बतकही

बातें कही-अनकही…

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विनीता देवरानी : जिसकी नज़र में प्रत्येक विद्यार्थी ख़ास है !

भाग-दो : सब साथ चलें, तो मंज़िलें आसान हों ! किसी भी कार्य-स्थल पर कार्य की सफ़लता और उस सफ़लता की मात्रा एवं गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि वहाँ कार्यरत लोगों के परस्पर संबंध कैसे हैं— उनमें प्रतिद्वंद्विता, ईर्ष्या, एक-दूसरे को नीचा दिखाने एवं हानि पहुँचाने जैसी प्रवृत्तियाँ हैं; अथवा उनमें परस्पर सहयोग, सह-अस्तित्व की स्वीकार्यता, एक-दूसरे की मदद से आगे बढ़ना और बढ़ाना जैसी सकारात्मक प्रवृत्तियाँ हैं ! दोनों ही परिस्थितियों…

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विनीता देवरानी : जिसकी नज़र में प्रत्येक विद्यार्थी ख़ास है !

भाग-एक : ‘स्टूडेंट’ से ‘टीचर’ के निर्माण की विकास-यात्रा “आज के राजा तुम्हीं हो ! इसलिए महसूस करो कि तुम्हारा जन्म कितना ख़ास है ! तुम अपने माता-पिता, भाई-बहन, दोस्तों, शिक्षकों और बहुत सारे लोगों के लिए कितने स्पेशल हो, जो तुमसे बहुत प्यार करते हैं | आज तुम महसूस करो कि तुम विशेष उद्देश्य से संसार में आए हो, इसलिए तुम्हें आगे चलकर कुछ अच्छे काम करने हैं, जिससे दुनिया तुम्हें याद रखे !”…

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सुभाष चन्द्र : जिसके लिए उसके विद्यार्थी अपनी संतान से भी अधिक प्रिय हैं

भाग-दो : ‘कार्य’ जो अपनी अनिवार्य शिक्षकीय ज़िम्मेदारी है पिछले लेख में यह देखा जा चुका है कि किस प्रकार जब राजकीय प्राथमिक विद्यालय, किमोली के दोनों अध्यापकों (सुभाष चंद्र और प्रमोद कुमार) ने परस्पर सहमति से यह तय किया कि वे अपनी निजी कोशिशों से विद्यालय और बच्चों की शिक्षा को एक नया मुक़ाम देंगे, तब इस विद्यालय की ‘शैक्षणिक-यात्रा’ शुरू होती है... यह भी देख चुके हैं कि अपने विद्यालय में सुभाष चंद्र…

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सुभाष चंद्र : जिसके लिए उसके विद्यार्थी अपनी संतान से भी अधिक प्रिय हैं

भाग-एक :- विद्यार्थी जिसकी प्रथम ज़िम्मेदारी हैं भारतीय शिक्षा-प्रणाली की स्थिति यह है कि यहाँ बहुलांश में सरकारी विद्यालयों के शिक्षक किसी भी अन्य सरकारी विभाग की तरह अपने पेशे को अच्छे-ख़ासे वेतन के रूप में मोटी आय का ज़रिया-भर मानते हैं | लेकिन उस पद से संबंधित ज़िम्मेदारियाँ और कार्य करने की जब बात हो तो ये उसे पसंद नहीं करते | कारण...? भारतीय समाज के इस हिस्से को पीढ़ियों से काम करने की…

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सरिता मेहरा नेगी: ‘एक विद्यालय’ बनाने की कोशिश में ‘पहली अध्यापिका’

भाग-एक : ‘पहली अध्यापिका’ तत्कालीन सोवियत रूस के एक क्षेत्र कज़ाकिस्तान के लेखक चिंगिज़ एतमाटोव द्वारा रचित ‘पहला अध्यापक’ पढ़ने के बाद मैं कभी उस अध्यापक दूइशेन को भूल ही नहीं सकी, जिसने अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए न केवल अपनी पूरी ऊर्जा ही ख़र्च कर डाली, बल्कि उसके लिए अपना जीवन संकट में डाल दिया ! और इससे भी आगे बढ़कर अपनी एक किर्गीज विद्यार्थी आल्तीनाई सुलैमानोव्ना की केवल शिक्षा के लिए ही…

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महेशानंद : सम्पूर्ण समाज का ‘शिक्षक’

भाग-दो— 'शिक्षक' बनने की प्रक्रिया में एक शिक्षक का संघर्ष...! यदि किसी माता-पिता को अपनी ऐसी किसी संतान, जिसपर उनकी सभी भावनाएँ, समस्त सपने और उनका भविष्य भी टिका हो, जिसका उन्होंने बड़े ही जतन से अपने मन और अपनी भावनाओं की पूरी ताक़त लगाकर पालन-पोषण किया हो, उसके लिए अपनी सारी उम्र लगाईं हो; उसी संतान के बड़े हो जाने के बाद अचानक उसे ‘किसी’ के द्वारा ‘मृत’ घोषित कर दिया जाए, और उस…

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विनय शाह : लोकतान्त्रिक प्रयोगों का अध्यापक

भाग-दो :- कक्षा में बैठने की व्यवस्था भी लोकतान्त्रिक हो विद्यालय वह स्थान है, जहाँ ज्ञान की न तो कोई सीमा होती है, न कोई दायरा; वहाँ न सीखने के लिए कोई भी चीज बेकार समझकर नज़रंदाज़ की जा सकती है, न की जानी चाहिए | और इसलिए जिन अध्यापकों ने यह तय कर लिया हो कि उनका एक ही लक्ष्य है— समाज को सहिष्णु बनाते हुए उसके भीतर सह-अस्तित्व की भावना को उन सभी…

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अंजली डुडेजा : विद्यालय, बच्चे और खामोश कोशिश

भाग दो : पढ़ना सबसे अधिक ज़रूरी है ! हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा, अर्थात् पचासी फ़ीसदी से भी अधिक, समाज का वह भाग है, जो वास्तविक धरातल पर व्यावहारिक रूप से अपने सम्मानजनक ढंग से जीवन-यापन के मौलिक अधिकारों से भी वंचित है | उसके लिए तथाकथित मुख्यधारा के समाज, अर्थात् समाज के क़रीब पंद्रह फ़ीसदी हिस्से द्वारा सदियों पहले उस बहुसंख्य आबादी के जीवन-यापन के लिए कार्यों के कुछ निश्चित दायरे भी…

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