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बातें कही-अनकही…

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सरिता मेहरा नेगी : ‘एक विद्यालय’ बनाने की कोशिश में ‘पहली अध्यापिका’

भाग-दो : ‘पहली अध्यापिका’ का अनोखा विद्यालय पिछले लेख ‘सरिता मेहरा नेगी : ‘एक विद्यालय’ बनाने की कोशिश में ‘पहली अध्यापिका, भाग-एक’ में यह बात देखी जा चुकी है कि विद्यालय-दर-विद्यालय होते हुए सरिता मेहरा नेगी मई 2014 में स्थानांतरित होकर कोटद्वार स्थित जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के दायरे में मौजूद उस विद्यालय में आईं, जो अभी तक ‘अदृश्य’ रूप में था, जिसके ‘होने’ की सूचना वहाँ लगे सूचनापट्ट से ही मिलती थी | अब…

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सरिता मेहरा नेगी: ‘एक विद्यालय’ बनाने की कोशिश में ‘पहली अध्यापिका’

भाग-एक : ‘पहली अध्यापिका’ तत्कालीन सोवियत रूस के एक क्षेत्र कज़ाकिस्तान के लेखक चिंगिज़ एतमाटोव द्वारा रचित ‘पहला अध्यापक’ पढ़ने के बाद मैं कभी उस अध्यापक दूइशेन को भूल ही नहीं सकी, जिसने अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए न केवल अपनी पूरी ऊर्जा ही ख़र्च कर डाली, बल्कि उसके लिए अपना जीवन संकट में डाल दिया ! और इससे भी आगे बढ़कर अपनी एक किर्गीज विद्यार्थी आल्तीनाई सुलैमानोव्ना की केवल शिक्षा के लिए ही…

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माधवी ध्यानी : अंग्रेजी भाषा से बच्चों की दोस्ती कराती अध्यापिका

भाग-दो : अंग्रेज़ी कोई हौवा नहीं ! एक नई भाषा सीखना किसी के लिए भी किन रूपों में और कैसे मददगार होता या हो सकता है? किसी व्यक्ति के जीवन में किसी भी नई भाषा की क्या भूमिका हो सकती है? विद्वान् कहते हैं कि एक नई भाषा किसी व्यक्ति को ज्ञान की नई दुनिया में ले जाने में बहुत अधिक मददगार होती है | लेकिन ऐसा क्यों? ज्ञान-अर्जन के लिए तो प्रायः साहित्य, इतिहास,…

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महेशानंद : सम्पूर्ण समाज का ‘शिक्षक’

भाग-दो— 'शिक्षक' बनने की प्रक्रिया में एक शिक्षक का संघर्ष...! यदि किसी माता-पिता को अपनी ऐसी किसी संतान, जिसपर उनकी सभी भावनाएँ, समस्त सपने और उनका भविष्य भी टिका हो, जिसका उन्होंने बड़े ही जतन से अपने मन और अपनी भावनाओं की पूरी ताक़त लगाकर पालन-पोषण किया हो, उसके लिए अपनी सारी उम्र लगाईं हो; उसी संतान के बड़े हो जाने के बाद अचानक उसे ‘किसी’ के द्वारा ‘मृत’ घोषित कर दिया जाए, और उस…

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विनय शाह : लोकतान्त्रिक प्रयोगों का अध्यापक

भाग-दो :- कक्षा में बैठने की व्यवस्था भी लोकतान्त्रिक हो विद्यालय वह स्थान है, जहाँ ज्ञान की न तो कोई सीमा होती है, न कोई दायरा; वहाँ न सीखने के लिए कोई भी चीज बेकार समझकर नज़रंदाज़ की जा सकती है, न की जानी चाहिए | और इसलिए जिन अध्यापकों ने यह तय कर लिया हो कि उनका एक ही लक्ष्य है— समाज को सहिष्णु बनाते हुए उसके भीतर सह-अस्तित्व की भावना को उन सभी…

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अंजली डुडेजा : विद्यालय, बच्चे और खामोश कोशिश

भाग दो : पढ़ना सबसे अधिक ज़रूरी है ! हमारे समाज का बहुत बड़ा हिस्सा, अर्थात् पचासी फ़ीसदी से भी अधिक, समाज का वह भाग है, जो वास्तविक धरातल पर व्यावहारिक रूप से अपने सम्मानजनक ढंग से जीवन-यापन के मौलिक अधिकारों से भी वंचित है | उसके लिए तथाकथित मुख्यधारा के समाज, अर्थात् समाज के क़रीब पंद्रह फ़ीसदी हिस्से द्वारा सदियों पहले उस बहुसंख्य आबादी के जीवन-यापन के लिए कार्यों के कुछ निश्चित दायरे भी…

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‘गाइड’ प्रदीप रावत : एक अध्यापक जो अपने विद्यार्थियों के लिए ‘गाइड’ है

भाग-दो : हमें खेलते हुए पढ़ना पसंद है...! पढ़ने-पढ़ाने के कई तरीक़े हो सकते हैं— एक तरीक़ा तो यह हो सकता है, जिसे अक्सर विद्यालयों में अपनाया भी जाता है कि कक्षा में आकर बच्चों की पुस्तकों के माध्यम से उनको पढ़ाने की कोशिश की जाए और बच्चे अपने अध्यापकों द्वारा बोर्ड पर लिखे गए शब्दों को अपनी कॉपियों में लिखते जाएँ, पुस्तकों में लिखे हुए को पढ़ने एवं अपनी कॉपी में छाप देने, अर्थात्…

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आशीष नेगी : कला के मार्ग से शिक्षा के पथ की ओर

भाग-चार - आशीष के ‘दगड़्या’ : बच्चों का, बच्चों के लिए, बच्चों द्वारा क्या कोई ऐसा ऐसा संगठन या संस्था हो सकती है, जो न केवल बच्चों के लिए हो, बल्कि वह बच्चों की भी हो और उसका संचालन भी प्रमुख रूप से बच्चे ही करते हों...? सरकारी स्कूलों में हालाँकि ‘बाल-सभाएँ’ होती हैं, लेकिन यह पता नहीं कि वह कितनी कारगर है और क्या-क्या काम कितने प्रभावशाली ढंग से करती है? उनमें बच्चों की…

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