो हम नहीं खाएँगे …!”  मास्टरजी ने, जैसे आख़िरी फ़ैसले के रूप में, अपनी बात कह दी     

— “…… मास्टरजी, आप ऐसा क्यों कर रहे हैं हमारे साथ ….?” अपमान से बेहद आहत होकर मुखिया के बेटे ने कहा | उसके चेहरे पर तनाव और परेशानी पसीने की बूंदों के रूप में उभर आईं थीं |

मुखिया जी निःशब्द थे, उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे | इस अचानक उत्पन्न स्थिति से बाक़ी लोग भी हैरान और अवाक् थे | उन्हें समझ में नहीं आ रहा था, कि मास्टरजी को अपने वंचित तबकों के बच्चों के साथ ऊँची जाति के लोगों के साथ खाना खाने में क्यों आपत्ति है | यदि ऊँची जाति के लोग नीच जात के लोगों के साथ खाना खा लें, तो ये नीची जात वाले इसे अपना परम सौभाग्य समझते हुए सालों तक हमारी वंदना करते हैं, हमारा एहसान मानते हैं |

समारोह स्थल में एक कान से होते हुए दूसरे कान तक यह ख़बर जंगल की आग की तरह फ़ैल चुकी थी | लोग, मानव-स्वभाव के मुताबिक ही, तमाशा देखने के लिए एकत्र होने लगे थे | थोड़ी देर में ही भीड़ काफ़ी बढ़ गई थी | कोलाहल बढ़ता ही जा रहा था |

— “………..” मास्टरजी ने कुछ नहीं कहा, बस लोगों की प्रतिक्रियाओं को चुपचाप देखते रहे

— “…मास्टरजी, क्या बात हो गई, कुछ तो बताइए…! आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ….?” मुखिया जी के बड़े साले ने बाहर भीड़ को देखकर और हालात की नज़ाकत को समझ कर नर्म पड़ते हुए हाथ जोड़कर पूछा

— “यदि आपलोग हमारे साथ खाना खाएँगे, तो यह हमारा अपमान होगा ….!” मास्टरजी ने बड़ी ही गंभीरतापूर्वक दो टूक बात कही

— “…………!!! ………..???” किसी के भी आश्चर्य का ठिकाना न रहा, सबके मन में सवाल था –यह कैसी बात हुई   

— “अरे मास्टरजी, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं …..? हम तो बड़ी जाति के हैं, हमारे साथ खाना खाने में आपका और आपके विद्यार्थियों का अपमान कैसे हो सकता है …..?” मुखिया जी के छोटे साले साहब ने, हालात की गंभीरता को समझने के बावजूद, अहंकारवश सीना तानकर कहा

— “………जिन लोगों की सोच इतनी घटिया हो, मेरी नज़र में वे घृणित, गंदे और बदबूदार जानवरों की तरह हैं …..! ….और आप लोगों को तो अच्छी तरह मालूम है, कि ऐसे जानवरों के साथ सभ्य लोग खाना नहीं खाते …!!! मैं और मेरे ये सभी बच्चे पढ़ते-लिखते हैं, सभ्य हैं, सुसंस्कृत हैं, तो भला हम आपलोग जैसे गंदे, बदबूदार और घृणित जानवरों के साथ खाना खाकर अपने-आप को अपमानित कैसे करवा सकते हैं …!!!” मास्टरजी ने बिना झिझके एक-एक शब्द पर भरपूर ज़ोर देते हुए कहा | उस समय उनके चेहरे पर एक ख़ास किस्म की चमक देखी जा सकती थी

— “…….मास्टरजी ऐसा मत कीजिए ….! मैं कहीं मुँह दिखने के लायक नहीं रहूँगा …!” मुखिया जी ने हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर एकदम दयनीय भाव से निवेदन किया, वे रो पड़े थे

— “….मास्टरजी, कृपया आप हमें इतना ज़लील मत कीजिए …..! मुखिया जी के बड़े बेटे ने हाथ जोड़कर ग्लानि से विगलित होकर कहा

— “मैंने और मेरे लोगों ने इन बच्चों को दुत्कारा, भगवान उसी की सज़ा मुझे दे रहा है …!” मुखिया जी का आहत अभिमान अब आर्त्त-स्वर में बदल चुका था 

— “…मुखिया जी, अब आप एकदम ठीक समझ रहे हैं ! कुछ ऐसा ही मेरे इन मासूम नन्हें विद्यार्थियों ने तब महसूस किया था, जब आपने और आपके लोगों ने इनको ज़लील करके अलग खाना खाने को कहा था …” मास्टरजी ने एकाएक यह कहकर सबको चौंका दिया, मुखिया जी का मुँह खुला का खुला रह गया  

 — “….. बल्कि रोज़ ही ये उस पीड़ा और अपमान को महसूस करते हैं, जब-जब इनको ‘जानवरों से भी गया-बीता’, ‘गंदे’, ‘अछूत’, ‘सूअर’ वगैरह-वगैरह आपलोग और हमारा ये तथाकथित सभ्य-समाज कहता है …! कभी आपमें से किसी ने सोचा, कि इनके कोमन मन को कितनी चोट लगती होगी, कितनी पीड़ा होती होगी, इन नन्हें बच्चों के कोमल मन को ………???” मास्टरजी के चेहरे पर अपनी ही कही गई बात की चुभन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रही थी, मुखिया सहित सभी अवाक् थे

— “…….. इनका नन्हा मन जब अपने माता-पिता या परिवार के किसी अन्य बड़े के लिए आपलोगों के द्वारा ऐसे ही शब्दों का संबोधन सुनता होगा, तो इनका स्वाभिमान, इनका आत्म-सम्मान कैसे मरने लगता होगा, कभी आपमें से किसी को इसका ख्याल भूले से भी आता होगा क्या….??? गुरूजी का क्रोध जैसे उनकी आँखों से, पीड़ा से भाप बनकर निकल पड़ने को उद्धत हो रहा था | मुखिया जी पर जैसे घड़ों पानी पड़ गया |  

— “… इनके आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास की तो आपलोग हत्या ही कर देते हैं, ऐसे रोज़-रोज़ अपमानित करते हुए ….!!! या शायद आपलोग यही चाहते होंगे, कि इनका आत्म-विश्वास ज़िन्दा ही न रहे –न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी; न इनका आत्म-विश्वास ज़िन्दा रहेगा, न ये आपलोगों के सामने सिर उठाएँगे कभी …!!! क्यों, ठीक कह रहा हूँ न मैं ….??? मास्टरजी का स्वर ही नहीं, उनके चेहरे की भाव-भंगिमाएँ भी जैसे संस्कृति और परम्पराओं के उन ‘रक्षकों’ पर प्रश्नों के जलते गोले दाग रही थी

— “……..इनके समाज के लोग आपलोगों के सदा से गुलाम रहे हैं, ये बच्चे भी, आपलोगों की ऐसी दया से, आगे चलकर उन्हीं की तरह आपलोगों की जी-हुजूरी करेंगे …!!! क्यों, ठीक कहा न मैंने …..??? एक और जलता प्रश्न उन लोगों की ओर उछाल दिया मास्टरजी ने, जिसकी तपिश ने उनको बेचैन कर दिया

— “……आज आपको अपने अपमान का भय सता रहा है, मुखिया जी ! आपको डर लग रहा है, कि आप किसी को कैसे मुँह दिखाएँगे ! लेकिन इन बच्चों के माता-पिता रोज़ उस अपमान को पीकर अपने बच्चों के सामने, पूरे समाज के सामने कैसे अपना सिर उठाते होंगे, सबको कैसे मुँह दिखाते होंगे; यह तो आपने कभी नहीं सोचा होगा; …है ना ? अपने माता-पिता को अपमानित और तिरस्कृत होता देख ये बच्चे किसी ‘अनजानी अपराध-भावना’ के शिकार होते हों, तो मुझे तनिक भी हैरानी नहीं होगी, क्योंकि शायद हमारा सभ्य-समाज यही चाहता है, कि ये अपने-आप को ‘जन्मजात-अपराधी’ ही समझें और सदैव इस तथाकथित सभ्य-समाज के सामने, आपलोगों के सामने, अपराधियों की तरह ही नतमस्तक रहें ….!!!” मास्टरजी की आँखें अब जैसे स्वयं ही अपने निर्दोष विद्यार्थियों की उन तकलीफ़ों को अपने दिल में महसूस करके बरस जाना चाहती थीं

— “….एक बात और, …कभी आप सभी, तथाकथित सभ्य-समाज के सुसंस्कृत लोग, कभी फ़ुर्सत मिले एकांत में, तो विचार कीजियेगा, कि आपलोगों के ऐसे व्यवहार से स्वयं आपके अपने ही बच्चों के मन पर क्या बीतती है …? मैं चूँकि अपने प्रत्येक विद्यार्थी का शिक्षक हूँ, इसलिए मैं अपने हर विद्यार्थी के मन को पढ़ सकता हूँ, उन्हें अच्छी तरह से जानता हूँ, आप माता-पिताओं की तुलना में कहीं अधिक ! इसलिए मैं यह जानता हूँ, कि आपके सभ्य-सुसंस्कृत समाज में पैदा हुए आपलोगों के ही बच्चे आपलोगों के इन शर्मनाक व्यवहारों पर कैसा सोचते हैं ! जब वे अपने दोस्तों को, उनके माता-पिता को आप लोगों के द्वारा अपमानित और तिरस्कृत होते देखते हैं, तो स्वयं उनके अपने मन में अपने माता-पिताओं द्वारा किए जा रहे इस अन्याय के प्रति कितनी शर्मिंदगी होती है और कितनी नाराज़गी ! कभी आपलोग ज़रूर सोचिए इसपर भी …!!!” मास्टरजी यह कहकर चुप हो गए, जैसे अब कुछ भी नहीं बचा हो कहने के लिए, जैसे किसी गहन निराशा ने उनको घेर लिया हो, मन की पीड़ा की रेखाएँ उनके चेहरे पर एकदम साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थीं |      

मुखिया जी और सभ्य-सुसंस्कृत लोगों पर घड़ों पानी पड़ चुका था, किसी के मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे, चारो ओर निस्तब्धता छा गई थी | कुछ लोग शर्मिंदगी महसूस कर रहे थे, तो कुछ के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थी; जबकि कुछ लोगों के चेहरों को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने सालों से रिसते उनके घावों पर शीतल मरहम का लेप लगा दिया हो, उनकी आँखें नम थीं, वे बड़ी ही कृतज्ञता और आदर-भाव से मास्टरजी को देख रहे थे | तभी जैसे मुखिया जी के बेटे को जैसे होश आया हो

— “हम अब तक ‘नीची जात, नीची जात’ कहकर इन लोगों को (भीड़ में खड़े दीन-हीन-से दिखने वाले लोगों की ओर इशारा करके, जो निश्चित रूप से वंचित समुदायों से थे) दुत्कारते रहते थे, हमने कभी सोचा ही नहीं, कि तब इन लोगों को कैसा महसूस होता होगा …! लेकिन जब आप हमें ‘गन्दा’, ‘बदबूदार जानवर’ कह रहे हैं, हमें दुत्कार रहे हैं, तो हमसे बर्दाश्त नहीं हो रहा है …! शायद भगवान हमें उसी की सज़ा दे रहा है …!” 

— “….मैं अपनी गलती समझ गया हूँ, मास्टरजी …! मैंने भूल की है, बहुत बड़ी भूल ! आपने मुझे सज़ा दे दी, सही ही किया | मैं आपकी दी हुई सज़ा को श्रद्धा से सिर झुकाकर स्वीकार करता हूँ | आप जितनी भी भर्त्सना करना चाहें, ज़रूर कीजिए, मैं आपको नहीं रोकूँगा ! आप बच्चों के मास्टरजी हैं, बस इन्हें भूखा मत ले जाइए | मैं खुद को माफ़ नहीं कर पाऊँगा |” मुखिया जी ने अब बहुत ही विनम्र-भाव से हाथ जोड़कर कहा, अब उनके चेहरे पर वह पीड़ा नहीं थी, जो थोड़ी देर पहले अपमान के भय से उनके चेहरे पर चिपकी हुई थी, वहाँ अब शांति थी और मास्टरजी की आँखों में संतोष की चमक ….

–डॉ. कनक लता

नोट:- लेखक के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है, इसलिए लेखक की अनुमति के बिना इस रचना का कोई भी अंश किसी भी रूप में अन्य स्थानों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता…

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One thought on “मेरी स्वानुभूति तेरी स्वानुभूति

  1. हमारा समाज आज भी इन दकियानूसी विचारों को ढो रहा है। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी हम इन अवांछित विचारों को ही लेकर आगे बढ़ेंगे तो हमारा समाज ऐसा ही बना रहेगा।

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