बतकही

बातें कही-अनकही…

निबंध

‘अप्प दीपो भव’ : नए तेवर के साथ 21वीं सदी का वंचित-समाज

जब 1848 ई. में फुले-दंपत्ति (ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले) ने लड़कियों (3 जनवरी 1848, भिंडेवाड़ा) और दलितों (15 मई 1848, महारवाड़ा) के लिए पहले आधुनिक-विद्यालय की शुरुआत करते हुए महिला-आन्दोलन और दलित-आन्दोलन की नींव डाली और उनके केवल कुछ ही दशक बाद डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इन आंदोलनों को नई धार देकर बहुमुखी और बहुस्तरीय बना दिया; तो उसके बाद समाज में एक ऐसी आँधी चलनी शुरू हो गई, जिसमें सारा ब्राह्मणवाद, पुरुषवाद, पितृसत्ता…

शोध/समीक्षा

1857 का विद्रोह : ‘समान दंड संहिता’ से सवर्ण-समाज को क्यों कष्ट हुआ?

जब अंग्रेजी ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ भारत आई और उसने अपने पैर जमा लिए, तब अपने प्रभाव को व्यापक बनाने के ऊदेश्य से और कुछ न्यायपूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के लिए भी, उसने कई महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली कानून बनाए | उसी के साथ उन कानूनों के पालन की महत्वपूर्ण और प्रभावशाली व्यवस्थाएँ भी की गईं और न्यायपालिका के जरिए विविध अपराधों के संबंध में न्याय की व्यवस्था भी की गई | वॉरेन हेस्टिंग्स के समय (1772-1785…

निबंध

हल्द्वानी में आंबेडकर जयंती

हल्द्वानी, उत्तराखंड का एक खूबसूरत शहर | जो उत्तराखंड में स्थित तीन प्रसिद्ध तालों भीमताल, खुरपाताल और नैनीताल से बस थोड़ी दूर पर ही स्थित है और काठगोदाम जिसका सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन है | इसी शहर से दो शिक्षकों, वीरेंद्र कुमार टम्टा और डॉ. संदीप कुमार की ओर से वहाँ आयोजित होनेवाले ‘आंबेडकर जयंती’ समारोह में शामिल होने का स्नेह और आग्रह भरा निमंत्रण आया | दरअसल डॉ. संदीप कुमार (बलुवाकोट डिग्री कॉलेज में…

शोध/समीक्षा

सपनों के मर जाने का अर्थ

“मैम, सपने तो हम भी देखते हैं, लेकिन हमारे सपनों की कोई वैल्यू नहीं है | किसी को भी इस बात से मतलब नहीं है कि हम लडकियाँ भी सपने देखती हैं और उन्हें पूरा करना चाहती हैं | हम लड़कियाँ हैं, इसलिए हमारे सपनों का कोई महत्त्व नहीं |...हमारे माता-पिता भी हमारे भाइयों पर ही अधिक ख़र्च करते हैं | हमारे लिए कोई नहीं सोचता, मैम...” “मैम, ऐसा नहीं है कि जिन लड़कियों ने…

निबंध

व्यवसाय, धर्म और पितृसत्ता के बरक्स खड़ी फ़टी जींस

‘जींस’ या ‘फ़टी जींस’ से ‘पितृसत्ता’ का क्या संबंध है, इसके एक पक्ष को तो पिछले दो लेखों फ़टी जींस, लड़कियाँ और संकट में संस्कृति और ‘जींस पहनती बेटियाँ माता-पिता को अच्छी नहीं लगतीं’में देख लिया गया, लेकिन साथ में यह भी समझना ज़रूरी है कि क्या ‘पितृसत्ता’ सदैव ही फ़टी हुई जींस या ऐसे ही दूसरे ‘संस्कृति-विरोधी’ तत्वों का विरोध करती है? अथवा उसके सामने कुछ ‘परिस्थितियाँ’ ऐसी भी आती हैं जब वह प्रत्यक्ष…

कथेतर

अंजली डुडेजा : विद्यालय, बच्चे और खामोश कोशिश

भाग दो : पढ़ना सबसे अधिक ज़रूरी है ! हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा, अर्थात् पचासी फ़ीसदी से भी अधिक, समाज का वह भाग है, जो वास्तविक धरातल पर व्यावहारिक रूप से अपने सम्मानजनक ढंग से जीवन-यापन के मौलिक अधिकारों से भी वंचित है | उसके लिए तथाकथित मुख्यधारा के समाज, अर्थात् समाज के क़रीब पंद्रह फ़ीसदी हिस्से द्वारा सदियों पहले उस बहुसंख्य आबादी के जीवन-यापन के लिए कार्यों के कुछ निश्चित दायरे भी…

कथेतर

सम्पूर्णानन्द जुयाल : वंचित वर्गों के लिए अपना जीवन समर्पित करता एक अध्यापक

भाग-चार : बंजारे बच्चों को उनकी मंजिल की ओर ले जाने की कोशिश कहते हैं कि प्रत्येक बच्चे में कुछ ऐसी विशेषताएँ अवश्य होती हैं, जिनको यदि समय रहते पहचानकर उसका परिष्कार किया जाए, तो उन विशेषताओं से संपन्न होकर वह बच्चा अपने आप में एक विशिष्ट व्यक्ति या नागरिक बनता है, उसका लाभ समाज और देश को मिलता है | लेकिन यदि उसकी ख़ूबियों को जानते हुए भी उसको अवसर न दिया जाए, तो…

कथेतर

महेशानंद : सम्पूर्ण समाज का ‘शिक्षक’

भाग-एक : बहुमुखी प्रतिभा का धनी अध्यापक एक अनुकरणीय अध्यापक वह होता है, जो न केवल अपने विद्यार्थियों को ‘पढ़ाने’ का काम सफ़लतापूर्वक कर रहा हो, बल्कि इसके समानान्तर उसके द्वारा समाज को भी ‘पढ़ाने’ और जगाने का काम निरंतर किया जा रहा हो | एक शिक्षक केवल अपने विद्यार्थियों-मात्र का ही शिक्षक नहीं होता है, बल्कि वह कम-से-कम उस पूरे समाज का शिक्षक होता है, जहाँ वह रह रहा है, जहाँ वह कार्य कर…

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