बतकही

बातें कही-अनकही…

1857 के विद्रोह से कुछ पहले से ही केवल सैनिकों में ही नहीं बल्कि जनता के बीच भी जंगल की आग की तरह बड़ी तेजी से कई अफवाहें फ़ैल रही थीं, या शायद जानबूझकर फैलाई जा रही थीं | जानबूझकर इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि कई इतिहासकार स्वयं ही बार-बार ऐसी ‘बातों’ को ‘अफवाह’ कहकर ही लिख रहे हैं | जैसाकि हम इस लेख में भी देखेंगे, कि अनेक इतिहासकारों की बातें इसका प्रमाण हैं | इसलिए यहाँ संदेह की पूरी गुंजाइश है कि ऐसी अफवाहों क्यों और किन लोगों के द्वारा फैलाई जा रही थीं, उनके पीछे उनका क्या मकसद था?

दरअसल ऐसी अफवाहें सबसे अधिक कारतूसों के बारे में फैलाई जा रही थीं, साथ ही अन्य बहुत-सी चीजों के बारे में भी; जैसे, आटा, मिठाइयाँ, शक्कर, धागे आदि |

कारतूसों में जानवरों की चर्बी अफवाह

जैसाकि कहा गया, कि सबसे अधिक अफवाहें एक नए किस्म के कारतूस के बारे में थीं, जिसमें गाय और सूअर की चर्बी होने की बात कही गई थी | दरअसल एक नए की एनफील्ड राइफल ब्रिटिश-सेना में शामिल हुई थी, जिसमें प्रयोग होनेवाली नई किस्म की वह कारतूस भी बड़े खास तरीके से इस्तेमाल होती थी | इसी का फायदा कुछ ख़ास किस्म के लोगों ने उठाया और उन्होंने कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी होने की बात फैलाई | इसने अनपढ़ और कम पढ़े-लिखे हिन्दुओं और मुसलमानों को धार्मिक रूप से उलझन में डाल दिया—

“इस नई राइफल में कारतूस के ऊपरी भाग को मुंह से काटना पड़ता था | जनवरी 1857 में बंगाल सेना में यह अफवाह फ़ैल गई कि चर्बी वाले कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी है | …सैनिकों को विश्वास हो गया कि चर्बी वाले कारतूसों का प्रयोग उनका धर्म भ्रष्ट करने का एक निश्चित प्रयत्न है |” 1

इसके बारे में मैंने एक बड़ा ही दिलचस्प लेख बहुत साल पहले ‘सरिता’ पत्रिका में पढ़ा था, जिसमें इस घटना के बारे में जानकारी दी गई थी | तब मैं स्कूल की छात्रा थी और उस लेख की गंभीरता और भविष्य में उपयोग के बारे में सचेत नहीं थी, इसलिए याद नहीं वह लेख किसने लिखा था और किस साल की ‘सरिता’ में छपा था | लेकिन मेरे दिमाग में उसकी कुछ बातें गहराई से छपी रह गईं और उसी समय से मेरे मन में 1857 के तथाकथित जन-विद्रोह के बारे में संदेह के बीज पड़ गए | उस लेख में बताया गया थी कि उक्त ‘जन-विद्रोह’ के पहले ही कई स्थानों के मंदिरों में अचानक कुछ सन्यासी प्रकट होते हैं, वे मंदिरों में आनेवाली धर्म-प्राण अनपढ़-जनता को कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी होने और उनके प्रयोग से सैनिकों के धर्म भ्रष्ट होने की जानकारी देते हैं और गायब हो जाते हैं; फिर उनका पता नहीं चलता | वे सैनिक चूँकि उस जनता के ही अपने भाई और बेटे आदि थे, इसलिए जनता परेशान हो गई |

याद रहे कि इसके ठीक कुछ दशक पहले सन्यासी-विद्रोह हो चुका था और बचे-खुचे ‘शस्त्रधारी-सन्यासी’ तितर-बितर हो चुके थे और छिपकर अपना वार यदा-कदा करते थे | यह भी याद रहे कि ‘सन्यासी’ होने का अधिकार प्रायः केवल ब्राह्मणों को ही रहा है | यह भी याद रहे कि भारत के इतिहास में पचासों बार ब्राह्मणवाद के विरुद्ध काम करनेवाली किसी भी राजनीतिक (जैसे शूद्रवर्णीय पालवंश), सामाजिक (नास्तिक सिद्ध) या धार्मिक-सत्ता (कबीर आदि) को उखाड़ फेंकने के लिए मंदिर हमेशा ही षड्यंत्र के केंद्र बने | इसलिए संदेह स्वाभाविक है कि कहीं वे ब्राह्मण-सन्यासी ही तो नहीं थे, जिन्होंने विविध वेश में घूम-घूमकर अंग्रेजों की सत्ता उखाड़ फेंकने के लिए अफवाहें फैलाईं? क्या उनको तत्कालीन शासक-वर्गों का सहयोग और समर्थन भी मिला था?

चर्बी में भेदभाव क्यों?

चर्बी के मामले में एक सवाल उठाया जाना बहुत जरूरी है, जिसपर शायद ही अब तक किसी ने ध्यान दिया है | यदि यह मान लिया जाए कि कारतूसों में चर्बी थी, तो प्रश्न है कि केवल गाय और सूअर की चर्बी ही क्यों थी? भैंस, ऊंट, भेड़, बकरी आदि जानवरों की क्यों नहीं? क्या कारतूसों में केवल गाय और सूअर की चर्बी ही चिकनाई का काम कर सकती थी; भैंस, ऊंट, भेड़ बकरी आदि जानवरों की नहीं? इसका जवाब भारतीय-समाज की धार्मिक-मानसिकता में छिपा है | गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र और अवध्य (वध के योग्य नहीं) है, इसलिए उसकी चर्बी की बात दोहरे स्तर पर अनपढ़-हिन्दुओं को क्रोधित-उत्तेजित करने की ताकत रखती थी— एक तो गोहत्या और दूसरे, उसकी चर्बी को मुँह से लगाना | जबकि मुसलमानों के लिए सूअर घृणास्पद जानवर है, इसलिए उसके प्रयोग की बात अनपढ़-मुसलमानों से कहने पर उनको अंग्रेजों के खिलाफ भड़काना आसान था—

“यह कहा गया कि इस पर गाय और सूअर की चर्बी लगी है | भारत में सैनिकों को इनका प्रयोग करने में यह आपत्ति थी कि हिन्दू गो-हत्या के विरुद्ध थे इसलिए गाय की चर्बी को छूना नहीं चाहते थे और मुसलमान सूअर को घृणा की दृष्टि से देखते थे इसलिए उसकी चर्बी को छूना नहीं चाहते थे |” 2

इसलिए यदि अफवाह फैलानेवाले यह कहते कि कारतूसों में भैंस, ऊंट, भेड़, बकरी आदि जानवरों की चर्बी लगी है, तो निश्चित है कि इससे न तो हिन्दू भड़कते, न मुसलमान | इसलिए कारतूसों में केवल गाय और सूअर की चर्बी की अफवाह ही उड़ाई गई |

अन्य वस्तुओं में चर्बी और हड्डी की अफवाह

अफवाहें फैलाने का जरिया केवल कारतूस ही नहीं बने, बल्कि अपने स्वार्थ के लिए अफवाहों का सहारा लेनेवालों ने और भी वस्तुओं में ऐसी ही आपत्तिजनक चीजों के होने की बात कहकर अफवाहों का बाजार हमेशा गर्म रखने की कोशिश की | दरअसल ऐसा करनेवालों को शायद यह पता नहीं था कि किस चीज में जानवरों के अंश की अफवाहों से जनता को भड़काने में मदद मिलेगी | यह भी हो सकता है कि उनको यह विश्वास था कि एक के बाद एक नई-नई अफवाहें उड़ाने से जनता की नाराजगी को उसके चरम पर पहुँचाया जा सकता है | इसलिए उन्होंने तब तक कई चालें चलीं, जब तक जनता खूनी-विद्रोह के लिए पूरी तरह से उनके पीछे-पीछे आने को तैयार नहीं हो गई—

“इसके अलावा आटे में हड्डी का चूरा मिलाने की खबर और नई ‘इनफील्ड राइफल’ के प्रयोग ने सरकार के प्रति संदेह पैदा कर दिया |” 3

इसका ठोस प्रमाण हमें तब मिलता है, जब उक्त ‘जनविद्रोह’ के बहुत बाद कई साहित्यकारों की रचनाओं में उनके पात्र इस तरह की अफवाहों को योजनाबद्ध ढंग से फैलाते दिखते हैं | एक गुमनाम हिन्दुत्ववादी उपन्यासकार गुरुदत्त (फ़िल्मकार गुरुदत्त नहीं) के उपन्यास ‘अमृत और विष’ का एक पात्र जयंत टंडन भारत से अंग्रेजों को भगाकर यहाँ ब्राह्मणों का शासन स्थापित करना चाहता है | इसके लिए वह अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ ठीक 1857 के तथाकथित योद्धाओं की तरह ही खूब जोर-शोर से दुष्प्रचार करता है—

“(जयंत और उसके साथियों द्वारा) यह प्रचार शुरू हुआ कि सफ़ेद रंग की ब्रिटिश चीनी में गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है | इसका मतलब यह हुआ कि जो भी इस विदेशी चीनी का व्यवहार करेगा वह अपने धर्म के विरुद्ध आचरण करेगा | जयंत यह भी प्रचार करता है कि ब्रिटिश जूते गाय की चर्बी के और कपड़ों को सीने के महीन धागे बतख और हंस के चमड़े से बने होते हैं |” 4

ऐसा करने का एक उद्देश्य यह भी था कि भारत की दलित और शूद्र जनता ब्रिटिश-कारखानों में बने कपड़े, जूते, धागे, शक्कर जैसी अति-आवश्यक सस्ती वस्तुओं का उपयोग न करे | क्योंकि ऐसी शानदार चीजों का उपयोग (भारतीय और विदेशी दोनों ही तरह की वस्तुएँ) सवर्ण ही किया करते थे | लेकिन यदि शूद्र और दलित भी सवर्णों की तरह नए कपड़े, जूते आदि पहनने लगते, तो दोनों में क्या अंतर रहता, सवर्णों की विशिष्टता कैसे बचती? कपड़े, जूते आदि पहनना तो केवल सवर्णों का विशेषाधिकार था, दलित और शूद्र उनके विशेषाधिकार में घुसपैठ कैसे कर सकते थे?

गरीब-जनता के पास हथियार कहाँ से आया?

1857 के विद्रोह में हम कई स्थानों पर जनता को सशस्त्र संघर्ष करते हुए देखते हैं | जबकि ब्राह्मणों ने अपने संस्कृत-ग्रंथों में बहुत कठोरता से यह स्पष्ट आदेश बार-बार दिया है कि दलितों के पास कभी भी भूमि, संपत्ति, पर्याप्त भोजन और किसी भी तरह का हथियार बिल्कुल नहीं रहने देना चाहिए; ताकि वे सवर्णों के खिलाफ कभी भी खूनी-विद्रोह न करें | शूद्रों के बारे में भी ऐसे ही आदेश दिए गए हैं | इसलिए सवाल उठता है कि जनता के जिस हिस्से ने हथियारों के साथ अंग्रेजों से खूनी लड़ाई की, क्या वे शूद्र और दलित थे? यदि नहीं, तो वह ‘शस्त्रधारी जनता’ कौन थी? हालाँकि कई इतिहासकार उक्त विद्रोह को अब भी जनता का विद्रोह कहते हैं, लेकिन उन्हीं इतिहासकारों द्वारा दी गई जानकारी से बड़ी दिलचस्प बातें सामने आती हैं—

“लोगों ने जिस तरह के हथियारों का इस्तेमाल किया उससे भी यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक आम विद्रोह था | पिस्तौलों, बर्छियों, भालों, बंदूकों, चाकुओं व लाठियों का प्रयोग किया गया | हारने के बाद जो हथियार बरामद हुए उनसे इस विषय का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है | अवध में फरवरी 1859 तक लोगों के घरों से 29,941 भाले, 42,729,932 तलवारें, 1,29,414 बंदूकें और 6,418 धनुष-बाण बरामद हुए |” 5

मात्र इतनी ही जानकारी से कई सवाल खड़े हो जाते हैं | पहली बात, बर्छियाँ, भाले और तलवारों जैसे हथियार भारत पर अपने कब्जे के बाद से केवल सवर्ण-समाज ही अपने पास रखता आया है; दलितों और शूद्रों को हथियार के नाम पर चाक़ू भी रखने की अनुमति नहीं थी, जैसाकि ऊपर बताया ही गया है | दूसरा, पिस्तौलों और बंदूकों जैसे बेहद महंगे हथियार साधारण जनता के पास कैसे आए? क्योंकि बंदूकें खरीदने के लिए बहुत अधिक धन की जरूरत आज भी होती है, जबकि इसका उत्पादन बहुत बड़े पैमाने पर होता है; तब 1857 के विद्रोह के दौरान तो वह और भी अधिक महँगी होती होंगी, शायद कई गुना महँगी; क्योंकि तब इसका बहुत ही सीमित उत्पादन होता था, वह भी सरकारी नियंत्रण में | और यह भी तो देखना होगा, कि उसे सभी सवर्ण भी खरीद नहीं सकते थे, क्योंकि खरीदनेवालों पर निश्चित रूप से ब्रिटिश-सरकार की कड़ी नज़र रहती होगी | उसमें भी लगातार अशंकापूर्ण माहौल को देखते हुए ब्रिटिश-अधिकारी हमेशा सावधान रहते होंगे |

तीसरी बात, कुछ सीमा तक तो यह ठीक है कि धनुष-बाण प्रायः आदिवासी-समाज अपने पास रखते थे, लेकिन इससे यह साबित नहीं होता कि सवर्ण-समाज अपने पास धनुष-बाण नहीं रखता था; क्योंकि सदियों तक यह उनके मुख्य हथियारों में शामिल रहा है | चौथा, लाठियों और चाकुओं जैसे हथियारों के बारे में थोड़ी देर के लिए कुछ अंश में माना जा सकता है कि सवर्णों के अलावा ये वंचित-समाजों (आदिवासियों, दलितों और शूद्रों) के पास हो सकते हैं | तब अन्य कई दूसरे सवाल भी खड़े होते हैं | क्या आदिवासियों और दलितों ने अपने शोषक सवर्ण-समाज का साथ दिया होगा? क्योंकि इतिहासकार ही बताते हैं कि आदिवासी समाजों ने प्रायः अंग्रेजों के साथ-साथ साहूकारों, जमींदारों जैसे अपने सवर्ण-शोषकों (जिन्हें वे ‘दीकू’ कहते थे, अर्थात् बाहरी व्यक्ति) का भी उतनी ही प्रतिबद्धता से विरोध किया था | वे अंग्रेज और सवर्ण, दोनों से मुक्ति चाहते थे | और दलितों की हालत यह थी कि अंग्रेजी-राज में उनको सवर्णों के अत्याचारों से कुछ मुक्ति पाकर सांस लेने की फुर्सत मिली थी, इसलिए उनकी ओर से प्रतिरोध हुआ भी होगा, तो बेहद ही सीमित और बहुत ही कम |

इसलिए जो हथियार जनता के पास से बरामद हुए, वे या तो सवर्ण-जनता के पास ही हो सकते थे, अथवा सवर्णों ने गरीब वंचित-वर्गों (दलित, आदिवासी और शूद्र) को भड़काकर उन्हें वे हथियार दिए होंगे; जैसाकि आज भी होता है, खासकर पिस्तौल और बंदूक जैसे बहुत महंगे हथियार, जिनके लिए बहुत धन की जरूरत होती है |

क्यों अफवाहों की गति तेज थी, उनके खंडन की नहीं?

इतिहासकार कारतूसों से संबंधित अफवाहों के बारे में बताते हैं कि

“परन्तु इस असंतोष को देखते हुए सरकार ने इन कारतूसों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी | परन्तु उस समय के संचार के साधनों को देखते हुए इतने बड़े क्षेत्र में शीघ्र ही किसी अफवाह का खंडन कर पाना संभव नहीं था | वैसे भी अहम् प्रश्न यह नहीं था कि सच्चाई क्या है | अहम् प्रश्न था कि लोग क्या मानने को तैयार हैं |” 6

इतिहासकार की बातों से कई बातें प्रकट रही हैं | एक तो यह, कि अंग्रेजी सरकार ने कारतूसों से संबंधित अफवाहों जनता की नाराजगी और उसके परिणाम का अंदाजा लगाकर उनके इस्तेमाल पर पाबन्दी लगा दी और लोगों को सच बताने की कोशिश की | लेकिन उसके बावजूद जितनी तेजी से अफवाहें फैलीं, उतनी ही तेजी से उसका खंडन और कारतूसों को बंद कर दिए जाने की खबर जनता तक नहीं पहुँच सकी | दूसरा, इतिहासकार के ही अनुसार, लोग वह मानना चाहते थे, जो मानने को वे तैयार थे; उन्हें इस बात से कोई मतलब ही नहीं था कि सच क्या है |

अब यहीं से संदेह शुरू होता है, कि क्यों जितनी तेजी से अफवाहें फैलीं, उतनी ही तेजी से उनका सच नहीं पहुँच पाया? वे कौन-से लोग थे, जो जनता तक सच्चाई पहुँचने से रोक रहे थे? लोग सच को क्यों नहीं मानना चाहते थे? क्या उनको लगातार गलत जानकारी दी जा रही थी, जिससे उनको अंग्रेजों की बातों पर विश्वास नहीं हुआ? कारतूसों को बंद कर दिए जाने की खबर उन तक क्यों नहीं पहुंची? आदि | क्या इन तमाम बातों के पीछे उन ख़ास लोगों का हाथ होने की संभावना नज़र नहीं आती, जिनको अंग्रेजों के रहने से नुकसान था?

निष्कर्ष

ऊपर जितनी भी बातें बताई गई हैं, उन सभी का बेहद ठोस प्रमाण अवध की रानी हजरत महल का केवल एक इश्तहार ही दे रहा है, जिसमें रानी अनपढ़-जनता को ललकार कर अनेक सच्ची-झूठी बातें कह रही है, जैसाकि उस समय के बहुत सारे हिन्दू और मुस्लिम शासक, साधन-संपन्न वर्ग कर रहे थे— सत्ता और समाज पर अपना वर्चस्व बनाए बैठे वर्गों (हिन्दुओं में सवर्ण और मुसलमानों में भी ताकतवर एवं साधन-संपन्न सत्ताधारी वर्ग) द्वारा जनता के बीच अफवाहें उड़ाए जाने का प्रमाण, ब्रिटिश-सरकार द्वारा सड़कें और रेल-लाइनों को बिछाने से ताकतवरों को होनेवाली आपत्तियों का सच, अंग्रेजी-स्कूलों में आधुनिक विषय पढ़ाए जाने से आपत्ति, अंग्रेजी स्कूलों में गरीब बच्चों को चन्दा (छात्रवृत्ति) देने से होनेवाली आपत्ति, न्याय को धर्म से नीचे रखने की बात…आदि |

यहाँ रानी उस साधन-संपन्न सुविधाभोगी शासक-वर्ग का प्रतिनिधित्व करती दिख रही है, जो जानता था कि यदि अंग्रेज भारत में रह गए, तो समाज और सिंहासन पर उनका वर्चस्व और शासन नहीं बचेगा, अंग्रेज ही काबिज रहेंगे | और यदि अपना वर्चस्व और शासन बचाना है, तो उसके लिए जनता की करोड़ों आबादी को अपने साथ हर हाल में लाना ही होगा, ताकि शासक-वर्गों और साधन-संपन्न लोगों का नुकसान कम-से-कम हो | इतिहास सैकड़ों बार गवाही दे चुका है कि शासक-वर्गों ने खूनी संघर्ष में जनता को आगे करके अपना अत्यधिक नुकसान होने से बचाया है, संघर्ष में जनता मरी है, शासक-वर्ग नहीं | और जनता को लाने के लिए वह उपाय करना जरूरी था, जिससे वह आसानी से उसके साथ आ सके | जनता को आसानी से साथ लाने का सबसे बढ़िया उपाय था धर्म | और धर्म ‘गाय और सूअर की चर्बी’ से होकर जाता था, ऊँट, भेड़, बकरी, भैंस आदि की चर्बी से नहीं | इतिहासकार लिखता है—

“भारतीयों में धर्म-संबंधी रोष व कटुता का अनुमान उस इश्तहार से लगाया जा सकता है जो अवध के राजा की उपपत्नी हजरत महल ने, जिसने अपने दो वर्षीय लड़के बिरजिस कैदर के नाम पर विद्रोह किया था, रानी विक्टोरिया की 1 अक्टूबर 1858 की घोषणा के बाद जारी किया | इस इश्तहार में कहा गया कि—

“ईसाई धर्म सत्य है परंतु अन्य किसी धर्म का निरादर नहीं किया जाएगा तथा कानून के सम्मुख सब बराबर होंगे | धर्म में क्या सत्य है और क्या असत्य इसका न्याय से क्या संबंध है? सूअर खाना और शराब पीना, चर्बी वाले कारतूसों को मुँह से काटना, सूअर की चर्बी को आटे और मिठाइयों में मिलाना, हिंदू तथा मुस्लमान धार्मिक स्थलों को सड़क बनाने के नाम पर तोड़ना, चर्च बनाना, पादरियों को ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए जगह-जगह भेजना, अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना करना, अंग्रेजी विज्ञान सीखने के लिए बच्चों को मासिक चंदा देना— जबकि हिंदुओं तथा मुसलमानों के धर्म-स्थानों की उपेक्षा की जा रही हो— इस सबके साथ लोग यह कैसे विश्वास कर सकते हैं कि धर्म के मामलों में दखल नहीं दिया जाएगा | विद्रोह का प्रारंभ धर्म से हुआ और इसी की रक्षा के लिए लाखों ने कुर्बानी दी है |”

ऐसे समय जब राष्ट्रीयता की भावना का उदय नहीं हुआ था, संस्कृति व परंपराओं पर आने वाले खतरे के एहसास ने लोगों को मर-मिटने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि संस्कृति और परंपरा ही राष्ट्रीय भावना का पर्याय बन गई |” 7

रानी साफ-साफ ‘विद्रोह का आरंभ धर्म के लिए’ की बात कर रही है | इसलिए बार-बार संदेह होता है कि उस तथाकथित 1857 के जन-विद्रोह में सबकुछ ठीक नहीं था | उसमें कुछ तो ऐसा था कि भारत की वंचित-पीड़ित जनता ने विद्रोहियों का साथ नहीं दिया | साथ ही, जब तक संदेह नहीं किया जाएगा, तब तक पाठक और विद्यार्थी मुग्ध-भाव से ही अपने तथाकथित ‘स्वाधीनता संग्राम’ और उसके ‘नायकों’ के प्रति नतमस्तक रहेंगे; इतिहास में जाकर सच की पड़ताल करने की जरूरत महसूस नहीं करेंगे…

संदर्भ-सूची

  1. पृष्ठ-191, बी.एल.ग्रोवर और यशपाल, आधुनिक भारत का इतिहास : एक नवीन मूल्यांकन, एस.चंद एंड कम्पनी लि., दिल्ली, 2000
  2. पृष्ठ 243, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास, (संपादक) आर. एल. शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, सितम्बर 2003
  3. पृष्ठ-4, बिपिन चंद्र, भारत का स्वतंत्रता संघर्ष, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1998
  4. पृष्ठ-250, हितेन्द्र पटेल, आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2022
  5. पृष्ठ-252, स्नेह महाजन, ‘1857 का महाविद्रोह’, आधुनिक भारत का इतिहास, (संपादक) आर. एल. शुक्ल, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, सितम्बर 2003
  6. पृष्ठ-243, वही
  7. पृष्ठ-258-259, वही

–डॉ. कनक लता

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