बतकही

बातें कही-अनकही…

कविता

उठो याज्ञसेनी

उठो याज्ञसेनी... कि समय तुम्हारी प्रतीक्षा में है... जिसे आगे ले जाना है तुम्हें...! कि परिवर्तन का कालचक्र तुम्हें पुकार रहा है... जिसे घुमाना है तुम्हें...! कि समाज की नियति तुम्हारा आह्वान कर रही है... जिसे गढ़ना है तुम्हें...! अपने दृढ-संकल्प से अपनी ईच्छा-शक्ति से अपने सामर्थ्य से अपने लहू से अपने जीवन से अपने प्राणों से... दुःखी मत हो उदास भी नहीं होओ, आँसू भी मत बहाओ तुम्हारे जिस आँचल को भरे दरबार में…

कविता

कैंडल मार्च – 5

बंद करो कैंडल मार्च...! रोज़-रोज़ दुष्कृत्यों की शिकार होती लड़कियों के परिजन हैं ये नवयुवक... इनका प्रथम कर्तव्य है देश और समाज के हित को समझना, अपनी उन स्त्रियों के हित के लिए खड़ा होना | उन्हें भी जुलूस और कैंडल मार्च निकालना चाहिए, जैसे तुम निकालते हो...! करना चाहिए उनको भी धरना और प्रदर्शन, जैसे तुम करते हो...! उठानी चाहिए निश्चित दण्ड की माँग, संसद में, जैसे तुम उठाते हो निश्चित फाँसी की माँग…

कविता

कैंडल मार्च – 4

कौन करेगा कैंडल मार्च...? क्या कहा, भाई...? इन लड़कियों का कोई रक्षक नहीं...? कोई सहायक नहीं...? ...शायद तुम ठीक कहते हो.... वे समाज के हाशिए पर फेंके गए ‘कूड़ा-समाज’ में पैदा हुई थीं... समाज के कूड़े की ‘कूड़ा बेटियाँ’... बदनसीब बेटियाँ... यतीम बेटियाँ... अकेली... असहाय... अरक्षित... जिनका नहीं कोई रक्षक ...!!! नहीं कोई सहायक...!!! कौन निकाले जुलूस...? कौन करे कैंडल मार्च...? क्योंकि उनके भाइयों, पिताओं, पुरुषों के पास समय नहीं है, कि उनकी उन खुली…

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