बतकही

बातें कही-अनकही…

कविता

कृष्ण और कृष्णा

एक बात सच-सच बताओगे, सखा...? देखो फिर से अपनी मोहक मुस्कान से टाल मत देना... जानती हूँ तुम्हें, और तुम्हारी रहस्यमयी मुस्कान को भी... ...तो मुझे बताओ जरा... कि क्यों कहा था तुमने उस दिन कि मेरी आस्था ही तुम्हारी आत्मा का पोषण करती है...? गढ़ता है मेरा विश्वास, तुम्हारे व्यक्तित्व को...? जबकि मैं तो स्वयं तुम पर आश्रित हूँ, सखे | करती हूँ तुमपर विश्वास... निश्छल... कि मेरी आस्था है तुमपर... अटूट...! हाँ, सखे...!…

कविता

उठो याज्ञसेनी

उठो याज्ञसेनी... कि समय तुम्हारी प्रतीक्षा में है... जिसे आगे ले जाना है तुम्हें...! कि परिवर्तन का कालचक्र तुम्हें पुकार रहा है... जिसे घुमाना है तुम्हें...! कि समाज की नियति तुम्हारा आह्वान कर रही है... जिसे गढ़ना है तुम्हें...! अपने दृढ-संकल्प से अपनी ईच्छा-शक्ति से अपने सामर्थ्य से अपने लहू से अपने जीवन से अपने प्राणों से... दुःखी मत हो उदास भी नहीं होओ, आँसू भी मत बहाओ तुम्हारे जिस आँचल को भरे दरबार में…

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