बतकही

बातें कही-अनकही…

कविता

मिट्टी की रोटियाँ

क्या कभी मिट्टी की रोटियाँ खाई हैं ? कैसी लगती हैं वे रोटियाँ स्वाद में ? क्या भूख मिट जाती हैं उनसे ? उन आदिवासियों का दावा तो यही है...! रिसर्च में भी साबित हो गया कि भूख मिटाने में सक्षम हैं वे रोटियाँ मिट्टी वाली सभी आवश्यक पोषक तत्व भी देती हैं शरीर को, ये रोटियाँ यदि रोज़ खाई जाएँ उन्हें...! क्या उन रोटियों को रोज़ खाकर देखी हैं उन शोधकर्ताओं ने ? क्या…

निबंध

वर्चस्ववादी समाज को डरने की ज़रूरत है !

क्या किसी भी व्यक्ति, समाज या देश को हमेशा-हमेशा के लिए नेस्तोनाबूत किया जा सकता है? क्या किसी का सिर हमेशा के लिए कुचला जा सकता है? क्या किसी के विवेक को, इच्छाओं और अभिलाषाओं को, स्वाभिमान और आत्म-चेतना को हमेशा के लिए मिटाया जा सकता है... बहुत साल पहले, आज से लगभग दो दशक पहले, किसी अख़बार में मैंने एक शोध पढ़ा था; हालाँकि अब यह याद नहीं कि वह अख़बार कौन-सा था, लेख…

निबंध

वर्चस्व-स्थापना के प्रयास में ‘भूख’ को बचपन से साधती सरकारें

कहते हैं कि ‘बचपन’ ही वह समय होता है, जब किसी बच्चे के भविष्य के लिए उसके व्यक्तित्व की रुपरेखा तैयार की जाती है; अर्थात् उसकी नींव डाली जाती है | बच्चे के मन में जिस प्रकार के बीज रोपित किए जाएँगे, उसका व्यक्तित्व उसी के अनुरूप आकार लेगा | जिस बच्चे को बचपन से आत्म-निर्भर, स्वाभिमानी बनाया जाएगा, वह आगे चलकर उसी के अनुरूप आत्म-विश्वासी, स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनेगा; और जिस बच्चे को बचपन…

निबंध

भोजन केवल ‘भोजन’ नहीं, एक ‘हथियार’ भी है !

भोजन के सम्बन्ध में ‘खाद्य’ और ‘अखाद्य’ जैसे शब्दों को तो हम अक्सर ही सुनते हैं ; जैसे प्याज, लहसुन जैसी सब्जियाँ, अथवा कुत्ते, कौवे, साँप, बिच्छू, घोंघे, चूहे आदि पशु-पक्षियों का मांस वगैरह भारतीय ‘सनातनी-संस्कृति’ में ‘अखाद्य’ की श्रेणी में रखे गए हैं | इसी प्रकार गाय के दूध को ‘बुद्धिवर्द्धक’ कहा गया है और उसी के बरक्स भैंस के दूध को ‘बुद्धिनाशक’, इतना ही नहीं गाय के दूध को ही ‘पवित्र’ कहकर हिन्दू…

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