बतकही

बातें कही-अनकही…

कविता

एक था अँगूठा

एक था अँगूठा... जो हर रोज़ चुनौती देता था राजपुत्रों की दिव्यता और अद्वितीयता को राजमहलों की एकान्तिक योग्यता को...!!! पुरोहित चौंके, गुरू अचंभित... उस ‘नाक़ाबिल’ अँगूठे से डर गए सभी दिव्यदेहधारी राजगुरु अतिविशिष्ट... सर्वश्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य भी...! भविष्य की किसी आशंका से...!!! उस ‘जाहिल’ अँगूठे से घबराए सभी राजपुत्र... चिंतित, हैरान औ’ परेशान सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन भी...! राज्य सचेत औ’ सचेष्ट कर्तव्यनिष्ठ, लोक-कल्याणकारी वह रोकने को अनिष्ट कोई भविष्य में गुरु को सौंप कर्तव्य…

कथेतर

‘दगड़्या देश के भविष्य का एक आइना यह भी हैं !

यूरोप के स्वच्छन्दतावादी (रोमांटिक) कवियों में शामिल एक बड़े प्रसिद्द कवि विलियम वर्ड्सवर्थ ने लिखा है, ‘Child is the Father of Man’ | यह अतिशयोक्ति नहीं होगी, यदि इसी पंक्ति को ध्यान में रखते हुए यह कहा जाए कि हम अपने मन और मस्तिष्क को थोड़ा ‘बड़ेपन’ से मुक्त या उन्मुक्त रखकर देख-समझ पाएँ, तो बच्चों से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं | या इसी बात को यदि यूँ कहा जाए कि बच्चे भी…

आलोचना

शिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रमों की बाढ़ में बहकर दूर होती शिक्षा

सरकारी विद्यालयों में एक बहुत ख़ास बात देखी जा सकती है; वहाँ पिछले दो दशकों से नवाचारों एवं शैक्षणिक-गतिविधियों से संबंधित शिक्षकों की विविध प्रकार की ट्रेनिंग की बाढ़-सी आई हुई है, जिससे न केवल अधिकांश शिक्षक असहज होते रहे हैं, बल्कि कंफ्यूज और असहमत भी हो रहे हैं | इसमें वे शिक्षक भी शामिल हैं, जो पूरी ईमानदारी से अपने शिक्षकीय कर्तव्यों का पालन करते हैं, बिना अपने विद्यार्थियों से किसी भी तरह का…

शोध/समीक्षा

स्कूलों में कार्यक्रमों की रेल और धीरे-धीरे ग़ायब होती शिक्षा

लॉकडाउन के बाद से खुले विद्यालयों में बहुत सारी बातें बहुत ख़ास दिखाई देती हैं— उनमें से एक बहुत विशिष्ट बात है, जो इस लेख का विषय है, वह है सभी विद्यालयों में अनेकानेक प्रतियोगिताओं (चित्रकला, लेख, निबंध, खेल, शब्दावली और दर्ज़नों ऐसी ही प्रतियोगिताएँ) एवं सांस्कृतिक-कार्यक्रमों की बाढ़ और बड़े से लेकर छोटे स्थानीय छुटभैये नेताओं/नेत्रियों की जयंतियों की रेलमपेल; और उन सबकी आवश्यक रिपोर्ट सहित डिजिटल साक्ष्य भी बनाकर शिक्षा-विभागों को भेजने की…

शोध/समीक्षा

सरकारी विद्यालयों की पाठ्य-पुस्तकें एवं पाठ्यक्रम

पिछले दो दशकों से लेकर वर्तमान तक हमारे देश में सरकार एवं शिक्षा-मंत्रालयों द्वारा संचालित विभागों ने सरकारी-विद्यालयों में बच्चों के पढ़ने-लिखने के लिए जो पुस्तकें निर्मित की हैं, उनको देखना काफ़ी दिलचस्प है | कुछ निजी महँगे विद्यालयों द्वारा अपने यहाँ इन पुस्तकों को तो शामिल ही नहीं किया जाता है | और जहाँ ये शामिल हैं, तो वहाँ भी गौण रूप में; और मुख्य रूप से वहाँ कुछ अन्य पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं,…

शोध/समीक्षा

नवाचारों की भीड़ में क़िताबों से बढ़ती दूरियाँ

‘नवाचार’ एक ऐसा ज़रिया हैं, जिनके माध्यम से विद्यालयों में आसानी से एवं रोचक तरीक़ों से बच्चों को बहुत सारी चीजें हँसते-खेलते पढ़ाया जा सकता है | यही कारण है कि भारत ही नहीं दुनिया के सभी देश, जो ख़ुशनुमा माहौल में बच्चों की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की वक़ालत करते हैं एवं उसके लिए कोशिश करते है, इन नवाचारों को बहुत महत्त्व देते हैं | लेकिन एक बात यहाँ बहुत ध्यान से समझने की है... वह…

कथेतर

सुभाष चन्द्र : जिसके लिए उसके विद्यार्थी अपनी संतान से भी अधिक प्रिय हैं

भाग-दो : ‘कार्य’ जो अपनी अनिवार्य शिक्षकीय ज़िम्मेदारी है पिछले लेख में यह देखा जा चुका है कि किस प्रकार जब राजकीय प्राथमिक विद्यालय, किमोली के दोनों अध्यापकों (सुभाष चंद्र और प्रमोद कुमार) ने परस्पर सहमति से यह तय किया कि वे अपनी निजी कोशिशों से विद्यालय और बच्चों की शिक्षा को एक नया मुक़ाम देंगे, तब इस विद्यालय की ‘शैक्षणिक-यात्रा’ शुरू होती है... यह भी देख चुके हैं कि अपने विद्यालय में सुभाष चंद्र…

कथेतर

सुभाष चंद्र : जिसके लिए उसके विद्यार्थी अपनी संतान से भी अधिक प्रिय हैं

भाग-एक :- विद्यार्थी जिसकी प्रथम ज़िम्मेदारी हैं भारतीय शिक्षा-प्रणाली की स्थिति यह है कि यहाँ बहुलांश में सरकारी विद्यालयों के शिक्षक किसी भी अन्य सरकारी विभाग की तरह अपने पेशे को अच्छे-ख़ासे वेतन के रूप में मोटी आय का ज़रिया-भर मानते हैं | लेकिन उस पद से संबंधित ज़िम्मेदारियाँ और कार्य करने की जब बात हो तो ये उसे पसंद नहीं करते | कारण...? भारतीय समाज के इस हिस्से को पीढ़ियों से काम करने की…

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